उपनिषदों में वर्णित ईश्वर का स्वरुप
उपनिषदों में वर्णित ईश्वर का स्वरुप
वृहदारण्यक उपनिषद में ईश्वर के वृहद स्वरुप का वर्णन करते हुए कहा गया-
ओ३म पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते । ( वृहद उ0 5/1/1)
वह ब्रह्म पूर्ण है, यह जगत भी पूर्ण है, पूर्ण ब्रह्म से यह पूर्ण जगत उदित होता है। इस पूर्ण जगत की पूर्णता को लेकर पूर्ण ब्रह्म ही प्रलय काल में शेष रह जाता है। वह पूर्ण ब्रह्म 'ॐ' नाम वाला आकाशवत व्यापक और सनातन है।
उपनिषद में ब्रह्मवादिनी गार्गी के ईश्वर स्वरुप सम्बंधित प्रश्न का उत्तर देते हुए याज्ञवल्क्य ऋषि कहते हैं कि वह ब्रह्म अर्थात ईश्वर देशकाल से अतीत है। वह न स्थूल है, न अणु है, न ह्रस्व है, न दीर्घ है, न लाल है, न चिकना है, न छाया है, न तम है, न वायु है, न आकाश है। वह रस रहित व गन्ध विहीन है। वह आँख व कान रहित है। वह वाणी और मन से रहित है। तेज, प्राण, मुख, मात्राादि से विहीन है। उसके भीतर कुछ नहीं है और न बाहर कुछ है। वह अविनाशी ब्रह्म न कुछ खाता है और न ही उसे कोई खा सकता है।
तैत्तिरीय उपनिषद में उस ईश्वर ( ब्रह्म) की सत्ता का प्रतिपादन कुछ प्रकार हुआ है कि वरुण के पुत्र भृगु अपने पिता के पास जाकर बोले कि - हे भगवन् ! मुझे ब्रह्म ज्ञान की शिक्षा दो। इस प्रश्न पर भृगु ऋषि को उनके पिता ने उत्तर दिया कि जिससे सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, जिससे उत्पन्न हुए प्राणी जीते हैं, जिसमें जाते हुए प्रलय को प्राप्त होते हैं, उसे विशेष रूप से जानों, वह ब्रह्म परमात्मा अर्थात ईश्वर है।
ईशोपनिषद् कहती है परब्रह्म परमात्मा (ईश्वर) का जो कुछ भी यहाँ है उसमें उसका निवास है। अर्थात वह सर्वव्यापक है। वह ईश्वर स्वयं गति नहीं करता पर सबको गति में लाता है, वह दूर से दूर और पास से पास है। वह सर्वव्यापक होने से प्रत्येक में व्याप्त किन्तु सबसे परे है।
मुण्डकोपनिषद् में कहा कि वह ईश्वर प्रकाश स्वरूप है, अणु से अणु है, उसी में सब लोक-लोकान्तर और प्राणी स्थित हैं, वह अक्षर ब्रह्म है, प्राणों का प्राण व मनों मा मन है और वाणियों की वाणी है। यह सत्य स्वरूप है अमर है वही ज्ञातवय है। वह परब्रह्म ईश्वर निर्मल, पवित्र, उज्ज्वल ज्योतियों की ज्योति है, जिसे आत्मज्ञानी लोग प्राप्त करते हैं। वह परमात्मा तेज स्वरूप, सबका कर्ता सबका स्वामी है। उस ईश्वर का कोई गोत्र, जाति, वर्ण नहीं है। उसके आँख, कान नहीं है, उसके हाथ, पैर नहीं है, वह नित्य है, विभु है, सर्वव्यापक है, अत्यन्त सूक्ष्म है, वह अविनाशी है, वह संसार का उत्पादक है, उसे धीर लोग देखते हैं।
कठोपनिषद् में ईश्वर के लिए कहा कि वह अशरीरी है और सब शरीरों में व्यापक है। वह अस्थिरों में स्थिर है, वह महान और विभु है। वह नित्य पदार्थों से भी नित्य है, चेतनों का चेतन है, एक है, सबको बनाने वाला वही है ।
केन उपनिषद् उस ईश्वर लिए कहती है कि वह श्रोत्रा का श्रोत्र, मन का मन, वाणियों की वाणी, प्राणों का प्राण, चक्षुओं का चक्षु है। ऐसे सबके आदि स्रोत परमात्मा को धीर लोग मरने के बाद प्राप्त करके अमर हो जाते हैं।
जैमिनीयोपनिषद् में 'ॐ' शब्द के द्वारा ईश्वर स्वरूप का निरूपण किया गया है। मुण्डक उपनिषद् तो ईश्वर को ही प्रमुख लक्ष्य बताते हुए कहती है कि ईश्वर का वाचक प्रणव ही मानो धनुष है, यहाँ जीवात्मा ही बाण है और परब्रह्म ईश्वर ही उसके लक्ष्य
इस प्रकार उपनिषद साहित्य में भी ईश्वर स्वरुप का सविस्तार वर्णन किया गया है .