निर्बीज समाधि
निर्बीज समाधि (Nirbīja Samadhi)
सबीज समाधि का अनुभव साधक के लिए अपूर्व होता है। इस समाधि के प्रभाव से पूर्व के सभी संस्कारों से अद्भुत होने के कारण चित्त में बसने वाले अन्य सभी संस्कार इतने दब जाते हैं कि वे सभी निष्क्रिय व निष्परिणामी हो जाते हैं। आगे उनका विपाक होकर कुछ फलादि प्राप्ति की सम्भावना सर्वथा समाप्त हो जाती है। एकमात्र सबीज समाधि का संस्कार तब चित्त पर बचा रहता है, जिससे वृत्ति का रूप लेने की सम्भावना बने। अतः इसके बाद अभ्यास बढ़ने पर किसी प्रकार बचा रहा एकमात्र यह संस्कार भी निरूद्ध होकर नष्प्राय हो जाता है, तब वृत्ति का रूप लेने के लिए कोई संस्कार ही नहीं बचा रहता है। अर्थात वृत्ति उठने के लिए आवश्यक संस्कार बीज रूप से भी नष्ट हो जाने से जो स्थिति चित्त की होती है, वह निर्बीज समाधि कही जाती है। इस प्रकार सभी वृत्तियों का सर्वथा निरोध इस समाधि में हो जाता है।
महर्षि पतंजलि के निर्बीज समाधि का स्वरूप निम्नलिखित सूत्र में बताया है :
"तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः ।।”
उसका भी अर्थात उस ऋतम्भरा - प्रज्ञा-जन्य संस्कार के भी निरोध हो जाने पर सभी संस्कारों का निरोध हो जाने पर निर्बीज समाधि होती है।
जब ऋतम्भरा प्रज्ञा जनित संस्कार के प्रभाव से अन्य सभी प्रकार के संस्कारों का अभाव हो जाता है, उसके बाद उस ऋतम्भरा प्रज्ञा से उत्पन्न संस्कारों में भी आसक्ति न रहने के कारण उनका भी निरोध हो जाता है। इन प्रज्ञाजनित संस्कारों का निरोध होते ही समस्त संस्कारों का निरोध अपने आप हो जाता है। अतः संस्कार के बीज का सर्वथा अभाव हो जाने से इस अवस्था का नाम निर्बीज समाधि है। इसी को कैवल्य अवस्था भी कहते है। इसमें भी क्रम है पहले निर्बीज समाधि तब उसके बाद कैवल्य प्राप्ति । निर्बीज समाधि को प्राप्त किए बिना कैवल्य प्राप्त असम्भव है। यह अंतिम स्थिति है। यही पुरूष का अपने स्वरूप में स्थित हो जाना है।
यथा :- "तदाद्रष्टुःस्वरूपेऽवस्थानम् ।।”
- है केवल बुरे संस्कारों का निरोध हो जाने पर साधक स्वर्ग का तो अधिकारी हो जाता मोक्ष को प्राप्त नहीं होता क्योंकि अभी भोगों का बीज विद्यमान है, वासना शेष है, परन्तु उसका मूल नष्ट नहीं हुआ है, केवल अवस्था बदली है। जैसे बुरे से अच्छा संस्कार । जब इन अच्छे संस्कारों का भी निरोध हो जाता है तब मोक्ष होता है। यही योगसूत्र का सार है। जो जीव की अन्तिम अवस्था है। जहाँ से आया था, वहीं पुनः पहुंच गया । प्रकृति से सदा के लिए सम्बन्ध छूट जाता है। केवल चैतन्य शेष रह जाता है । ऋतम्भरा प्रज्ञा में साधक सत्य को तो उपलब्ध हो जाता है, किन्तु मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। जिस प्रकार चोरों से घर की रक्षा करने के लिए पहरेदार रखे जाते हैं किन्तु जब चोरों का भय भी समाप्त हो जाता है तब उन पहरेदारों का भी हटना आवश्यक हो जाता है। अन्यथा वे भी उपद्रव के कारण बन जाते हैं। अतः समस्त बुरे संस्कारों को 'ऋतम्भरा प्रज्ञा' द्वारा दूर किया जा सकता है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए ऋतम्भरा प्रज्ञा का भी त्याग करना पड़ता है। अतः अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के संस्कारों का दूर करना ही मोक्ष है।
- अतः समाधिपाद की समाप्ति महर्षि पतंजलि इसी अन्तिम अवस्था के साथ करते हैं, जो जीव की अन्तिम स्थिति है।