गीता में वर्णित ईश्वर का स्वरुप
गीता में वर्णित ईश्वर का स्वरुप
गीता में वर्णित ईश्वर का स्वरुप प्रिय पाठकों, गीता योगीराज श्रीकृष्ण के श्रीमुख से स्फूटित ज्ञान है। जिसमें योगीराज श्रीकृष्ण स्थान - स्थान पर ईश्वर की दिव्य विभूतियों का वर्णन करते हैं। गीता के दसवें अध्याय में ईश्वर स्वरुप पर स्पष्ट प्रकाश डालते हुए कहा गया -
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषारविरंशुमान् ।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ।।
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।
इन्द्रियाणां मनश्वास्मि भूतानामस्मि चेतना ।।
रूद्राणां शंकरश्वास्मि विन्तेशो यक्षरक्षसाम् ।
वसूनां पावकश्वास्मि मेरूः शिखरिणामहम् । (गीता 10 / 21-23)
अर्थात-
अदिति के बारह पुत्रों में विष्णु और ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य हूँ तथा मैं उनचास वायु देवताओं में मरीचि नामक देवता और नक्षत्रों का अधिपति चन्द्रमा हूँ। वेदों में सामवेद, देवताओं में इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मैं मन हूँ, प्राणियों की चेतना अर्थात जीवन शक्ति हूँ। एकादश रूद्रों में स्वयं शंकर का स्वरूप हूँ, यक्ष तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूँ, और वसुओं में अग्नि, शिखर वाले पर्वतों में सुमेरू हूँ, शब्दों में ओंकार, यज्ञों में जपयज्ञ, सभी वृक्षों में पीपल, नदियों में गंगा हूँ। हे अर्जुन सृष्टि का आदि, अन्त तथा मध्य मैं ही हूँ। हे अर्जुन मैं दमन करने वालों को दण्ड देने वाला हूँ, जीतने की इच्छा वालों की नीति हूँ, और ज्ञानवालों का तत्वज्ञान मैं ही हूँ।
श्रीकृष्ण कहते है कि मेरी विभूतियों का अंत नहीं है। मैंने अपनी विभूतियों का वर्णन तेरे लिए किया है। इस संसार में जो भी विभूतियुक्त, ऐश्वर्य युक्त, शक्ति से युक्त और कान्तिमान वस्तु है उस प्रत्येक वस्तु में तुम ईश्वर (मेरे) ही तेज की अभिव्यक्ति समझ, क्योकि मैं इस सम्पूर्ण जगत को योग माया से धारण किये हुए हूँ।