नियम क्या है ? नियम की उपयोगिता महर्षि पतंजलि के योगसूत्र के अनुसार
नियम क्या है ? नियम की उपयोगिता -
प्रिय विद्यार्थियों नियम स्वयं के व्यवहार में शुद्धिकरण की प्रक्रिया है। अर्थात मनुष्य द्वारा स्वयं के व्यवहार को परिष्कृत करने के लिए अपनायी जाने वाली प्रक्रिया है, अर्थात मनुष्य द्वारा स्वयं के व्यवहार को परिष्कृत करने के लिए अपनायी जाने वाली प्रक्रिया नियम कहलाती है। नियम आत्मअनुशासन है।
- नियम अष्टांग योग में दूसरे स्थान पर हैं तथा नियमों का उद्देश्य कुछ नियमित अनुष्ठानों द्वारा चित्त को अनुशासित कर मन के बिखराव को रोकना है।
- नियमों का संबंध व्यक्तिगत जीवन से होता है। इसका उद्देश्य पवित्रता, सात्विकता एवं शान्ति को प्राप्त कर चित्त को एकाग्र करना है, पांचों नियम साधक की आन्तरिक शुद्धि करते हैं।
नियमों की शास्त्रीय उपयोगिता -
- प्रिय विद्यार्थियों नियमों के फल के रूप में महर्षि पतंजलि ने इनकी उपयोगिता का वर्णन योगसूत्र में किया है। नियमों में पहला अंग है शौच । शौच का सामान्य अर्थ शुद्धि। यह शौच (शुद्धि) भी दो प्रकार की है। वाह्य और आभ्यान्तरिक शौच | वाह्य शुद्धि से तात्पर्य शारीरिक शुद्धि से है तथा आन्तरिक शुद्धि का तात्पर्य मानसिक शुद्धि से है। वाह्य शुद्धि से तात्पर्य स्नान आदि के द्वारा शारीरिक मलों का निष्कासन करना तथा उसे स्वच्छ रखना है तथा आन्तरिक शुद्धि से तात्पर्य मानसिक दोषों और विकारों का उपशमन करना अर्थात जितने भी काम क्रोध, लोभ, मोह, बैर, द्वेष आदि मनोविकार भावों का निष्कासन करना आन्तरिक शुद्धि है।
महर्षि पतंजलि ने ध्यान व समाधि के अभ्यास के लिए ये नियम निश्चित अनुशासन बताए है। शौच का पालन करने से निम्न लाभ की प्राप्ति होती है।
जिसका वर्णन पतंजलिकृत योगसूत्र में निम्न है -
शौचात्स्वांगजुगुप्सा परैरसंसर्गः ।। ( पा० यो० सू० 2 / 40 )
अर्थात
- शौच का पालन करने से देह के प्रति उदासीनता तथा दूसरों के प्रति असंलग्नता का भाव जागता है।
अर्थात
- शौच का पालन करने से साधक उस अवस्था तक पहुँच जाता है, जहाँ उसे अपने शरीर के प्रति भी द्वेष भाव उत्पन्न होने लगता है तथा शरीर व संसार के प्रति भी वैराग्य भाव उत्पन्न होने लगता है।
- यह परिणाम महर्षि पतंजलि ने वाह्य शौच का बताया है।
महर्षि व्यास के अनुसार
- अपने शरीर में जुगुत्सा या घृणा होने से शौचाचरणशील योगी - कायदोषदर्शी और शरीर में प्रीति शून्य होते हैं।
स्वामी विवेकानन्द
- जब यर्थाथ वाहय और और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के शौच सिद्ध हो जाते है तब शरीर के प्रति उदासीनता आ जाती है।
- अर्थात जब योगी वाह्य शौच का पालन करते है तो योगी को अपने निज के शरीर में अशुद्धि बुद्धि होने से वैराग्य भाव आ जाता है।
- अर्थात वे देहभाव से ऊँचे उठ कर आत्मभाव में जीने लगते हैं।
आभ्यन्तर शौच का फल बताते हुए महर्षि पतंजलि कहते है
"सत्वषुद्धिसौमनस्यैकाग्रयेन्द्रियजयात्मदर्षनयोग्यत्वानि च ।। (पा० यो० सू० 2 / 41 )
अर्थात
- चित्त की शुद्धि सत्व बुद्धि, मन की स्वच्छता, एकाग्रता इन्द्रियों का वश में होना और आत्मदर्शन की योग्यता आ जाती है। महर्षि व्यास के अनुसार ये सब शौच स्थैर्य से प्राप्त होते हैं।
स्वामी हरिहरानन्द के अनुसार
शरीर भाव के द्वारा अकलुशित यह अवस्था ही आभ्यन्तर शौच है।
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार शौच
- इस शौच के अभ्यास द्वारा सत्व पदार्थ का प्राबल्य होता है तथा मन एकाग्र और प्रफुल्लित हो जाता है।
- प्रिय विद्यार्थियों आभ्यन्तर शौच से अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, मन में प्रसन्नता, चित्त में एकाग्रता तथा इन्द्रियाँ वंश में हो जाती है। इन्द्रियों के वंश में होने से उन्हें ईश्वरोन्मुख किया जा सकता है, इसके पालन से आत्मदर्शन की योग्यता आ जाती है।
- इस प्रकार शौच द्वारा बुद्धि की स्थूलता, मन की मलिनता चित्त की चचलता और शरीर की अस्वस्थता दूर हो जाती है। मनुष्य को तमोगुण से मुक्ति मिलती है। मन के विकारों का उपशमन होता है तथा सत्वगुणों का उत्कर्ष हो जाता है।
- नियम का दूसरा अंग संतोष साधक के जीवन में सन्तोष का सर्वाधिक महत्व है। साधारण अर्थो में यदि कहें तो अन्तःकरण में संतुष्टि का भाव जाग्रत होना ही सन्तोष है। जैसा कि 'दर्षनोपनिषद' में कहा गया है कि पदार्थ मात्र में अनासक्त रहते हुए प्राप्त पदार्थ को स्वीकार करना और उससे अधिक की अभिलाषा ना रखना ही सन्तोष है। जब साधक अपनी इच्छाओं को नियंत्रित कर लेता है तब उसके जीवन में भौतिक ऐश्वर्य को प्राप्त करने की भावना नहीं रहती है। तब वह परम सुख का अनुभव करने लगता है।
"जब आवै संतोष धन, सब धन धूलि समान"
वास्तव में सन्तोषी साधक ही योग साधना में प्रवृत्त हो सकता है। महर्षि पतंजलि ने संतोष की साधना सिद्ध होने पर होने वाले लाभों का वर्णन इस प्रकार से किया है -
"सतोषादनुत्तम् सुखलाभः" ।। (पाoयो०सू० 2/42)
अर्थात सन्तोष से उत्तमोत्म सुख की प्राप्ति होती है। अर्थात सन्तोष से उत्तम सुख प्राप्त होता है, क्योंकि जहाँ चाह, लालसा, ईच्छा नहीं होती, वही व्यक्ति सुख से रहता है।
- प्रिय विद्यार्थियों जहाँ सन्तोष होता है वहाँ राग - द्वेष, छल कपट आदि का अभाव होता है तथा सन्तोषी व्यक्ति हमेशा हर एक परिस्थिति में सुखी व सन्तोष का अनुभव करता है, किसी भी विपरीत परिस्थिति में वह धैर्य से काम लेता है, व सभी परिस्थितियों का समाना मुस्कुरा कर कर लेता है। सन्तोष के कारण की ही परिग्रह को बल नहीं मिलता है, और ना ही सन्तोषी व्यक्ति में कोई मनोविकार ही होता है। सन्तोषी व्यक्ति शारीरिक व मानसिक विकार रहित होता है तथा इसी स्थिति में वह परम् आत्मिक शान्ति का अनुभव करता है।
नियम के तीसरे अंग के रूप में तप को लिया गया है। तप का तात्पर्य है उचित रीति से और उचित अभ्यास से शरीर, इन्द्रियाँ, प्राण और मन को वश में करना जिससे कि योग साधना में सभी द्वन्दों को सहन करते हुए रहा जा सके।
जैसा कि कहा गया है, '
तपो द्वन्द सहनम्"
तप सभी प्रकार के (शरीरिक व मानसिक) द्वन्दों को सहन करना है।
- वैदिक संहिताओं में तप को तीन भागों में भी विभक्त किया गया है। शरीरिक, मानसिक व वाचिक तप इन तीनों प्रकार के तप में कुविचार को सुविचारों से हटाकर साधना में प्रवृत्त होना मानसिक तप है।
- अशुद्ध भाषा का प्रयोग ना करना, सत्य व मितभाषी व मधुर वाणी का प्रयोग करना वाचिक तप है।
- साधना के मार्ग में सभी प्रकार के द्वन्दों (भूख प्यास) मानसिक व वाचिक तीनों प्रकार के तप का साधक के जीवन में अत्यन्त महत्व है।
महर्षि पतंजलि ने तप के फल का वर्णन इस प्रकार से किया है -
"कायेन्द्रियसिद्धिरषुद्धिक्षयात्तपसः ।।" (पाoयो0सू० 2 / 43 )
अर्थात
- तप द्वारा शरीर और मन की अशुद्धियों का क्षय हो जाता है, तथा शरीर और इन्द्रियों की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है। इन्द्रिया वश वर्तिनी हो जाती है। अपने वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और योग्यता के अनुसार स्वधर्म का पालन करना तथा उसके पालन करने में जो भी शारीरिक व मानसिक कष्ट हो उन्हें सहर्ष सहन करना तप कहलाता है।
- जिस प्रकार सोने को अग्नि पर तपाये जाने पर शुद्ध स्वर्ण प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार तपश्चरण भी मनुष्य के शरीर और मन को निर्मल कर देता है।
- योगी के लिए तप की साधना नितान्त आवश्यक है क्योंकि तप के द्वारा ही चित्त के विकार दूर होते है, तथा मन की चंचलता समाप्त होती है। चित्त में कुविचारों से मुक्ति मिलती है, और इन्द्रियों की अशुद्धि दूर होकर इन्द्रियाँ निर्मल हो जाती है।
- प्रिय विद्यार्थियों तप का योग साधना में विशेष महत्व है। क्योंकि तप से अशुद्धियों का नाश हो जाता है। अशुद्धि का नाश होने से शरीर और इन्द्रियों की सिद्धि हो जाती है। उन इन्द्रियों की स्वेच्छाचारी प्रवृत्ति का नाश हो जाता है तथा सभी इन्द्रियाँ योगी के अधीन हो जाती है। वह उन्हें साधना में लगाकर और अधिक उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त कर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।
- प्रिय विद्यार्थियों नियमों में चौथा अंग स्वाध्याय है। स्वाध्याय आत्मज्ञान प्राप्ति का महत्वपूर्ण साधन है।
- स्वाध्याय का तात्पर्य वेद, पुराण, उपनिषद दर्शन आदि मोक्ष शास्त्रों का गुरूजनों, विद्वान तथा आचार्य से अध्ययन करना है।
- स्वाध्याय का दूसरा अर्थ स्वयं का अध्ययन करना है। स्वाध्याय के द्वारा मनुष्य को ज्ञान लाभ होता है, तथा मानसिक विकार दूर हो जाते हैं तथा आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है। स्वाध्याय अज्ञान व अन्धकार का विनाश करने वाला तथा ज्ञान ज्योति का प्रसार करने वाला है, तथा निरन्तर स्वाध्याय से चित्त की वृत्तियों को स्थिर किया जा सकता है। जैसा कि कहा गया है, निरन्तर स्वाध्याय का अभ्यास करने से जड़मति व्यक्ति भी ज्ञानवान बन जाता है। उसे गलत और सही की समझ आ जाती है, उसकी अच्छे कार्यो में प्रवृत्ति होने लगती है, तथा बुरे कर्मों से निवृत्ति हो जाती है। स्वाध्याय के द्वारा जब योगी का विवेक जाग्रत होता है तो वह परम आत्म संतुष्टि का अनुभव करता है।
स्वाध्याय के फल के विषय में महर्षि पतंजलि का कथन है-
"स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः ।" (पा० यो० दर्षन 2 / 44 )
अर्थात
- स्वाध्याय से अपने ईष्ट देवता का साक्षात्कार होता है। अर्थात स्वाध्याय से या मंत्र जप और जीवन के अध्ययन रूप स्वाध्याय करने से उसे अपने ईष्ट देवता का साक्षात्कार हो जाता है। ये देवता ही साधक की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
- प्रिय विद्यार्थियों निरन्तर स्वाध्याय करने से उत्साह तथा पुरुषार्थ में वृद्धि होती है, धारणा, ध्यान एवं समाधि की सिद्धि में स्वाध्याय सहायक है तथा साधक की अन्तप्रज्ञा जाग्रत होती है, तथा उसे ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है।
नियमों का अन्तिम अंग सबसे महत्वपूर्ण है-
- वह है ईश्वर प्रणिधान, योगदर्शन के अनुसार ईश्वर की शरणागति ही ईश्वरप्रणिधान है। प्रिय विद्यार्थियों महर्षि पतंजलि ने निम्नकोटी के साधकों के लिए अष्टांग योग का वर्णन किया है। अष्टांग योग का पहला अंग है यम तथा दूसरा है नियम, और नियम का अन्तिम अंग है ईश्वर प्रणिधान। इससे स्पष्ट होता है कि निम्न कोटी का साधक जब यम - नियम का पूर्ण रूप से पालन करता है तभी वह ईश्वर के प्रति पूर्णतः समर्पित हो पाता है, तथा ईश्वर की कृपा का अधिकारी बनता है। ईश्वर प्रणिधान ईश्वर के शरणागति हो जाना है। ईश्वर के नाम, गुण, रूप, लीला और प्रभाव अदि का श्रवण, कीर्तन और मनन करना तथा अपने सभी कर्मों को ईश्वर को समर्पित कर देना और ईश्वर की आज्ञानुसार ही आचरण करना, ईश्वर में अनन्य प्रेम, श्रद्धा भक्ति रखना ये सब ईश्वर प्रणिधान ही है महर्षि पतंजलि के अनुसार ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि होती है।
“समाधिसिद्धिरीष्वरप्रणिधानात् ।।" (पाoयो०सू० 2 / 45 )
अर्थात
जब उपासक अपने समस्त भाव व कर्मों को ईश्वर को अर्पण कर देता है। तो उसे समाधि की सिद्धि सुगमता से हो जाती है।
- प्रिय विद्यार्थियों ईश्वर को पूर्ण रूप से समर्पित साधक के समस्त अभिमान, लोभ, मोह, काम, क्रोध आदि दोषों का नाश हो जाता है तथा योगी को कर्मों की सफलता - असफलता से प्राप्त हर्ष और शोक नहीं सताते है । वह उनसे बच जाता है। इससे योगी की चित्त वृत्ति निरोध की अवस्था प्राप्त होती है। तथा चित्त वृत्ति निरोध की अवस्था ही योग है। क्योंकि जब योगी अपने सभी कर्मों को ईश्वर को अर्पण कर देता है, तब वह सभी बाधाओं से रहित हो जाता है। योगी का चित्त पूर्णतः एकाग्र हो जाता है। योगी की यह एकाग्र अवस्था ही समाधि की सिद्धि में सहायक होती है। इस प्रकार नियमों के सभी अंग योग साधक के लिए उपयोगी है, तथा साधक अपने लक्ष्य तक अवश्य पहुँच सकता है।