योग दर्शन में वर्णित कैवल्य की अवधारणा
योग दर्शन में वर्णित कैवल्य की अवधारणा
प्रिय पाठकों योगसूत्र में महर्षि पतंजलि के अनुसार मुक्ति या मोक्ष की शास्त्रीय संज्ञा 'कैवल्य' है । 'कैवलस्य भावः कैवल्यम्' के अनुसार मोक्षावस्था में जीवात्मा निज स्वरूप में स्थित हो जाता है, यह स्वरूपावस्थान ही कैवल्य है। इसमें चित्तवृत्तियों का निरोध होकर अपने स्वरूप में स्थिति होती है। कैवल्य की इस अवस्था को समझाते हुए महर्षि पतंजलि योगसूत्र में कहते हैं -
तदा द्रष्टुः स्वरुपरूपेऽवस्थानम् ।। ( पा० योo सू० 1 / 3)
अर्थात
चित्त वृत्तियों के निरोध हो जाने पर असम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था में जीवात्मा अपने तथा परमात्मा के स्वरूप को जानकर अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाता है। कैवल्य की यह अवस्था कैसे प्राप्त होती है इस विषय पर प्रकाश डालते हुए पतंजलि ऋषि साधन पाद में कहते हैं कि मिथ्याज्ञान (अविधा) की वासना के निवृत्त होने से, चित्तवृत्ति और पुरुष के संयोग का अभाव हो जाता है, अर्थात पुरुष के बन्धन की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है। यही हान ( दुःख का नाश ) है यही द्रष्टा अर्थात पुरुष का कैवल्य या मोक्ष है।
महर्षि पतंजलि कहते हैं-
तदभावात्संयोगाभावो हानं तदृशेः कैवल्यम् ।। (पाoयो0सू० 2/25)
अर्थात
अविधा के अभाव होने पर द्रष्टा ( जीवात्मा) और दृश्य (प्रकृति) के संयोग का अभाव हो जाता है, यही हान है। यही जीवात्मा का कैवल्य है।
विषय को और अधिक स्पष्ट करते हुए महर्षि पतंजति तृतीय पाद में कहते हैं -
सत्वपुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यमिति ।। (पाoयो0सू० 3 / 55 )
अर्थात
सत्व (बुद्धि) की और पुरुष (जीवात्मा) की शुद्धि होने पर मोक्ष होता है। प्रिय पाठकों, योग दर्शन ग्रन्थ में महर्षि पतंजलि ने योग साधक का चरम लक्ष्य कैवल्य अर्थात मोक्ष प्राप्ति कहा है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रथम पाद में समाधि विषय पर प्रकाश डाला गया। समाधि प्राप्ति के क्या क्या साधन है इन साधनों अर्थात अष्टांग योग के विषय में द्वितीय पाद में उपदेश किया गया। जो साधक इन साधनों का अभ्यास करता हुआ इन्हें सिद्ध करता है तो उसमें कुछ लक्षण विशेष अर्थात सिद्धियां (विभूतियां) उत्पन्न होते हैं जिनका वर्णन तृतीय पाद में किया है। ऐसा योगाभ्यासी सिद्ध पुरुष मानव जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है जिसका वर्णन महर्षि पतंजलि चतुर्थ पाद में करते हैं।
योग दर्शन गन्थ के कैवल्य पाद के अन्तिम योगसूत्र में महर्षि पतंजलि कैवल्य के स्वरूप की सविस्तार व्याख्या करते हुए कहते हैं -
पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति ।। (पा०यो0सू० 4 /34)
अर्थात भोग और अपवर्ग प्रयोजन से रहित चित्तादि कार्यरुप गुणों का अपने कारण में लीन हो जाना, अथवा सब क्लेशों से सर्वथा छूटकर जीवात्मा का अपने तथा ईश्वर के स्वरुप को ठीक-ठीक जानकर अपने और ईश्वर के स्वरूप में अवस्थित हो जाना, "कैवल्य अर्थात मोक्ष " है।
प्रिय पाठकों, इस प्रकार उपरोक्त अध्ययन स्पष्ट करता है कि कैवल्य का अर्थ पुरुष अर्थात जीवात्मा का अपने स्वरूप को जानकर ईश्वर में लीन हो जाना ही कैवल्य है। इस अवस्था में जीवात्मा जन्म व मरण के चक्र से सदा के लिए छूटकर ईश्वर के आनन्द में लीन हो जाता है। किन्तु अब आपके मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न होनी स्वभाविक ही है कि इस कैवल्य की अवस्था को कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? कैवल्य प्राप्ति के उपाय क्या क्या है ? अतः अब विभिन्न ग्रन्थों में वर्णित कैवल्य प्रप्ति के उपायों पर विचार करते हैं।