क्रिया योग है क्या, क्रियायोग के साधन तप स्वाध्याय ईश्वर प्रणिधान
क्रिया योग है क्या
- महर्षि पतंजलि ने साधनपाद में समाहित चित्त वाले योग के उत्तम अधिकारियों के लिये योग साधना का मार्ग अभ्यास वैराग्य मार्ग बताया है तथा उन अधिकारियों के लिये जिनका चित्त सांसारिक वासनाओं तथा राग द्वेष आदि से कलुषित है। उनके लिये अभ्यास व वैराग्य की साधना कठिन होती है। मध्यम कोटी के साधकों का भी चित्त शुद्ध होकर अभ्यास और वैराग्य का सम्पादन कर सके, इस प्रकार चित्त की एकाग्रता के लिये क्रियायोग का मार्ग बताया गया है।
- महर्षि पतंजलि ने उत्तम कोटि के साधकों के लिये समाधि पाद की रचना की है। जिसमें उन्होंने अभ्यास वैराग्य की बात कही है। समाधिपाद में भावना प्रधान है क्रिया नहीं। साधनपाद में मध्यम कोटि के साधकों के लिये क्रिया योग बताया गया है। इस क्रिया योग में क्रियात्मक पहलुओं का समावेश है। क्रियायोग के तीन साधन है तप, स्वाध्याय, - ईश्वर प्राणिधान । क्रिया योग में क्रियात्मक पहलुओं का समावेश होने के कारण ही क्रियायोग नाम पड़ा।
पंडित श्री राम शर्मा आचार्य जी के अनुसार "चित्त की निर्मलता के सहज उपक्रम को क्रियायोग कहा है।'
क्रियायोग का अर्थ
- क्रियायोग का अर्थ है कर्म के सहारे योग की ओर बढ़ना। इसको इस प्रकार समझा जा सकता है हमारी देह मानों एक रथ है, इन्द्रियां घोड़े है, मन लगाम है, बुद्धि सारथी है, आत्मा रथी है। गृहस्वामी आत्मा रथ में सवार है। यदि घोड़ों की गति बहुत तेज हो और लगाम खिंची ना रहे तो रथ की बड़ी दुर्दशा हो जायेगी पर यदि इन्द्रिय रूपी घोड़े अच्छी तरह से संयत रहे और मन रूपी लगाम बुद्धि रूपी सारथी के हाथों अच्छी तरह से थमी रहे तो रथ ठीक अपने गंतव्य तक पहुँच जाता है।
- क्रिया योग अर्थात् योग या चित्त निरोध को लक्ष्य कर कर्म करना आचार्य उदयवीर शास्त्री योग के अंतरंग साधनों का अनुष्ठान वे उत्तम अधिकारी कर पाते हैं, जिनका चित्त पहले से शुद्ध है, परन्तु जो अभी विक्षिप्त चित्त है। उन मध्यम अधिकारियों के लिये आवश्यक है कि वे प्रथम बहिरंग साधनों का अनुसंधान कर चित्त को शुद्ध बनाये। जैसे खेत में उपजे खरपतवार निकाल कर बीज बोने योग्य बनाया जाता है। उसी प्रकार साधन अपने मन को वश में कर लेता है।
पंडित श्री राम शर्मा आचार्य जी के अनुसार
- समाधिपाद का लाभ स्वाभाविक सहज, शुद्ध अन्तःकरण सम्पन्न योगी ही ले सकते है। अतः साधनपाद में मध्यम कोटि के साधकों के लिये क्रमानुसार अन्तस की सहज निर्मलतापूर्वक निर्बीज समाधि प्राप्त करने के उपाय का प्रतिपादन किया है।
क्रियायोग का वर्णन महर्षि पतंजलि ने इस प्रकार किया है-
'तपस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ।'
तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान क्रियायोग है।
- यह क्रियायोग मन व इन्द्रियों को वश में करने वाला व योग सिद्धि में सहायक है। क्रियायोग से क्लेश तनु हो जाते है। तथा समाधि की योग्यता आ जाती है। साधक की समाधि की अवस्था में ही सभी दुःखों की निवत्ति हो जाती है। तथा समस्त सुखों की प्राप्ति कर जीवन दिव्य गुणों से परिपूर्ण हो जाता है।
ये क्रियायोग के तीन साधन है। तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान इनका वर्णन इस प्रकार है -
क्रियायोग के साधन -
प्रिय विद्यार्थियो, यह क्रियायोग क्लेशों को क्षीण करने वाला तथा समाधि की योग्यता प्रदान करने वाला है। जीवन में दिव्य गुणों का समावेश करने वाला है। महर्षि पतंजलि ने साधन पाद में क्रियायोग के तीन साधन बताये है ये साधन निम्न है -
- 1. तप
- 2. स्वाध्याय
- 3. ईश्वर प्रणिधान
1 तप क्या है (तप का तात्पर्य क्या है ?)
- तप क्रियायोग का वह साधन है जिस साधन से साधक के जन्म जन्मान्तरों से संचित चित्त में जो अविद्यादि क्लेशों और वासनाओं के संस्कार है, उन संस्कारों से मुक्त हो चित्त पूर्णतया शुद्ध हो जाता है। और चित्त निर्मल हो जाता है।
- तप का तात्पर्य है तपाना, शरीर, मन, प्राण और इन्द्रियों का उचित रीति व अभ्यास से वश में करना अथवा साधना मार्ग में चलते हुये जो भी शारीरिक व मानसिक कष्ट हों उन्हें सहर्ष सहन करना तप' है। इसे इस प्रकार सहजता से समझा जा सकता है कि अपने लक्ष्य या ध्येय को प्राप्त करने के लिये मार्ग में आने वाली शारीरिक व मानसिक कष्टों (पीड़ा) या बाधओं को सहर्ष सहन करना "तप" है ।
शास्त्रों में कहा भी गया है-
'तपो द्वन्द सहनम् ।'
अर्थात् चाहे कितना ही कष्ट सहन करना पड़े फिर भी अपने धर्म (कर्तव्यकर्म) से न डिगना तप है।
महाभारत में वर्णन है
'तपः स्वधर्म वर्तित्वम् ।
म. भा. वन 3/3/88
अर्थात् चाहे कितना भी कष्ट सहन करना पड़े फिर भी अपने धर्म (कर्तव्य कर्म) से न डिगना तप है।
चाणक्य सूत्र के अनुसार
'तपः सार इन्द्रिय निग्रहः । चाणक्यसूत्र 5 / 85
- अर्थात् इन्द्रियों को अनुचित विषयों से रोकना ही तप है ।
ओमोनन्द तीर्थ जिस प्रकार अश्व विद्या में कुशल सारथी चचंल घोड़े को साधता है, उसी - प्रकार शरीर, प्राण, इन्द्रियों एवं मन को उचित रीति और अभ्यास से वशीकार करने को तप कहते है।
- आचार्य उदयवीर शास्त्री जो व्यक्ति तपस्वी नहीं है वह योगमार्ग में प्रवृत्त नहीं हो सकता है। क्लेश और वासनाओं का शयन शशि तप प्रभाव से कम होती है। तप का आचरण मन, वाणी, शरीर तीनों से होना चाहिये ।
शास्त्रों में तीन प्रकार के तप
शास्त्रों में तीन प्रकार के तप का वर्णन मिलता है। यथा कायिक तप, वाचिक तप एवं मानसिक तप-
इन तीनों कायिक वाचिक एवं मानसिक तप के द्वारा अन्तःकरण उसी प्रकार पवित्र हो जाता है। जिस प्रकार धातु को आग में तपाने पर उसकी अशुद्धियों का नाश होकर पूर्ण शुद्ध धातु प्राप्त हो जाती है ।
क) कायिक तप
- शारीरिक तप कायिक तप के अन्तर्गत आते है। शारीरिक तप के - अन्तर्गत शारीरिक द्वन्दों को सहन करना, शरीर से शीत तथा उष्ण, भूख प्यास सहन करना योगानुष्ठान का पालन करना, व्रत उपवास आदि शारीरिक तप है। शारीरिक तप से पापों का क्षय होता है।
ख) वाचिक तप –
- मन, वचन, कर्म से आचरण करना, प्रिय बोलना, शास्त्रों के अनुसार शुद्ध विचारों से युक्त प्रिय वाणी, बड़ों का सम्मान तथा छोटों को स्नेह, व्यर्थ का वार्तालाप न करना, किसी से भी हास्यास्पद या छलयुक्त वाणी का प्रयोग न करना, मौन व्रत का पालन करना, वाणी के तप कहे जाते है। श्रीमद भगवद् गीता में कहा गया है कि वाणी के तप से साधक को अमोध शक्ति प्राप्त होती है।
ग) मानसिक तप
- नकारात्मक विचारों को दैवीय गुणों से युक्त भावों या विचारों से नष्ट करते रहना ही मानसिक तप है। पवित्र श्रेष्ठ सद्विचारों को मन में धारण करना तथा हिंसात्मक व कठोर भावनाओं का त्याग करना ही मानसिक तप है। कामनाओं का त्यागकर इन्द्रियों को विषयों के वशीभूत ना करके, इन्द्रिय संयम कर उन्हें ईश्वरोन्मुख बनाना ही मानसिक तप है।
- उपर्युक्त तीनों तप करने से तथा इच्छा कामना का त्याग करने से साधक का अन्तःकरण शुद्ध व पवित्र हो जाता है। यही तप ही श्रीमदभगवद्गीता में कर्म योग नाम से व्यक्त किया गया है।
2 स्वाध्याय -
- क्रियायोग का दूसरा चरण स्वाध्याय है। स्वाध्याय का शाब्दिक अर्थ है स्व अध्याय । स्व पद के चार अर्थ है - आत्मा, आत्मीय, आत्म सम्बन्धी जाति । अध्याय का अर्थ है चिंतन, मनन या अध्ययन |
- इस प्रकार स्वाध्याय का अर्थ है - आत्म विषयक चिंतन या मनन कराना या आत्म विषयक वेद, पुराण, उपनिषद, मोक्ष शास्त्रों का अध्ययन करना तथा प्रणव आदि मंत्रों का जप करना।
- स्वाध्याय का दूसरा अर्थ है स्वयं का अध्ययन करना तथा अपने जीवन का स्वयं - समीक्षात्मक अध्ययन ही स्वाध्याय है। ऐसा ज्ञान अर्जित करना जिससे स्व कर्तव्य का बोध हो सके ऐसे महापुरुषों का जीवन दर्शन व वेद पुराण उपनिषदों का अध्ययन करना, केवल अध्ययन ही नहीं करना वरन् उनका चिन्तन व मनन करना तथा शास्त्रोक्त बुरे कर्मो का त्याग कर ईश्वर के प्रति समर्पण भाव स्वाध्याय कहलाता है।
महर्षि व्यास के अनुसार स्वाध्याय
'स्वाध्यायः प्रणव श्री रूद्रपुरूषसूक्तादिः मन्त्राणां जपःमोक्ष्य शास्त्राध्ययभ्य ।'
योग भाष्य 2 /1
अर्थात् प्रणव अर्थात ओंकार मंत्र का विधिपूर्वक जप करना रूद्रसूक्त तथा पुरूषसूक्त आदि वैदिक मंत्रों का अनुष्ठान कर जप करना तथा मोक्ष शास्त्रों का गुरुमुख से श्रवण करना या अध्ययन करना स्वाध्याय है।
आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुसार स्वाध्याय
1. आत्म विषयक चिन्तन मनन करना तथा वेद, उपनिषद आदि मोक्ष प्रदत्त शास्त्रों का अध्ययन करना प्रणवमंत्रों का जप करना आदि स्वाध्याय है।
2. आत्मा का स्वरूप क्या है? कहाँ से आता है? कहा जाता है? इत्यादि विवेचन से
जानकारी के लिये प्रयत्नशील रहना स्वाध्याय है।
3. बन्धु - बान्धव आदि की वास्तविकता को समझ कर मोहवश उधर आकृष्ट न होते हुये विरक्ति की भावना को जाग्रत करना स्वाध्याय है।
4. धन सम्पत्ति की ओर आकृष्ट ना होना तथा धन की नश्वरता को समझते हुये निर्वाह उपयोगी मात्रा में आस्था रखना स्वाध्याय है।
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार स्वाध्याय तात्पर्य
- स्वाध्याय का पठन का तात्पर्य है उन ग्रन्थो का अध्ययन - करना जो यह शिक्षा देते है कि आत्मा की मुक्ति कैसे होती है तथा स्वाध्याय अपनी धारणाओं को दृढ़ करने के लिये आवश्यक है तथा ज्ञान प्राप्ति का रहस्य है, सार भाग को ग्रहण करना यही स्वाध्याय है।
पं० श्रीराम शर्मा जी के अनुसार स्वाध्याय
- 'अच्छी पुस्तकें जीवन्त देव प्रतिमायें है। जिनकी आराधना से तत्काल प्रकाश और उल्लास मिलता है।'
पतंजलि योग सूत्र में स्वाध्याय के फलों का वर्णन किया है -
'स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः ।' इ पा० योo सू० 2/44
अर्थात् स्वाध्याय से ईष्ट देवता का भली - भाँति साक्षात्कार हो जाता है।
अतः स्वाध्याय का अभिप्राय जीवन में उच्च विचारों के समावेश से है। स्वाध्याय से जीवन में ज्ञान का प्रकाश होता है तथा जीवन उच्च व दिव्य बनता है। मोक्ष मार्ग प्रशस्त होता है।
3 ईश्वर प्रणिधान -
- ईश्वर की शरण में स्वयं को समर्पित कर देना ही ईश्वर प्राणिधान है। ईश्वर प्रणिधान का शाब्दिक अर्थ है आत्मसमर्पण अथवा ईश्वर प्रणिधान से तात्पर्य है ईश्वर की भक्तिभावपूर्वक आत्मसर्मपण से है। मन, वचन, कर्म से उस परम् - ब्रहम परमात्मा की भक्ति करना, ईश्वर का गुणानुवाद करना, उसी का चिन्तन करना, देह इन्द्रिया, अन्तःकरण, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त आदि व समस्त कर्मो व उनके फलों को ईश्वर को समर्पित कर देना, उसी ईश्वर से अनन्य प्रीति या भक्ति करना ये सभी ईश्वर प्राणिधान के अंग है।
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार ईश्वर प्रणिधान
- ईश्वर में कर्म फल को अर्पित करना। अर्थात कर्म के लिये स्वंय कोई प्रशंसा या निन्दा ना लेकर इन दोनों को ईश्वर को समर्पित कर देना और शांति से रहना ईश्वर प्रणिधान है।
स्वामी ओमानन्द ईश्वर प्रणिधान का सामान्य अर्थ
- ईश्वर की भक्ति विशेष शरीर और मन, इन्द्रिय प्राण आदि सभी कारणो, उनसे होने वाले प्रत्येक कर्मों और उनके फलों अर्थात सारे वाह्य और आभ्यन्तर जीवन को समर्पण कर देना है।
ईश्वरप्रणिधान को व्यास भाष्य में इस प्रकार परिभाषित किया है-
‘ईश्वर प्रणिधानं तस्मिन्परमगुरौ सर्वकर्मार्पणम्।' व्या० भा० 2 / 32
अर्थात उस परम गुरु परमेश्वर सभी कर्मों को अर्पण कर देना ईश्वर प्रणिधान है। अतः मन, वचन, कर्म से ईश्वर के प्रति समर्पण ही ईश्वर प्रणिधान है।
ईश्वरप्रणिधान का फल पातंजल योगसूत्र में इस प्रकार है
‘ईश्वरप्रणिधनाद्वा। 1 / 23 पा० यो० सू०
अर्थात ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि शीघ्र हो जाती है। योगसूत्र में 2 / 45 में भी महर्षि पतंजलि ने ईश्वरप्रणिधान का फल बताया है-
'समाधिसिद्धिश्वरप्रणिधानात् ।'
- अर्थात् ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि हो जाती है। अर्थात ईश्वर प्रणिधान से ईश्वरीय कृपा की प्राप्ति होती है तथा ईश्वरीय कृपा से योग के समस्त अनिष्ट दूर हो जाते है। योगी को शीघ्र ही समाधि की सिद्धि प्राप्त हो जाती है।
- ईश्वर शरणागति ( ईश्वर प्रणिधान) एक ऐसा भक्तिमय साधन है जो साधक के जीवन में भक्ति का प्रकाश करता है ज्ञान की प्राप्ति कराता है। भक्ति योग से ज्ञान की प्राप्ति होती है तथा उस ज्ञान का प्राप्त कर कर्मों में कुशलता प्राप्त होती है। इस प्रकार तप (कर्मयोग) स्वाध्याय (ज्ञानयोग) ईश्वरप्रणिधान (भक्तियोग) महर्षि पतंजलि ने इन्हें अष्टांग योग के अन्तर्गत भी लिया है। तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान ये नियम है। इन तीनों साधनों को सूत्रकार ने क्रियायोग कहा है। इन तीनों अंगों की विशेष महिमा है। यह क्रियायोग मन, वचन तथा कर्म से नियमित रूप से आचरण में उतारने का नाम है, क्योंकि क्लेशों को क्षीण करने के लिये ईश्वरीय कृपा प्राप्त कर ज्ञान की प्राप्ति कर (नित्य अनित्य का ज्ञान) कर्मों को कुशल बना कर ही किया जा सकता है तथा इन कर्म, भक्ति, ज्ञान द्वारा ही क्लेशों को उसी प्रकार जला देते है। साधक का चित्त अविद्या आदि क्लेशों के क्षीण हो जाने पर शुद्ध हो जाता है तथा शुद्ध चित्त में जो भी कर्म होते है, वह कुशल होते हैं, तथा इस प्रकार होते हैं जैसे छिलका रहित तन्दुल (धान चावल) को यदि उर्वर भूमि में भी डाला जाय तो वह प्ररोह (अंकुरण) में समर्थ नहीं होता है। उसी प्रकार क्रियायोग ( कर्म भक्ति ज्ञान ) द्वारा क्लेश भी क्षीण हो जाते है। मनुष्य को दुःख देने में समर्थ नहीं होते है। सभी क्लेश समाप्त हो जाते है तथा समाधि की सिद्धि होती है।