ध्यान का स्वरूप अर्थ परिभाषा ,ध्यान क्या है Meditation Definition and Explanation in Hindi
ध्यान का स्वरूप
"पवित्र विचारों में निरन्तर स्नान करना ही ध्यान है।" योगांगों में सप्तम योगांग ध्यान उपासना के साधनों में विशेष महत्वपूर्ण है। ध्यान की अपनी उत्कृष्टता के कारण ही राजयोग को, जो कि आठ अंगो से युक्त है उसे ध्यान योग भी कहा जाता है। ध्यान योग द्वारा मनुष्य इस संसार चक्र के माया मोह का सर्वथा निवारण कर जब परमात्मा के प्रति प्रीति करता है। तभी योग की स्थिति प्राप्त होती है। इस प्रकार योग की सिद्धि के लिए परमात्मा की प्राप्ति के लिए या मोक्ष की प्राप्ति के लिए यदि कोइ साधन है तो वह प्रमुख साधन ध्यान ही है।
ध्यान का अर्थ
ध्यान शब्द की उत्पत्ति 'धै धातु के ल्युट प्रत्यय लगाने से हुई है। जिसका अर्थ है, चिन्तन करना। महर्षि पतंजलि के अनुसार प्रत्याहार से जब चित्त वृत्तियों को एकीकृत किया जाता है, एकीकृत चित्त वृत्तियों को धारणा का अभ्यास करते हुए किसी एक लक्ष्य पर निर्धारित किया जाता है। एकीकृत चित्त वृत्तियों के बीच कोई भी अन्य वृत्ति ना आए, चित्त में निरन्तर उसका ही मनन होता रहे, उसे ही ध्यान कहते है। अर्थात इसे इस तरह भी कह सकते है, ध्येय विषय पर निरन्तर मनन ही ध्यान है।
ध्यान चित्त की वह अवस्था है जिसमें चित्त एकाग्र हो जाता है। सतोगुण की प्रधानता हो जाती है, तथा रजोगुण व तमोगुण का प्रभाव समाप्त हो जाता है। ध्यान की अवस्था में चित्त की मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त अवस्थाऍ विलीन हो जाती है। महर्षि दयानन्द ने ध्यान के पारिभाषिक योगसूत्र का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है कि धारणा के पीछे उसी देश में ध्यान करने और आश्रय लेने के योग्य जो अन्तर्यामी व्यापक परमेश्वर है, उसके प्रकाश और आनन्द में अत्यन्त प्रेम और भक्ति के साथ इस प्रकार प्रवेश करना ही है। जैसे समुद्र के बीच में नदी प्रवेश करती है। उस समय में ईश्वर को छोड़ कर किसी अन्य पदार्थ का स्मरण नहीं करना किन्तु उसी अन्तर्यामी के स्वरूप और ज्ञान में मग्न हो जाना उसी का नाम ध्यान है।
ध्यान की परिभाषा -
ध्यान वह अवस्था है, जब धारणा का अभ्यास हो जाए, तब ध्यान की अवस्था प्राप्त होती है, जो कि स्वयं होने वाली प्रक्रिया है। जिसे महर्षि पतंजलि ने इस प्रकार परिभाषित किया है -
"तत्रप्रत्ययैकतानता ध्यानम् ।" पा० यो० सू० 3 / 21
अर्थात जहाँ पर चित्त को केन्द्रित किया जाए उसी में वृत्ति का एक तार चलना (एकाग्र होना) ही ध्यान है।
स्वामी ओमानन्द तीर्थ के अनुसार ध्यान की परिभाषा -
"चित्त जब बाहर के विषयों की इन्द्रियों द्वारा वृत्तिमात्र से ग्रहण करता है तो ध्यानावस्था में जब प्रत्याहार द्वारा इन्द्रियाँ अन्तर्मुखी हो जाती है, तब वह ध्येय विषय को वृत्ति मात्र से ही ग्रहण करता है। वह वृत्ति ध्येय के विषय के तदाकार होकर स्थिर रूप में भासने लगती है। अर्थात स्थिर रूप में उसके स्वरूप को प्रकाशित करने लगती है।- (पा० योग प्रदीप, पृ0 489)
महर्षि व्यास के अनुसार ध्यान की परिभाषा -
उस देश में ध्येय विषयक प्रत्यय की जो एक तानता अर्थात अथ प्रत्यय के द्वारा अपरामृष्ट एक रूप प्रवाह है, वही ध्यान है।
विज्ञान भिक्षु के ध्यान की परिभाषा
उस देश विशेष में अन्य वृत्तियों के व्यवधान से रहित ध्येयाकार वृत्ति के प्रवाह को ध्यान कहते है।
इन्होने हृदय कमल आदि में चतुर्भुज विष्णु आदि का चिन्तन अथवा बुद्धि की वृत्ति में उससे व्यतिरिक्त चैतन्य का चिन्तन तथा कारण रूप उपाधि में ईश्वर का चिन्तन ध्यान का विषय बताया है।
स्वामी शिवानन्द के अनुसार ध्यान की परिभाषा
"ध्यान मोक्ष का द्वार खोलता है। धारा के सतत् प्रवाह के सदृश्य एक ही विचार के प्रवाह को बनाये रखना ही ध्यान है।"
घेरण्ड संहिता के अनुसार ध्यान की परिभाषा
"ध्यानात्प्रत्यक्षं आत्मनः ।" 1/11 -
ध्यान से अपनी आत्मा में जो चाहे प्रत्यक्ष हो जाता है। अर्थात ध्यान के द्वारा आत्मज्ञान का प्राप्ति होती है।
ऋग्वेद के अनुसार ध्यान की परिभाषा
"आ त्वा विशत्त्विन्दवः समुन्द्रमिव सिन्धवः ।
न त्वामिन्द्रातिरिच्यते ।। - (ऋग्वेद 8 / 92/22 )
अर्थात
अनेको नदिया जिस प्रकार समुन्द्र में समा जाते है वैसे ही परमेश्वर में ध्यान करने वाले अपनी इन्द्रियों को समेट कर परमात्मा के आनन्द में निमग्न हो जाते है। अर्थात उपासक को उस परमात्मा में मन आदि द्वारा निमग्न होकर ध्यान करना चाहिए।
श्रीमद्भगवद गीता के अनुसार ध्यान की परिभाषा
"यथादीपो निवातस्थो नेर्गते सोपमा स्मृता ।
योगिना यतचित्तस्य युंजतो योगमात्मनः ।। गीता 6 / 19
जिस प्रकार वायु रहित स्थान में दीपक की लौ चलायमान नही होती, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गयी है।