चित्त का स्वरूप (Nature of mind according yoga)
चित्त का स्वरूप
योग दर्शन के अनुसार चित्त के स्वरूप पर अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से चित्त के स्वरूप का विवेचन निम्न बिन्दुओ के अन्तर्गत किया जा सकता है -
(1). त्रिगुणात्मक
- चित्त की सर्वप्रथम विशेषता उसका त्रिगुणात्मक अर्थात् - सत्य, रजस् एवं तमस् इन तीनो गुणों से युक्त होता है। क्योंकि चित्त की उत्पत्ति भी त्रिगुणात्मक प्रकृति से होती है। अतः इसमें इन तीनों गुणों का विद्यमान रहना स्वाभाविक है। प्रिय पाठकों, आपको यह भी जान लेना अति आवश्यक है कि सत्व, रजस् एवं तमस् इन तीनो गुणों की न्यूनता एवं अधिकता के कारण एक ही व्यक्ति में चित्त विभिन्न अवस्थाओ वाला हो सकता है, तथा इसके साथ ही त्रिगुणों की विषमता के कारण भिन्न-भिन्न व्यक्तियों का चित्त भी भिन्न भिन्न होता है।
- इस प्रकार स्पष्ट है कि त्रिगुणात्मक चित्त एक ही व्यक्ति में भिन्न भिन्न स्थिति वाला होता है, तथा सभी व्यक्तियों का चित्त भी एक दूसरे से भिन्न भिन्न होता है।
(2). जड़
- चित्त की दूसरी प्रमुख विशेषता इसका जड़ या अचेतन होना है। क्योकि यह जड़ प्रकृति से उत्पन्न होता है, किन्तु सतोगुण प्रधान होने के कारण तथा आत्मा के निकटतम होने के कारण यह चेतन के समान प्रतीत होता हैं। इसलिए जड़ चित्त में जब तक पुरूष या आत्मा प्रतिबिम्बित नही होती तब तक चित्त किसी विषय का ज्ञान प्रदान नहीं कर सकता।
(3). चंचल एवं परिवर्तनशील
- चित्त की अन्य प्रमुख विशेषता इसका चंचल एवं परिवर्तनशील या परिणामी होना है, क्योंकि इन्द्रियों के माध्यम से चित्त विषयों से सम्पर्क होने के कारण विषयाकार हो जाता है। विषयो के कारण चित्त में निरन्तर परिवर्तन होते रहता है। विषयो के कारण चित्त में होने वाले परिणाम या परिवर्तनों को ही "चित्तवृत्तियाँ” कहा जाता है। चित्त में आन्तिरिक एवं बाहृय सम्बन्ध से दोनों प्रकार के परिवर्तन होते रहते हैं। जैसे जब व्यक्ति के भीतर राग द्वेष इत्यादि की भावना उत्पन्न होती है तो - चित्त भी राग - द्वेष के भाव से युक्त हो जाता है। इसी प्रकार इन्द्रियॉ जिन बाह्वय विषयों को ग्रहण करती है, तो चित्त भी उन्हीं विषयों के आकार वाला होकर बाह्वय परिणाम को प्राप्त होता रहता है। जब चित्त विषयाकार परिवर्तनशील वृत्तियों से रहित हो जाता है तो वह अपने स्वरूप में स्थिर हो जाता है। इसे ही महर्षि पतंजलि के अनुसार "चित्तवृत्ति निरोध" कहते है।
- प्रिय पाठको उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि चित्त के कारण ही सुख-दुःख का यह संसारिक चक्र चलता रहता है। हमारे जन्म जमान्तर के संस्कार मूलप्रवृत्तियाँ, वासनायें सभी कुछ चित्त में संचित रहती है। जिनसे हमारा व्यक्तित्व निर्मित होता है। व्यक्ति जिस योनि में रहता है उसका चित्त भी उसके सभी संस्कारों सहित उसके साथ रहता है, और मृत्यु के उपरान्त कर्मानुसार जिस योनि को प्राप्त होता है, उसमें उन सभी संस्कारो के साथ चला जाता है।
- प्रिय पाठको, चित्त के संस्कारों की एक विशेषता यह है कि जीव जिस योनि में जन्म लेता है, उस जन्म में उसी योनि के संस्कार उदित होने लगते हैं और वह अपने पहले के जन्म को विसमण करके वर्तमान योनि के अनुसार आचरण करने लगता है क्योकि उन योनियों ( पशु, पक्षी, मनुष्य इत्यादि) के संस्कार उसके चित्त में पहले से विद्यमान है, क्योकि वही जीव कभी पशु, कभी पक्षी, कभी मनुष्य इत्यादि विभिन्न योनियों से होकर गुजरता है।
- उदाहरण के लिए कोई मनुष्य मृत्यु के बाद यदि अपने कर्मों के अनुसार गाय की योनि को प्राप्त करता है तो उस जीव में उसके चित्त में पहले से संचित गाय की योनि वाले जन्मों की प्रवृत्तियों और वासनाओं का उदय होने लगता है, तथा वह अपने पूर्व के मनुष्य जन्म को पूरी तरह भूलाकर गाय की योनि के अनुसार ही आचरण करने लगता है। योनि के अनुसार ये सभी संस्कार बिना किसी प्रयास के स्वतः ही उदय हो जाते हैं। यदि व्यक्ति स्वयं के भीतर अवांछनीय प्रवृत्तियों को उदित न होने देना चाहे तो इसके लिए इनकी संस्कार रूपी जड़ को समाप्त करने के लिए कठिन तपश्चर्या की आवश्यकता होती है तथा इसके साथ ही व्यक्ति को अवांछनीय प्रवृत्तियों का अभ्यास करना पड़ता है, जिससे है। वे अवांछनीय संस्कार सक्रिय न हो पायें। इस प्रकार स्पष्ट है कि अज्ञानता के कारण चित्त में अनेकानेक ग्रन्थियाँ बन जाती है। जिसके कारण जीव कभी सुखी और कभी दुःखी होता है।
कठोपनिषद में इस तथ्य को निम्न प्रकार से वर्णित किया गया है।
"यदा सर्वे प्रभिधन्ते,
हृदयस्येह ग्रन्थयः ।
अथ मृर्त्योऽमृतो
भवत्येतावद्धयनुशासनम्।। कठोपनिषद / अध्याय 2/3/15
अर्थात् "ज्ञान के द्वारा जब चित्त की इन समस्त ग्रन्थियों का छेदन हो जाता है, तब यह मरणशील जीव अमरत्व को प्राप्त हो जाता है।"