क्रियायोग की महत्ता
क्रियायोग की महत्ता
- महर्षि पतंजलि ने यद्यपि तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान ये तीनों अंग ही अष्टांग योग में वर्णित किये है। इन तीनों की विशेष महत्ता होने के कारण जीवन में क्लेशों की निवृत्ति का साधन होने के कारण ही इनका विशेष वर्णन किया है।
प्रिय विद्यार्थियों यह क्रियायोग मनुष्य के क्लेशों को क्षीण कर समाधि की सिद्धि देने वाला है। जिसका वर्णन महर्षि पतंजलि ने क्रियायोग के दो फल बताकर इस प्रकार किया है -
'समाधि भावनार्थ क्लेश तनु करणार्थश्च ।' पा० यो० सू० 2/2
अर्थात निश्चय ही यह क्रिया योग समाधि की सिद्धि देने वाला तथा अविद्यादि क्लेशों को क्षीण करने वाला है।
विभिन्न आचार्यो तथा विद्वानों ने क्रियायोग की महत्ता का वर्णन इस प्रकार किया है -
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार क्रियायोग की महत्ता
- संयम के अभाव में ही योग के सारे विघ्न उपस्थित होते है और उनसे फिर क्लेश की उत्पत्ति होती है। उन्हें दूर करने का उपाय है। क्रियायोग द्वारा मन को वशीभूत कर लेना उसे अपना कार्य करने न देना।
आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुसार क्रियायोग की महत्ता
- समाधि भावना को दृढ़ करना व जाग्रत करना क्रियायोग का पहला प्रयोजन है।
पंडित श्री राम शर्मा जी के अनुसार क्रियायोग की महत्ता
- निश्चय ही यह क्रियायोग अन्तः करण, चित्त आदि को विकारों आदि से शिथिल कर क्षीण करके समाधि की प्राप्ति में सहयोगी होता है। तप स्वाध्याय ईश्वर प्रणिधान रूप क्रियायोग के द्वारा कायिक, मानसिक तथा वाचिक क्लेशादि विकारों का शमन होता है।
- क्रियायोग में तप (कर्म) स्वाध्याय (ज्ञान) ईश्वर प्रणिधान (भक्ति) का सुन्दर समन्वय मनुष्य के जीवन को उच्च व दिव्य बनाता है। यही कर्म भक्तिज्ञान के सुन्दर समन्वय को महर्षि पतंजलि ने क्रियायोग कहा है। यह क्रियायोग अविद्या आदि क्लेश, जिनके संस्कार बीज रूप में चित्त भूमि में जन्म जन्मान्तरों से पड़े हुये है। उन संस्कारों को क्षीण करने और चित्त को समाधि की प्राप्ति की योग्यता प्रदान करने हेतु किया जाता है। तप जिसे कर्मयोग कहा जा सकता है। उसी तप से शरीर, इन्द्रिय, प्राण, मन की अशुद्धि दूर होती है तथा वे शुद्ध होकर क्लेशों को दूर करने और समाधि प्राप्ति में सहायक होते हे।
- स्वाध्याय जिसे ज्ञान योग कहा जा सकता हैं। इस ज्ञान योग से स्वाध्याय से अन्तःकरण की शुद्धि होती है और चित्त के ऊपर विक्षेपों का आवरण हट जाता है तथा चित्त शुद्ध होकर समाहित होने योग्य हो जाता है।
- ईश्वर प्रणिधान जिसे भक्तियोग कहा जा सकता है। उस ईश्वर प्रणिधान से शीघ्र ही समाधि की सिद्धि होती है और क्लेशों की निवृत्ति होती है। महर्षि पतंजलि ने इसका वर्णन योगसूत्र में 1/20 में किया है कि ईश्वर प्रणिधान के द्वारा श्रृद्धा पूर्वक समाधि की शीघ्र सिद्धि मिलती है, बिना श्रद्धा के समाधि सिद्ध नहीं हो सकती है।
गीता में 4 / 39 कहा गया है।
'श्रद्धावां लभते ज्ञानम् ।'
अर्थात् श्रद्धावान मनुष्य को ही ज्ञान प्राप्त होता है।
अतः क्रियायोग द्वारा क्लेशों को तनु करना चाहिये। क्लेशो के तनु होने पर अभ्यास वैराग्य का मार्ग प्रशस्त होता है। अभ्यास वैराग्य से सम्प्रज्ञात समाधि की उच्च अवस्था विवेक ख्याति से सूक्ष्म किये क्लेशों के संस्कार रूप बीज दग्ध हो जाते है। क्लेशरूपी बीजों के दग्ध होने पर ही पर वैराग्य की प्राप्ति होती है। पर वैराग्य के संस्कारों की वृद्धि से विवेक ख्याति अधिकार समाप्त होता है, और असम्प्रज्ञात समाधि का लाभ प्राप्त हो जाता है।
क्रियायोग निष्कर्ष
- महर्षि पतंजलि ने साधनपाद में मध्यम कोटि के साधकों को क्रियायोग के द्वारा क्लेशों को तनु व समाधि की सिद्धि होती है। पंच क्लेश पाँच प्रकार के क्लेश जिनके संस्कार बीज रूप से चित्त भूमि में जन्म जन्मान्तरों से पड़े हुये है। उनको तनु करने के लिये और चित्त को समाधि की प्राप्ति के योग्य बनाने हेतु क्रियायोग की साधना की जाती है। क्रियायोग के तीन साधन तप, स्वाध्याय ईश्वर प्रणिधान है। तप से शरीर व इन्द्रियों की अशुद्धि दूर होने पर ये समाधि की सिद्धि में सहायक है। स्वाध्याय से अन्तःकरण शुद्ध होता है। ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि शीघ्र होती है।
- महर्षि पतंजलि ने कर्म भक्ति ज्ञान का सुन्दर समन्वय इस क्रिया योग में किया है। ईश्वर प्रणिधान जो कि भक्तियोग है, भक्ति के द्वारा ईश्वरीय ज्ञान (ज्ञान योग) की प्राप्ति है, और इस ज्ञान द्वारा हमारे कर्म स्वयं ही कुशल हो जाते है, क्योंकि ज्ञान द्वारा सही गलत का ज्ञान, विवेक ज्ञान की प्राप्ति होती है। इस कर्म भक्ति ज्ञान का समन्वय क्रियायोग हमारे क्लेशों को कम कर जीवन में दिव्यता लाता है, तथा समाधि में सहायक है।