पातंजल योगदर्शन के अनुसार यमों की उपयोगिता
पातंजल योगदर्शन के अनुसार यमों की उपयोगिता
पातंजल योगदर्शन में पाँच यम बताए गये हैं। जिनका वर्णन इस प्रकार से किया गया है-
अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः । ( योग दर्शन 2 / 30 )
अर्थात
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच यम होते है। ये पाँचों यम सभी के लिए उपयोगी है। यमों का पालन करने से व्यवहार शुद्ध होता है।
यम अवांछनीय कार्यों से मुक्ति दिलाते है -
इन पाँचों यमों का पालन करने से मनुष्य जीवन उच्च स्तर का बन जाता है। यह मानव स्वभाव के सर्वथा अनुकूल है। इसलिए महर्षि पतंजलि ने इन्हें महाव्रत की संज्ञा दी है - इसका वर्णन इस प्रकार से है
" जाति देश कालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्" (योग दर्शन 2 / 31 )
अर्थात
जाति, देश, काल और निमित्त की सीमा से रहित सार्वभौम होने पर ये यम, महाव्रत हो जाते हैं।
अर्थात इन सभी यमों का अनुष्ठान जब सार्वभौम अर्थात सबके साथ सब जगह और सभी समय समान भाव से किया जाता है। तब ये महाव्रत हो जाते है। जैसे यदि कोई व्यक्ति ने नियम लिया कि मैं मछली के सिवा किसी अन्य जीव की हिंसा नहीं करूँगा, तो इस प्रकार का नियम जाति - अविच्छन्न अहिंसा है।
इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति ऐसा नियम लेता है कि मैं तीर्थ क्षेत्र में हिंसा नहीं करूँगा, तो यह देश अवच्छिन्न अहिंसा है।
इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति एकादशी, चतुर्दशी या कोई अन्य तिथि में हिंसा का परित्याग का नियम लेता है तो यह काल अवच्छिन्न अहिंसा है।
इसी प्रकार समय विच्छिन्न अहिंसा है।
इस प्रकार सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन जाति देश, काल व समय के प्रतिबंधित होने के कारण ये व्रत यम कहलाते हैं। इन व्रतों में जब जाति देश काल का प्रतिबंध नहीं होता है, जब समस्त प्राणियों तथा सभी देशों में सदा इनका पालन किया जाता हो तो ये महाव्रत कहलाते हैं। इन महाव्रतों का हमारे शरीर पर विशेष प्रभाव पड़ता है। यही बात महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन में इनके फल के रूप में हमें समझाई है कि इनकी क्या उपयोगिता है।
इनकी शास्त्रों के अनुसार उपयोगिता निम्न है
शास्त्रों के अनुसार यमों की उपयोगिता
अहिंसा को सभी धर्मो ने एकमत से इसके महत्व को स्वीकार किया है। अहिंसा के द्वारा प्रत्येक प्राणी को अभयता प्राप्त होती है। भारतीय प्राचीन शास्त्रों में विशेषतः उपनिषदों में भी अहिंसा की चर्चा की गयी है।
अहिंसा की उपयोगिता बताते हुये महर्षि पतंजलि ने कहा है
"अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः
अर्थात
अहिंसा की स्थिति दृढ़ हो जाने पर उस योगी के निकट सभी हिंसक प्राणी वैर त्याग कर देते हैं।
अहिंसा का पालन करने वाले व्यक्ति के हृदय में सत्य गुणों का उदय होता है, जिस कारण उसके स्वभाव में मृदुता, सरलता, नम्रता अदि गुणों का समावेश हो जाता है। अहिंसा का पालन करने से मानसिक विकार दूर हो जाते है। उसका चित्त सदैव प्रसन्न रहता है। अतः क्रोध आदि भावों से दूर हो साधक का चित्त अत्यन्त निर्मल हो जाता है, तथा परस्पर प्रेम और सौहार्द बढ़ता है।
सत्य का पालन करने से साधक की वाणी पर सदा नियंत्रण रहता है। साधक की वाणी में अमोघ शक्ति आ जाती है। जैसा कि महर्षि पतंजलि ने कहा है
सत्यंप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् ।। (पा० यो० सू० 2 / 36 )
- अर्थात सत्य की प्रतिष्ठा (दृढ़ स्थिति) हो जाने पर योगी में क्रियाफल के आश्रय का भाव आ जाता है। जब योगी असत्य का सर्वथा त्याग कर देता है, तब उस साधक की वाणी में अमोघ शक्ति आ जाती है। उसकी वाणी व्यर्थ न होने वाली हो जाती है। वह जो कुछ कहता है वह सफल हो जाता है। उसका प्रत्येक वचन बोलने रूप क्रिया का आश्रय बन जाता है। वह योगी यदि किसी अधार्मिक व्यक्ति को धर्माचरण का मार्ग दिखाता है, तो अधार्मिक व्यक्ति पर उसकी वाणी का ऐसा प्रभाव होता है कि वह धर्माचरण करने लगता है। ऐसे इतिहास में अनेकों उदाहरण देखने को मिलते है जैसे - महात्मा बुद्ध की वाणी के प्रभाव से - अंगुलीमाल नामक डाकू का जीवन परिवर्तित हो गया। इस तरह वाणी के प्रभाव से जीवन परिवर्तन के अनेकों उदाहरण देखने को मिलते हैं।
- योगाभ्यासी को सदैव सत्य का आचरण करना चाहिए क्योंकि विद्वानों ने सत्य को वाणी का आभूषण कहा है। वाणी में जब सत्य की प्रतिष्ठा रहती है व्यक्ति को किसी प्रकार का भय नहीं रहता है। सत्य की ऐसी शक्ति होती है कि मिथ्याभाषी उसके आगे टिक नहीं सकता है। झूठ बोलने वाला सदा अपमानित ही होता है तथा समाज में उसकी कोई प्रतिष्ठा नहीं रहती है। सत्याचरण से साधक के वाणी की शुद्धि, मन की शुद्धि होती है। वह मानसिक दृष्टि से सबल होता है। सत्यभाषी को आन्तरिक बल प्राप्त होता है। लोभ, मोह, क्रोध, भय आदि आन्तरिक शत्रुओं पर वह विजय प्राप्त कर लेता है। अतः सत्याचरण परहितकारी समस्त प्राणियों के लिए कल्याणकारी तथा आत्म श्रेयस्करी होता है।
- अस्तेय का सामान्य अर्थ है। चोरी ना करना, इसके विपरीत स्तेय का अर्थ है चोरी करना। यह एक ऐसी क्रिया है कि जिसका संबंध मन से तथा शरीर से है, क्योंकि मनुष्य का मन जब स्वार्थ से भरा होता है, तथा लोभ का भाव होता है, तभी मन अन्य दूसरों की वस्तु को प्राप्त करने को प्रेरित करता है। इस मन की प्रेरणा से ही व्यक्ति परद्रव्य हरण आदि कर्मों में प्रवृत्त होता है। यह निदनीय चोर कर्म स्तेय है, और इनका मन, वचन, कर्म से बचना ही अस्तेय कहलाता है।
जब साधक अस्तेय में दृढ़ प्रतिष्ठित हो जाता है। इन सभी निन्दनीय कर्मो से रहित हो जाता है, तब उसे दूरश्रवण और दूरदर्शन जैसी सिद्धियाँ प्रकट होने लगती है। उस साधक को सभी रत्नों की प्राप्ति हो जाती है। अस्तेय की प्रतिष्ठा का फल महर्षि पतंजलि ने इस प्रकार बताया है -
"अस्तेय प्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्" (पाoयो०सू० 2 / 37 )
अर्थात अस्तेय की प्रतिष्ठा हो जाने पर उस योगी को सभी रत्नों की प्राप्ति हो जाती है।
अर्थात साधक को संसार की सभी उत्तमोत्तम वस्तुएं उपलब्ध हो जाती है। क्योंकि सत्य और ईमानदारी का जीवन जीने वाले मनुष्यों को ईश्वरीय सहायता मिलती रहती है। वह कभी भी अभाव व संकट में नहीं रहता है। उसे सभी - रत्न ( दैवीय गुण) प्राप्त हो जाते है। जिसे अलौकिक सम्पदा कह सकते है।
महर्षि व्यास के अनुसार -
अस्तेय की प्रतिष्ठा होने से सर्वरत्न उपस्थित हो जाते है।
स्वामी हरिहरानन्द
अस्तेय की प्रतिष्ठा द्वारा साधक का ऐसा निःस्पृहभाव मुखादि से विकण होता है कि उसको देखने से ही प्राणी उसे अतिमात्र विश्वास योग्य मानते हैं ।
आचार्य श्रीराम शर्मा
पृथ्वी पर कहीं भी गुप्त स्थल में स्थित सभी तरह के वांछित रत्न वस्तु पदार्थ आदि उसके लिए प्रकट हो जाते है।
यमों में चौथा अंग ब्रह्मचर्य है
- यमों में चौथा अंग ब्रह्मचर्य है, ब्रह्मचर्य शब्द ब्रह्म + चर्या से बना है। इसका सामान्य अर्थ है, ब्रह्म में रमण करना, अर्थात मन को ब्रह्म में या ईश्वर में लगाये रखना ही ब्रह्मचर्य है। आत्मसत्ता उस परमसत्ता का ही एक अंश है। अतः उस आत्मसत्ता में रमण करना ब्रह्मचर्य कहा गया है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य का पालन करना एक प्रकार का तप है क्योंकि इस ब्रह्मचर्य नामक तप से अशुद्धियों का क्षय होता है। इन्द्रियां संयमित होती है तथा साधक की आत्मिक, भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति होती है।
ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा दृढ़ होने पर महर्षि पतंजलि ने इसका लाभ बताते हुए कहा है -
"ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभ:" (पाoयो०सू० 2 / 38 )
ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा होने पर साधक को सामर्थ्य लाभ प्राप्त होता है। स्वामी
हरिहरानन्द के अनुसार -
ब्रह्मचर्य द्वारा सारहानि शुद्ध हो जाने के कारण वीर्यलाभ होता है। जबकि अब्रह्मचर्य से शरीर तथा स्नायु आदि सबके सारहानि होती है।
आचार्य श्री राम शर्मा जी के अनुसार -
- ब्रह्मचर्य के बल द्वारा ही साधक अपने अनुकूल मार्ग को बिना किसी अवरोध के प्राप्त कर लेता है। मन, वचन तथा कर्म से ब्रह्मचर्य का पालन करने से, आध्यात्मिक उन्नति होती है, तथा साधक को सभी उपलब्धियां प्राप्त हो जाती है। उसकी शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक कार्यक्षमता में वृद्धि होने लगती है। आत्मबल में वृद्धि होने लगती है, तथा वह असामान्य कार्य करने में समर्थ हो जाता है, तथा उसे दीर्घायु लाभ मिलता है। इसलिए योग की सिद्धि में ब्रह्मचर्य का पालन अति आवश्यक है।
यमों में पाँचवां अंग है अपरिग्रह
- पाँचवां अंग है अपरिग्रह परिग्रह का अर्थ है संचय करना, जमा करना तथा - अपरिग्रह का अर्थ है, संचय वृत्ति का त्याग मन, वचन, कर्म से आवश्यकता से अधिक धन, वस्त्र अनावश्यक विचार आदि। संचय वृत्ति का त्याग ही अपरिग्रह हैं किसी भी वस्तु से लेकर विचार तक के परिग्रह को समाप्त अथवा उपेक्षित करना ही अपरिग्रह है।
- आत्म कल्याण की दृष्टि से अपरिग्रह का पालन अवश्य करना चाहिए। अपरिग्रह से तात्पर्य अनीतिपूर्वक कमाये गये धन से मानना चाहिए । अर्थात मनुष्य का जीवन सादा हो, जिसमें वह दैनिक आवश्यकताओं, भोजन, वस्त्र एवं निवास संबंधी आवश्यकता को पूर्ण कर सके, अनावश्यक धन व वस्तु का संग्रह नहीं करना चाहिए। क्योंकि परिग्रह जितना कम होगा, उतनी ही उनकी देखभाल व चिंता उसे कम होगी, वह चिन्ता से मुक्त होगा, तथा उसे किसी भी प्रकार का अहंकार तथा भय नहीं होगा। अतः वह किसी भी प्रकार से लोभ से ग्रसित नहीं होगा। नीति और न्याय के मार्ग पर चलते हुए लोभ रहित परिग्रह उसके जीवन निर्वाह एवं लक्ष्य प्राप्ति में सहायक होगा, क्योंकि आवश्यकता से अधिक परिग्रह हमेशा दुःखदायी होता है। क्योंकि परिग्रह के कारण ही मनुष्य अनेक अनैतिक कार्यो हिंसा आदि में प्रवृत्त होता है। धन संचय से लोभ बढ़ता है और लोभ से दुःखों में वृद्धि होती है। इस प्रकार परिग्रह अनेकों दुःखों का मूल है तथा इसके विपरीत अपरिग्रह का पालन करने वाला अपने चारों पुरुषार्थो को पूर्ण करता है।
महर्षि पतंजलि ने अपरिग्रह के फल का वर्णन करते हुए लिखा है-
‘अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथान्तासंबोधः' (पाoयो0सू० 2 / 39)
अर्थात अपरिग्रह की स्थिति दृढ़ हो जाने पर पूर्व जन्म में कैसे हुए थे इसका ज्ञान हो जाता है।
स्वामी हरिहरानन्द के अनुसार
"शरीर के भोग्य विषय में परिग्रह द्वारा तुच्छता का ज्ञान - होने से शरीर भी परिग्रह स्वरूप है, ऐसा जान पड़ता है।"
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार
- इस परिग्रह को त्याग देने पर मन शुद्ध हो जाता है, और इससे जो फल प्राप्त होते है, उनमें पूर्व जन्म की स्मृति का उदित होना प्रथम है।
इस प्रकार अपरिग्रह का फल यह है कि जब मनुष्य विषयों की आसक्ति से बचकर सर्वथा जितेन्द्रिय रहता है। तब मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? और मुझको क्या करना चाहिए ? तथा कौन से कर्म करने से उसका कल्याण होगा : आदि शुभ गुणों का विचार उस साधक के मन में आने लगते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि अपरिग्रह से भूत, भविष्य व वर्तमान का ज्ञान योगी को हो जाता है।