प्रत्याहार के प्रकार,प्रत्याहार सिद्धि में सहायक साधन ,प्रत्याहार में बाधक तत्व|प्रत्याहार की उपयोगिता
प्रत्याहार के प्रकार
प्रिय विद्यार्थियों महर्षि पतंजलि कृत योगदर्शन में प्रत्याहार का वर्णन किया गया है, परन्तु प्रत्याहार के प्रकार नहीं बताये गये हैं।
जबालदर्शनोपनिषद में प्रत्याहार के प्रकारों का वर्णन किया गया है जिसका वर्णन निम्न प्रकार से है-
प्रथम प्रकार -
"इन्द्रियाणां विचरतां विषयेषु स्वभावतः
बलादाहरणं तेषां प्रत्याहारः सउच्यते ।।
अर्थात
उन इन्द्रियों को जो स्वभाव से विषयों में विचरण करने वाली है, उन्हें बलपूर्वक वहाँ से लौटा लाने को प्रत्याहार कहा है। पहले प्रकार का प्रत्याहार अर्थात् इन्द्रियों को बलात् सजातीय (सकारात्मक ) वृत्तियों की ओर लौटा लाना एक प्रकार का प्रत्याहार है।
दूसरा प्रकार -
दूसरे प्रकार के प्रत्याहार का वर्णन इस प्रकार से है -
"यत्यष्यति तु तर्त्सव ब्रह्म पष्यन् समाहितः
प्रत्याहारो भवेदेषः ब्रह्मविदिभः पुरोहितः।।”
अर्थात
हमें जो भी दिखाई दे रहा है, वह ब्रह्ममय है, ऐसी भावना करते हुए परंब्रह्म (परमात्मा) में मन को एकाग्र कर लेना दी ब्रह्मवादियों के अनुसार प्रत्याहार कहा गया है।
तीसरा प्रकार
" यच्छुद्धमषुद्धं वा करोत्यामरणान्तिकम् ।
तत्सर्व ब्रह्मणे कुर्यात्प्रत्याहारः स उच्यते
अर्थात
- मनुष्य मृत्युपर्यन्त जो भी शुद्ध या अशुद्ध कर्मों को करता है, वह उन सभी कर्मा को ईश्वर को समर्पित कर दे, यह भी प्रत्याहार ही कहा जाता है।
- इस प्रकार प्रिय विद्यार्थियों जबालदर्शनोपनिषद में भगवान दत्तात्रेय जी द्वारा तीन प्रकार का प्रत्याहार का वर्णन किया गया हैं। जिसमें प्रथम प्रकार के प्रत्याहार में स्वभाववश विषयों में रमण करने वाली इन्द्रियों को बलपूर्वक उनके विषयों से अभिमुख कर लौटा लाना ही प्रत्याहार है।
- इसी प्रकार दूसरे प्रकार का प्रत्याहार वेदान्तवादियों का प्रत्याहार कहा जा सकता है कि समस्त जगत को ब्रह्ममय देखो, तथा सभी जगह इसी परम् ब्रह्म परमेश्वर की सत्ता है। "एकोब्रह्मद्वितीयोनास्ति" इसी प्रकार इसी परम् ब्रह्म परमात्मा में दृष्टि एकाग्र कर लेना ब्रह्मवादियों का प्रत्याहार है।
- तीसरे प्रकार का प्रत्याहार मनुष्य जो भी कर्म करें, उसे उसमें अपने कर्तव्य कर्मों का भान हो अपने कर्मों को करते हुए सभी कर्मों को परमेश्वर को समर्पित करे दे, यह तीसरे प्रकार का प्रत्याहार है।
श्रीमद्भगवतगीता में भी यही बात योगेश्वर श्री कृष्ण ने इस प्रकार कही है -
यत्करोषि यदष्नासि यज्जुहोषि ददाति यत् ।
यत्त्पष्यसि कौन्तेय ! त्तकुरूष्य मदर्पणम् ।।
अर्थात हे अर्जुन ! तू जो भी कर्म करता है, जो कुछ खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है, और स्वधर्म के पालन हेतु जो तप करता है, वह सब कुछ मुझ परमात्मा को अर्पित कर दे। सभी कर्मों को ईश्वर को समर्पित कर देना भी प्रत्याहार ही है। इस प्रकार प्रिय विद्यार्थियों यह प्रत्याहार अन्तर्जगत में प्रवेश का प्रमुख साधन है। प्रत्याहार के सिद्ध हो जाने पर इन्द्रियजन्य की प्राप्ति होती है तथा साधक धारणा, ध्यान, समाधि रूप अंतरंग योग में प्रवेश पा सकता है।
प्रत्याहार सिद्धि में सहायक साधन
प्रिय विद्यार्थियों प्रत्याहार की सिद्धि में कुछ साधन सहायक होते है। उन्हें साधक साधन कहा जा सकता है। जिनके द्वार प्रत्याहार सिद्धि में सहायता प्राप्त होती है। परन्तु कुछ साधन प्रत्याहार सिद्धि में बाधक होते हैं, उन्हें बाधक साधन कहा जा सकता है। इन साधनों का वर्णन निम्न है।
I. इन्द्रिय दमन -
- प्रत्याहार सिद्धि के लिए प्रथम साधन इन्द्रिय दमन कहा जा सकता है, क्योंकि मनुष्य प्राचीन काल से ही अपनी इच्छाओ को इन्द्रियों द्वारा ही पूर्ण तृप्त करता आया है। अतः इन इन्द्रियों का स्वभाव पूर्व से ही बर्हिगमन का होता है। जो अतिदृढ़ होता जाता है। इन इन्द्रियों के स्वभाव में शिथिलता दमन से ही सम्भव है।
II. विवेक ज्ञान -
- इन्द्रियाँ दमन के पश्चात और उच्छखल होकर इधर- उधर अपने विषयों की ओर जा सकती है। अतः उन्हें शान्त करने के लिए दूसरे साधन को अपनाना चाहिए। प्रत्याहार सिद्धि में दूसरा सहायक साधन विवेक है। मन तथा इन्द्रियों की स्वामी बुद्धि द्वारा विषयों के दोषदर्शन करने पर विषयों के प्रति अनुराग का त्याग हो जाता है। तब मन, इन्द्रियों तथा चित्त पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। विषयों के दोषदर्शन का बार- बार अभ्यास करने से बुद्धि बाह्य विषयों से विरक्त होकर अन्तःज्ञान की ओर उन्मुख होने लगती है।
- इन्दियाँ सुपथगामी तभी हो सकती है, जब मन सुसंस्कृत हो, सुसंस्कृत मन तभी बन सकता है, जब बुद्धि विवेक सम्पन्न हो, बुद्धि मन को तभी उत्कृष्ट तथा सुपथगामी - बना सकती है, जब साधक का चित्त स्वयं आत्मा के अधीन होकर विवेक वैराग्य से युक्त होगा।
प्रत्याहार के साधक तत्वों में योगदर्शन में आदेश दिया गया है-
ते प्रतिप्रसवÈया : सूक्ष्माः । (पा०यो०दर्षन - 2 / 10 )
अर्थात
पूर्व जन्म के संस्कार रूपी क्लेशों को क्रिया योग से सूक्ष्म किये जाने तथा चित्त को अपने कारणों में लौटा देने से ये नष्ट करने योग्य है। अर्थात ये क्लेशों का नाश निर्बीज समाधी में ही सम्भव हो सकता है। सबीज समाधि में इन क्लेशों का बाह्य रूप क्षीर्ण हो जाता है किन्तु बीज रूप में ये चित्त में विराजमान रहते है। अतः साधक को चाहिए कि आरम्भ में ही इन्हें ध्यान योग अथवा क्रियायोग द्वारा सूक्ष्म किया जा सकता है तथा सबीज समाधि में चित्त को भी विलीन कर देता है। तब निर्बीज समाधि प्राप्त होती है।
'ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः।' (पा० यो० सू० - 2/11 )
अर्थात उन क्लेशों की स्थूल वृत्तियाँ ध्यान के द्वारा नष्ट करने योग्य है।
अर्थात
- क्लेशों की वृत्तियाँ स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीन प्रकार की होती है। जो कर्मों द्वारा आचरण में उतरती है। जैसे किसी से राग, द्वेष रखना, हिंसा आदि क्रिया करना। यह उनका स्थूल स्वरूप है। इसे सर्वप्रथम क्रियायोग द्वारा सूक्ष्म किया जाना चाहिए। कुविचार आने पर भी उन्हें क्रियान्वित ना करना सदाचार का आचरण करना, इस प्रकार यह क्लेश निर्बल हो जाते है। इसके बाद भी इनका विचारों में बार-बार आना खत्म नहीं होता है। जो इनका सूक्ष्म रूप है। यह फिर सम्प्रज्ञात समाधि में नष्ट हो जाता है। इस प्रकार विचार आने भी बंद हो जाते हैं। इसके बाद ये बीज रूप में ये क्लेश विद्यमान रहते हैं।
- पूर्वोक्त सूत्र 2/10 में क्रियायोग द्वारा ये स्थूल वृत्तियां सूक्ष्म हो जाती है। अतः क्रियायोग से सूक्ष्म होकर ये वृत्तियाँ ध्यान द्वारा नष्ट हो जाती है।
प्रत्याहार में बाधक तत्व
प्रिय विद्यार्थियों प्रत्याहार की सिद्धि में एक वस्तु बाधक बनती है। जिसे 'प्रारब्ध कहते हैं। हमारे जन्म - जन्मान्तरों से एकत्र हुये वासना रूपी संस्कार चित्त में एकत्र रहते है। ये संस्कार किसी निमित्त को पाकर जागृत हो जाते है, तथा मन, बुद्धि के द्वारा इन्द्रियों को भी बलपूर्वक विषयों की ओर उन्मुख कर देते है, तब मनुष्य लाभ - हॉनि की अनदेखी कर इन कर्मों में प्रवृत्त रहता है।
जैसा कि कहा गया है
" देवेन केनापि हृदिस्थितेन यथा नियुक्ताऽस्मि तथा करोमि ।” "
अर्थात
यह प्रारब्ध हमारे संस्कार रूपी देवता है, जो हमारे कर्म विपाक (कर्मों के फल) के अनुसार प्रत्येक मनुष्य को प्रेरित करता है। इस भोग लिप्सा के जाग्रत होने पर बड़े-बड़े ज्ञानी, ध्यानी का तप, ध्यान, ज्ञान, निष्फल होते देखा गया है। क्योंकि बिना प्रत्याहार के कोई भी साधक धारणा, ध्यान, समाधी रूप अन्तरंग योग में प्रवेश नहीं कर सकता है। अतः साधक को प्रत्याहार द्वारा अपनी वृत्तियों को अर्न्तमुखी बनाने का प्रयत्न करते रहना चाहिए, क्योंकि अन्तर्मुखता ही मनुष्य के कल्याण का साधन है।
प्रत्याहार की उपयोगिता -
प्रिय विद्यार्थियों, आपने प्रत्याहार के स्वरूप परिभाषा व प्रकारों का अध्ययन किया। अब आपके मन में यह प्रश्न उठ रहे होंगे कि प्रत्याहार की क्या उपयोगिता है। प्रत्याहार किस प्रकार हमारे शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है तथा प्रत्याहार का फल हमें क्या प्राप्त होता है। प्रत्याहार के फल का वर्णन योगदर्शन में इस प्रकार दिया गया है -
"ततः परमावष्यतेन्द्रियाणाम् ।" (पाoयोoसू० 2/55)
अर्थात
- इस प्रत्याहार से इन्द्रियाँ पूर्ण वशवर्तिनी हो जाती है। अर्थात प्रत्याहार के सिद्ध हो जाने पर इन्द्रिया पूर्ण नियन्त्रण में आ जाती है। जबकि प्रत्याहार के सिद्ध हाने से पूर्व इन्दियाँ अपने-अपने विषयों की ओर आकर्षित होती थी, उन पर कोई नियन्त्रण नहीं था, परन्तु प्रत्याहार के सिद्ध हाने पर इन्द्रियाँ वशवर्तिनी हो जाती है। अब इन वश में हुयी इन्द्रियों को साधक जहाँ चाहे वहाँ लगा सकता है।
प्रत्याहार साधक के शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोगी है। के जिसका वर्णन इस प्रकार है। -
स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रत्याहार की उपयोगिता
- प्रत्याहार से तात्पर्य इन्द्रिय संयम से है। अर्थात इन्द्रिय संयम रखते हुए योग के साधनों का पालन करने से शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक स्वास्थ्य प्राप्त किया जा सकता है।
शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रत्याहार की उपयोगिता
- प्रत्याहार के सिद्ध हो जाने पर - मनुष्य अपने आहार तथा प्रत्याहार आदतों को संयमित तथा सकारात्मक दिशा प्रदान करता हैं क्योंकि असंयमित जीवनशैली ही समस्त रोगों के मूल में है। प्रत्याहार के द्वारा शुद्ध सात्विक आहार - विहार तथा सांसारिक विषय अपनाता है एवं नकारात्मक वस्तुओं से स्वयं दूर होता चला जाता है। इन सभी के परिणामस्वरूप मनुष्य का शारीरिक स्वास्थ्य बना रहता है।
मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रत्याहार की उपयोगिता
प्रत्याहार जो कि इन्द्रियजय की अवस्था है अर्थात प्रत्याहार के द्वारा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की जा सकती हैं। जिससे कि शुद्ध आहार निश्चित दिनचर्या एवं विषय भोगों के प्रति विरक्ति का भाव उत्पन्न होता है। जिससे मानसिक ऊर्जा में वृद्धि होती है। जैसा कि सर्व विदित ही है कि हमारे आहार के स्थूल भाग से शरीर को पोषण मिलता है तथा आहार के सूक्ष्म अंश से मन का निर्माण होता है। इन्द्रिय जय से साधक की शुद्ध सात्विक आहार ग्रहण करने की प्रवृत्ति होती है। जिससे स्वस्थ शरीर के साथ-साथ मन का निर्माण होता है। शुद्ध सात्विक मन ही उपासना, साधना योग्य होता है।
जैसा कि रामचरितमानस में कहा गया है -
"निर्मल मन जन सो मोहि पावा
मेहि कपट छल छिद्र ना भावा । "
अर्थात निर्मल मन से ही ईश्वर को पाया जा सकता है। ईश्वर को छल, छिद्र कपट त्याग कर ही पाया जा सकता है।
आध्यात्मिक स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रत्याहार की उपयोगिता -
- इन्द्रिय संयम कर जीवन जीने से साधक के शरीर व मन के साथ-साथ आत्मा की उन्नति होती है। विषयों के प्रति वैराग्य होने से मन एकाग्र हो जाता है। शान्त व अन्तर्मुखी होने लगता है। शान्त मन ही ईश्वरोन्मुख होता जाता है। प्रत्याहार के सिद्ध होने पर इन्द्रियजय की स्थिति प्राप्त होती है। प्रत्याहार से इन्द्रियाँवश में होकर आध्यात्म का मार्ग प्रशस्त करती है। साधक उन्हें जहाँ चाहें वहा (उच्च साधना) में लगा सकता में है।