दर्शन शास्त्र में वर्णित प्रकृति का स्वरूप
दर्शन शास्त्र में वर्णित प्रकृति का स्वरूप
जिज्ञासु पाठकों, अब आपके मन में यह प्रश्न उपस्थित होना भी स्वभाविक ही है कि जहां वेद एवं उपनिषद शास्त्रों में प्रकृति के स्वरूप की विस्तार पूर्वक व्यख्या की गयी है तो क्या दर्शन साहित्य में भी प्रकृति के स्वरुप पर प्रकाश डाला गया है अतः अब हम दर्शन शास्त्र में वर्णित प्रकृति के स्वरूप पर दृष्टिपात करते हैं। इस विषय का प्रारम्भ हम अपने मूल पाठ्यग्रन्थ योग दर्शन से करते है।
(क) योग दर्शन में वर्णित प्रकृति का स्वरूप
प्रिय पाठकों योगसूत्र में महर्षि पतंजलि पुरुष अर्थात जीवात्मा को दृष्टा एवं प्रकृति को दृश्य की संज्ञा देते हैं। जिस प्रकार चुम्बक में लोहे को अपनी ओर आकर्षित करने का गुण होता है, उसी प्रकार दृश्य रुपी प्रकृति दृष्टा रुपी जीवात्मा को अपनी ओर आकृर्षित करती है। जिससे दृश्टा दृष्य की ओर आकर्षित होकर उसके साथ संयुक्त हो जाता है। यद्यपि दृश्य अर्थात प्रकृति भोग और अपवर्ग दोनों का ही साधन है एक ओर जहा जीवात्मा प्रकृति का भोग करता है तो वहीं दूसरी ओर प्रकृति मोक्ष अर्थात अपवर्ग का साधन भी है। अज्ञानतापूर्वक जब जीवात्मा प्रकृति के साथ मैं ओर मेरा का सम्बन्ध स्थापित करता है तब यह अवस्था भोग की अवस्था कहलाती है किन्तु जब जीवात्मा को ज्ञान होता है कि उसका स्वरुप प्रकृति से भिन्न है तब वह स्वमं के सम्बन्ध को प्रकृति से हटा कर अपना सम्बन्ध परमात्मा के साथ जोड़ लेता है। इस प्रकार ऐसा ज्ञानी पुरुष अपवर्ग अर्थात मोक्ष को प्राप्त करता है।
योगदर्शनकार महर्षि पतंजलि प्रकृति और पुरुष के सम्बन्ध को दुख का कारण बतलाते हुए कहते हैं-
द्रष्टदृश्ययोः संयोगो हेय हेतु ।। (पा० यो० सू० 2/17 )
अर्थात जीवात्मा और सत्व, रज, तम तथा उनसे उत्पन्न बुद्धि आदि समस्त पदार्थों का जो अज्ञानतापूर्वक सम्बन्ध है, वह दुख का कारण है। दर्शनकार महर्षि पतंजलि प्रकृति के स्वरुप को स्पष्ट करते हुए अगले योगसूत्र में कहते हैं-
प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम् ।। (पा० यो० सू० 2 / 18 )
अर्थात प्रकाशशील, क्रियाशील और स्थितिशील, भूत और इन्द्रिय स्वरुप वाला जो पुरुष के भोग और अपवर्ग रुप प्रयोजन को सिद्ध करने वाला है, वह दृश्य अथार्त प्रकृति है। इस योग सूत्र में प्रकृति में स्थित तीन गुणों- सत्व गुण, रजस गुण एवं तामसिक में गुण के आधार पर प्रकृति के स्वरुप की व्याख्या की गयी है। प्रकृति में सत्व गुण की उपस्थिति के कारण प्रकृति प्रकाशित अर्थात प्रकाशयुक्त रहती है, राजसिक गुण के कारण प्रकृति क्रियावान रहती है तथा तामसिक गुण की उपस्थिति के कारण प्रकृति दृढ बनी रहती है। इसके साथ साथ यह प्रकृति भूतों ( पंचमहाभूतों) को धारण करती है, इन्द्रियों के अर्थों शब्द, स्पेश, रूप, रस व गन्ध से युक्त है ऐसी पुरुष अर्थात जीवात्मा के भोग एवं अपर्वग के प्रयोजन को सिद्ध करने वाली समुदाय विशेष प्रकृति कहलाती है।
इस प्रकृति में क्या-क्या तत्व हैं, कितने प्रकार के हैं और किस रूप में हैं इसे स्पष्ट करते हुए महर्षि पतंजलि कहते हैं-
विशेषाविशेषलिङगमात्रालिङानि गुणपर्वाणि ।। (पा० यो० सू० 2 / 18 )
अर्थात
- विशेष अविशेष, लिंगमात्र और अलिंग ये गुणों के चार विभाग हैं।
इस प्रकार योग दर्शन में प्रकृति के त्रिगुणात्मक स्वरुप को स्वीकार करते हुए कहा गया है कि प्रकृति एवं पुरुष का संयोग हेय अर्थात दुख का कारण है किन्तु प्रकृति ही पुरुष के भोग एवं अपवर्ग का साधन है। पुरुष प्रकृति का भोग भी कर सकता है तथा प्रकृति के माध्यम से अपवर्ग अथार्त मोक्ष को भी प्राप्त कर सकता
(ख) सांख्य दर्शन में वर्णित प्रकृति का स्वरुप
सांख्य दर्शनकार आचार्य कपिल प्रकृति को समस्त संसृति की जनयित्री (Creator) सकल कर्मों की उत्पादयित्रि (Producer) सकल संसारिक श्रृंखलाओं की प्रसवित्री कहते हैं। यह प्रकृति अपने जडत्व के कारण अज्ञान या अविद्या रुप को धारण करती हुई माया कहलाती है। इस प्रकृति में समस्त कार्यों को उत्पन्न करने की शक्ति है इसीलिए प्रकृति का एक नाम शक्ति भी है। यह समस्त जड़ जगत की जननी है, सारी दुनिया इसी से प्रसूत है इसीलिए यह प्रसवधर्मिणी है। यह त्रिगुणात्मक है, इसमें सत्व, रज और तम नामक त्रिगुणों का समाहार है। प्रकृति के ये तीन गुण रस्सी के रेशे की तरह मिलकर पुरुष के लिए बन्धन का कार्य करते हैं।
प्रकृति के इन तीन गुणों के प्रतीक, प्रभाव तथा कार्य इस प्रकार हैं-
सतोगुण:
- सतोगुण शुद्धता, शुचिता व स्वच्छता का प्रतीक है। इसका वर्ण श्वेत है। इसका गुण लघुता है जिसके प्रभाव से वस्तुओं में लघुता आती है तथा वे उर्ध्वगमन करती है। मानव में इस गुण के प्रभाव से सरलता, शुचिता, स्नेह, श्रृद्धा, सन्तोष, दया, दान, ज्ञान, विवेक व आनन्द के भावों का विस्तार होता है।
रजोगुण :
- रजोगुण उत्तेजकता एवं चंचलता का प्रतीक है। यह रक्तवर्णीय अर्थात लाल रंग का है। इसका गुण चंचलता है जिसके प्रभाव से वस्तुओं में चंचलता, गतिशीलता व सक्रियता आती है। इस गुण के कारण इन्द्रियां तेजी से विषयों की ओर दौडने लगती है। यह दुख का उत्पादक है। मानव में इस गुण के प्रभाव से मान, मद, मोह, द्वेष, कोध व अहंकार के भावों का विस्तार होता है।
तमोगुण :
- तमोगुण मलीमस, अज्ञान व अन्धकार का प्रतीक है। यह कृष्णवर्णीय अर्थात काले रंग का है। इसका गुण गुरुता, आच्छादन व अवरोध उत्पन्न करना है। तमोगुण का कार्य विभिन्न कार्यों एवं क्रियाओं में बाधा उत्पन्न करना है। इस गुण के प्रभाव से निष्क्रियता उत्पन्न होती है। यह अज्ञानता का सूचक और मोह का जनक है। मानव में इस गुण के प्रभाव से निन्द्रा, तन्द्रा, प्रमाद, आलस्य, मूर्च्छा, अकर्मण्यता व उदासीनता के भावों का विस्तार होता है।
प्रकृति के तीन पदार्थ अमृत, विष और मदिरा क्रमशः सत्व, रज और तम इन तीन गुणों को प्रकट करते हैं। जिनका प्रभाव इस प्रकार प्रकृति के इन तीन गुणों का प्रभाव मनुष्य के भाव - स्वभाव पर पड़ता है। प्रिय पाठकों सांख्य दर्शनकार महर्षि कपिल प्रकृति से सृष्टि उत्पत्ति प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि प्रकृति और पुरुष की सानिध्यि से मह तत्व अर्थात बुद्धि की उत्पत्ति होती है। मह तत्व से चित्त अर्थात मन की उत्पत्ति होती है, मन से अहंकार की उत्पत्ति होती है। अहंकार से पंच तन्मात्राएं अथवा सुक्ष्मभूत (शब्द, स्पेश, रुप, रस और गन्ध) उत्पन्न होते हैं। पंच तन्मात्राओं से पंच ज्ञानेन्द्रियां (कान, त्वचा, आंख, जिह्वा और नासिका), पंच कर्मेन्द्रियो (दो हाथ, दो पैर और उपस्थ) व पंच महाभूत ( पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ) की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार सांख्य दर्शन में कुल पच्चीस तत्वों का वर्णन किया गया है। योग दर्शनकार महर्षि पतंजलि इन पच्चीस तत्वों में एक तत्व जीवात्मा को और जोड़ते हुए कुल छब्बीस तत्वों को स्वीकार करते हैं। इन तत्वों का ज्ञान प्राप्त कर योग साधक मोक्ष अर्थात कैवल्य को प्राप्त करता है।
4 गीता में वर्णित प्रकृति का स्वरुप
गीता में योगीराज श्रीकृष्ण प्रकृति के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं-
उर्ध्वमूलमधः शाखमश्रवत्थं प्रारहुव्ययम् ।
छन्दंसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ।। (गीता 15 / 01)
अर्थात
एक शाश्वत बरगद वृक्ष है जिसकी जडे ऊपर की ओर तथा शाखाएं नीचे की ओर लटक रही हैं। इसकी पत्तियां वैदिक स्त्रोत हैं, जो इस वृक्ष को जानता है वह वेदों का ज्ञाता अर्थात ज्ञानी है। इस श्लोक में प्रकृति के वृहद एवं विलक्षण स्वरुप की व्याख्या करते हुए प्रकृति को एक ऐसे बरगद वृक्ष के समान कहा गया है जिसकी जड़ें ऊपर की ओर अर्थात परमात्मा से सम्बन्ध रखने वाली है तथा जिसकी शाखाएं नीचे की ओर अर्थात जीवों से सम्बन्ध रखने वाली है। सामान्यता संसार के समस्त जीव इस बरगद रुपी वृक्ष की शाखाओं पर घूमते रहते है किन्तु वह जीव अथवा पुरुष जो इस वृक्ष के स्वरूप को जान लेता है या समझ जाता है वही सच्चा ज्ञानी है।