चतुर्व्यूहवाद हेय, हेयहेतु हान एवं हानोपाय
सामान्य परिचय
- मानवीय जीवन के साक्षात्कार एवं प्रत्यक्षीकरण का सार्थक विश्लेषण भारतीय दर्शन है, जिसकी सार्थकता आत्मसाक्षात्कार के रूप में स्वीकारी जाती है। दर्शन शब्द का अर्थ है "दृष्यते अनेन इति दर्शनम्' जिसके द्वारा देखा जाए अर्थात वस्तु के तात्त्विक स्वरूप को जानना। अतः जिसे आंखों से न देखा जा सकता हो उसके लिए सूक्ष्म दृष्टि (तात्त्विक बुद्धि) की आवश्यकता होती है। इसी को दिव्य दृष्टि भी कहते हैं। अतएव भारतीय दर्शन को आत्मसाक्षात्कार का साधन अथवा मोक्ष शास्त्र कहा जाता है। भारतीय दर्शन की यही विशेषता उसे विश्व में समस्त दार्शनिक विचार धाराओं में वैशिष्ट्य प्रदान करवाती है। भारतीय दार्शनिक विवेचन पाश्चात्य दार्शनिक चिन्तन की भांति बुद्धि का विकास मात्र नहीं है अपितु मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं की विश्लेषणात्मक साक्षात्कार प्रक्रिया है। यदि भारतीय दार्शिनिक विवेचना के अनन्तः स्वरूप पर दृष्टिपात करें तो सम्पूर्ण विवेचना दुःख की हेयरूपता से प्रारम्भ होकर दुःखात्यन्ता भावरूप मोक्ष पर फलश्रुति को प्राप्त होती है। मानव जीवन की दुःखरूपता के संदर्भ में सम्पूर्ण भारतीय आस्तिक एंव नास्तिक मनीषा एकमत है। इस परम्परा में जीव जगत आत्मा-परमात्मा, कर्म-फल के स्वरूप विश्लेषणों में मतभेद हो सकता है। किन्तु यह दृश्यमान जगत पारमार्थिक स्वरूप में दुःखमय है तथा जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष है। इस विषय में कोई मतभेद नहीं है।
- आस्तिक परम्परा के आचार्यों ने दुःख से मोक्ष तक की मात्रा का विश्लेषण चिकित्सा शास्त्र के चक्रव्यूह की तरह किया है, जिस प्रकार चिकित्साशास्त्र में रोग, आरोग्य, रोग का निदान एवं औषधि इस चतुर्व्यूह पर विचार किया जाता है उसी प्रकार दर्शन परम्परा में हेय ( दुःख), हेयहेतु (अविद्या), हान ( दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति) एवं हानोपाय ( तत्त्वज्ञान) पर विचार किया जाता है। दूसरी ओर नास्तिक परम्परा के अग्रणी बौद्ध दर्शन में इस चतुर्व्यूह को चार आर्य सत्यों के रूप में विश्लेषित किया है। ये चार आर्य सत्य है। दुःख, दुःखहेतु, दुःखनिरोध एवं दुःखनिरोधगामिनी- प्रतिपत्ति । वस्तुतः जीवन की दुःखमूलकता का चिन्तन एवं दुःख के अत्यन्त अभाव के उपाय का अन्वेषण ही समस्त भारतीय चिन्तन में एक अदृश्य एकरूपता एवं समानता स्थापित करता है। जीवन के इस यथार्थ चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में दार्शनिक चिन्तन के बाह्यस्वरूप गौण ही प्रतीत होते हैं ।
दर्शन का प्रयोजन
दर्शन की उत्पत्ति का मुख्य प्रयोजन है दुःख
सामान्य (अशेष दुःख ) की निवृत्ति और सुख सामान्य (उत्तमसुख ) की प्राप्ति । इसी
कारण दर्शन शास्त्र की आवश्यकता है। डॉ० भगवानदास द्वारा दर्शन के प्रयोजन की
सार्थकता के विषय में अपनी पुस्तक " दर्शन का प्रयोजन" में लिखा है -
"सांसारिक और पारमार्थिक दुनियावी और इलाही, रूहानी दोनों मार्गों को साधने का मार्ग जो दरसावे, वही सच्चा दर्शन है।
दर्शन का व्यावहारिक प्रयोजन
दर्शन का मुख्य प्रयोजन आत्म-दर्शन माना गया जिसका उल्लेख सभी दर्शनों में यथा स्थान किया गया है। वैचारकों ने दर्शन का एक प्रयोजन लोक सेवा ( ईश्वर भक्ति, सत्संग सदुपदेश) आदि के रूप में भी प्रकाशित किया । लोक सहायता योग दर्शन में भी यही वर्णित है कि संसारी जिसे सुख कहता हैं विवेकी के लिए वह भी दुःख ही है। ये दुःख अनन्त हैं जिनका कारण है द्रष्टा और दृश्य का संयोग।
यथा :- द्रष्टृदृश्योः संयोगो हेयहेतुः ।। ( पाoयोoसू०
2 / 17 )
यथा :- तस्य
हेतुरविद्या ।। ( पाoयोoसू०
2 / 24 )
समस्त दुःखों एवं क्लेशों का प्रमुख कारण
अविद्या है। अविद्या के दूर होने पर समस्त क्लेश एवं दुःख स्वतः दूर हो जाते है।
अविद्या को दूर करने का प्रमुख साधन है - तत्वज्ञान (विवेकख्याति) ।
योग दर्शन में चतुर्व्यूह निम्नानुसार है
हेय :- दुःख का वास्तविक स्वरूप क्या है, जो 'हेय' अर्थात् त्याज्य है?
हेयहेतु :- दुःख कहाँ से उत्पन्न होता है, इसका वास्तविक कारण क्या है, जो 'हेय' अर्थात् त्याज्य दुःख का वास्तविक 'हेतु' है?
हान :- दुःख का नितान्त अभाव क्या है, अर्थात् हान किस अवस्था का नाम है? क्या है?
हानोपाय- हानोपाय अर्थात् नितान्त दुःख निवृति का साधन