दर्शनों (योग दर्शन) में वर्णित ईश्वर का स्वरुप
दर्शनों (योग दर्शन) में वर्णित ईश्वर का स्वरुप
प्रिय पाठकों, योगी साधक पुरुष का परम ध्येय ईश्वर साक्षात्कार होता है। ईश्वर के स्वरूप को जानकर उसमे लीन होना (समाधि) योग साधना की उच्च अवस्था है। योग दर्शनकार महर्षि पतंजलि योग दर्शन ग्रन्थ के प्रथम अध्याय (पहले पाद) में ईश्वर के स्वरुप की व्याख्या करते हुए कहते हैं-
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविषेश ईश्वरः । ( पा० यो० सू० 1 / 24 )
अर्थात
क्लेश, कर्म, कर्मफलों तथा इनके भोगों के संस्कारों से रहित जीवों से भिन्न स्वभाव वाला चेतन विशेष ईश्वर है।
प्रिय पाठकों, उपरोक्त योगसूत्र में महर्षि पतंजलि पुरुष ( मनुष्य) से भिन्न ईश्वर के स्वरुप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सामान्य मनुष्य का जीवन अविद्या, अस्मिता नामक पंच क्लेशों से घिरा रहता है परन्तु वह पुरुष विशेष जो इन क्लेशों से मुक्त रहता है, ईश्वर कहलाता है। मनुष्य शुभ अशुभ एवं मिश्रित कर्मों में लिप्त रहता है तथा इन कर्मों के परिणाम स्वरुप प्राप्त सुख व दुख नामक फलों का भोग करता है। इसके साथ-साथ कर्मफलों का भोग करने के परिणाम स्वरुप उत्पन्न संस्कारों अर्थात वासनाओं से युक्त रहता है किन्तु वह पुरुष विशेष जो जीवों के इन स्वभावों से परे अर्थात भिन्न है, ईश्वर कहलाता है।
ईश्वर के स्वरुप पर प्रकाश डालते हुए महर्षि पतंजलि पुनः कहते हैं
तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम् । ( पा० यो0 सू० 1/25)
अर्थात ईश्वर में निरतिशय सर्वज्ञता का बीज है।
इस संसार में भिन्न-भिन्न ज्ञान के स्तर के मनुष्य होते हैं, कोई अल्पज्ञानी होता है तो कोई सामान्य ज्ञान रखता है जबकि कोई बहुत ज्ञानी होता है। मनुष्य के ज्ञानों के इस स्तर को सातिशय ज्ञान कहा जाता है किन्तु इस सतिशय ज्ञान से परे वह ईश्वर निरतिशय ज्ञान से युक्त है। सरल शब्दों ईश्वर अनन्त ज्ञान के भण्डार से युक्त है। ईश्वर के ज्ञान का कोई आदि और अन्त नही है, वह सर्वज्ञ अर्थात सब कुछ जानने वाला है। सर्वज्ञता के ज्ञान रखने वाले ईश्वर के स्वरुप की व्याख्या करते हुए महर्षि पतंजलि आगे लिखते हैं---
स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् । ( पा० यो० सू० 1/26 )
अर्थात वह ईश्वर भूत भविष्य और वर्तमान में उत्पन्न होने वाले सब गुरुओं का भी गुरु है। पूर्वसूत्र में समझाया गया कि ईश्वर सर्वज्ञ है। इस सूत्र में महर्षि पतंजलि स्पष्ट करते हैं कि वह सर्वज्ञ ईश्वर सब विद्वान ज्ञानीजनों का गुरु है। इस संसार में अनेक प्रकार की विद्याओं एवं ज्ञानों को धारण करने वाले गुरु हैं किन्तु ईश्वर भूत, भविष्य और वर्तमान के सब गुरुओं का भी महान गुरु है। इस महान गुरु ईश्वर की कृपा से ही संसार के सब गुरु ज्ञान प्राप्त करते हैं।
प्रिय विधार्थियों ईश्वर के स्वरूप को समझाने की श्रृंखला ईश्वर के गुणों एवं उसकी महिमा के विषय में ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त अब यह प्रश्न उपस्थित होना स्वभाविक ही है कि ईश्वर को हम किस नाम से जानें ? ईश्वर का सर्वोत्तम वाचक क्या हो सकता है ? हम ईश्वर को किस नाम से पुकारे ? इस प्रश्न के उत्तर को स्पष्ट करते हुए महर्षि पतंजलि आगे योग सूत्र में लिखते हैं
तस्य वाचक प्रणवः ।। ( पा० योo सू० 1 / 27 )
अर्थात उस ईश्वर का बोधक शब्द (नाम) प्रणव ऊँ ) है।
यद्यपि ईश्वर के विशेषणों (विशेषताओं) के आधार पर ईश्वर को अनेक नामों से सम्बोधित किया जाता है किन्तु ईश्वर का सबसे प्रमुख वाचक अर्थात नाम ऊँ है । ॐ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा की तीन धातुओं अकार, उकार एवं मकार से होती है। अकार धातु उत्पन्न करने के अर्थ में, उकार धातु चलाने के अर्थ में एवं मकार धातु विनाश के अर्थ में प्रयुक्त होती है अर्थात ॐ शब्द अपने अन्दर ईश्वर के तीन मूल गुणों, विशेषताओं एवं कार्यों को समाहित किए होता है। ईश्वर सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता, वही पालनकर्ता है तथा वह ईश्वर ही सृष्टि का संहारकर्ता है इसीलिए ईश्वर का सर्वात्तम वाचक ॐ है। मनुष्यों को ईश्वर का चिन्तन मनन करते हुए उसकी स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना में लीन रहना चाहिए, इस विषय पर प्रकाश डालते हुए महर्षि पतंजलि लिखते हैं
तज्जपस्तदर्थभावनम् ।। ( पा० यो० सू० 1/28)
अर्थात उस ईश्वर के वाचक ॐ शब्द का जप और ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव का चिन्तन करना चाहिए।
जिज्ञासु पाठकों, मनुष्य जिस विषय का चिन्तन एवं मनन करता है, वह उसी के गुणों को धारण करता हुआ उस जैसा ही बन जाता है। योग साधक अष्टांग योग की साधना करते हुए जब अपनी समस्त वृत्तियों को अर्न्तमुखी कर लेता है एवं अपनी समस्त ऊर्जा आराध्य देव ईश्वर को प्राप्त करने में लगाता है तब उसका मूल ध्येय ईश्वर होता है इस अवस्था में वह ईश्वर का मनन चिन्तन उसके प्रमुख वाचक ऊँ से करता हुआ ईश्वर के अन्यन्त समीप पहुँच जाता है। वह अपने अन्दर ईश्वरीय गुणों को धारण करने लगता है।
आधुनिक भौतिकवादी जीवन में मनुष्य केवल भौतिक पदार्थों एवं विषयों का ही चिन्तन मनन करता है तथा इसके परिणामस्वरूप वह मानसिक तनाव एवं अशान्ति से ग्रस्त हो जाता है जबकि महर्षि पतंजलि ईश्वर के वाचक ऊँ का जप एवं चिन्तन करने का उपदेश करते हैं जिससे मनुष्य अपने स्वरूप को ईश्वर के साथ जोड लेता है तथा ईश्वर के साथ जुडकर वह परम शान्ति एवं आनन्द की अनुभूति करता है। इसके साथ-साथ ईश्वर का जप व चिन्तन करने से ईश्वर के गुणों का समावेश उस साधक पुरुष के चरित्र में होने लगता है। इसके साथ-साथ ईश्वर मनन चिन्तन के प्रभावों को स्पष्ट करते हुए महर्षि पतंजलि लिखते हैं-
ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च ।। (पा० योo सू० 1/29)
अर्थात
उस ईश्वर प्राणिधान से परमात्मा का साक्षात्कार, जीवात्मा का साक्षात्कार और विघ्नों का अभाव होता है।
ईश्वर का मनन चिन्तन एवं ईश्वर के प्रति सर्मपण भाव अर्थात ईश्वर प्राणिधान का पालन करने से जीवात्मा-परमात्मा के समीप पहुंचकर परमात्मा का साक्षात्कार करता है। परमात्मा का साक्षात्कार होने पर जीवात्मा को आत्मसाक्षात्कार की अनुभूति होती है एवं आत्मसाक्षात्कार होने पर जीवात्मा के विघ्नों का अभाव अर्थात विनाश होता है। इस प्रकार योग दर्शन में महर्षि पतंजलि ईश्वर के स्वरूप को सविस्तार समझाते हैं। प्रिय पाठकों भारतीय समाज में गीता का एक विशिष्ट स्थान है। जीवन मार्ग से विचलित मानव को सन्मार्ग पर लाने में धर्मग्रन्थ गीता एक श्रेष्ट पथ प्रर्दशक की भूमिका वहन करती है। वेद, उपनिषद् एवं दर्शन में वर्णित ईश्वर स्वरुप का अध्ययन करने के उपरान्त अब गीता में वर्णित ईश्वर स्वरुप को जानने की जिज्ञासा निश्चित ही आपके मन में उत्पन्न हुई होगी.