सम्प्रज्ञात समाधि और उसके भेद |समाधि क्या होती है एक परिचय |सवितर्का समापत्ति, निर्वितर्क समापत्ति | Samadhi Kya Hoti Hai

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सम्प्रज्ञात समाधि और उसके भेद , समाधि क्या होती है एक परिचय

सम्प्रज्ञात समाधि और उसके भेद |समाधि क्या होती है एक परिचय |सवितर्का समापत्ति, निर्वितर्क समापत्ति | Samadhi Kya Hoti Hai


समाधि क्या होती है एक परिचय 

 

समाधि एक ऐसी मनोगत अवस्था है, जिसमें साधक का शरीर, मन, प्राण तथा चेतना एक समन्वित इकाई के रूप में कार्य करती है।

 

व्यास भाष्य में समाधि को योग का लक्षण माना गया है; योगावस्था को समाधि से भिन्न नहीं देखा गया है। 

यथा :

 "योगः समाधि स च सार्वभौम चित्तस्यधर्म" (व्यास भाष्य) 


समाधि शब्द की व्युत्पत्ति

 

  • सम + आ + धा = इकट्ठा करना 
  • समम् + आ + धा= ठीक ढंग से रखना 
  • सम्यक् + आ + धा = संतुलित करना

 

अतः समाधि शब्द से व्यक्तित्व के विभिन्न आयाम अर्थात शरीर, मन, प्राण एवं चेतना के एकीकरण तथा उनमें आपसी संतुलन को निर्देशित करता है। 


पातंजल योगसूत्र के विभूतिपाद में समाधि का लक्षण बताया है।

यथा : तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः ।। (पा.यो.सू. 3 / 3)

 

अर्थात - 

  • ध्यानोपरान्त जब चित्त ध्येयाकार हो जाता है, और स्वयं के स्वरूप का अभाव होने लगता है, उस समय ध्येय के अतिरिक्त अन्य उपलब्धि नहीं होती, इसी अवस्था को समाधि कहा गया है।

 

सम्प्रज्ञात समाधि और उसके भेद -

 

योगांगो के निरन्तर अभ्यास से जब चित्त स्थिर होने लगता है, तब स्थिरता को प्राप्त हुए चित्त में समापत्ति की योग्यता आ जाती है। जिज्ञासा होती है, कि समापत्ति है क्या? चित्त की प्रत्यक्यचेतनाधिगति या अन्तर्मुखी होने की प्रक्रिया का नाम समापत्ति है। अतः पर्याप्त अभ्यास के बाद जब वृत्तियाँ क्षीण या दुर्बल हो जाती है तब चित्त स्वतः अन्दर परावृत हो अपने ही रूप (स्वरूप) में स्थित हो जाता है। इस समापत्ति का स्वरूप किस प्रकार का है और विषय कौन-कौन से है


उक्त प्रश्नों का उत्तर महर्षि  पतंजलि के निम्न लिखित सूत्र में दिया है:

 

क्षीणवृत्तेरऽभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्रहणग्राह्येषु तत्स्थतदंजनता समापत्ति ।। (पा.यो.सू. 1/41) 


जिसकी समस्त बाह्य वृत्तियां क्षीण हो चुकी हैं, ऐसे निर्मल चित्त का स्फटिक मणि की भांति ग्रहीता (पुरूष) ग्रहण (अन्तःकरण और इन्द्रियां) तथा ग्राह्य (पंचमहाभूत और विषय ) में स्थित या तदाकार हो जाना समापत्ति है।

 

उपर्युक्त उपायों से निर्मल हुए चित्त की उपमा अति निर्मल स्फटिकमणि से दी गयी है। जिस प्रकार अति निर्मल स्फटिक के सामने नीले, पीले अथवा लाल वर्ण की वस्तु रखी जाय तो वह मणि अपना रूप अभिव्यक्त न कर सामने उपस्थित वस्तु के समान ही नीली, पीली अथवा लाल वर्ण की दिखाई देती है, उसी प्रकार चित्त की जब सब प्रकार की राजस्- तामस् वृत्तियां क्षीण हो जाती हैं तब सत्त्व के प्रकाश और सात्त्विकता के बढ़ने से चित्त इतना स्वच्छ और निर्मल हो जाता है, कि दृष्टा का साक्षातकारा होने लगता है, चाहे वह इन्द्रियों के स्थूल या सूक्ष्म विषय हों या अन्तःकरण और इन्द्रियाँ अथवा बुद्धिस्थ पुरुष। वस्तु के साक्षात्कार में चित्त वस्तु अर्थात ध्येय के स्वरूप को धारण कर लेता है। चित्त के इस प्रकार ध्येयाकार हो जाने की प्रक्रिया का पारिभाषिक नाम योग में "समापत्ति है। अर्थात समापत्ति एक गतिशील प्रक्रिया का नाम है। जिसका स्थायी परिणाम 'सबीज समाधि' है। यही कारण है कि अधिकांश टीकाकारों ने समापत्ति को ही सम्प्रज्ञात समाधि या सबीज समाधि कह डाला है, किन्तु ऐसी बात नहीं है, समापत्ति प्रक्रिया है और सम्प्रज्ञात या सबीज समाधि परिणाम है। इस अवस्था में चित्त को ध्येय वस्तु के स्वरूप का भली भांति ज्ञान हो जाता है एवं उसके विषय में किसी प्रकार का संशय या भ्रम नहीं रहता। तात्पर्य यह है, कि शुद्ध निर्मल चित्त के सहयोग से आत्मा ध्येय अर्थ का साक्षात ( अनुभव ) कर लेता है। ध्येय अर्थ की श्रेणियाँ भिन्न-भिन्न होने से समाधि के स्तर विभिन्न हो जाते है। समाधि के इन विभिन्न स्तरों का ही समापत्ति नाम से वर्णन है। 


ध्येय की भिन्नता के आधार पर समापत्ति के भी चार भेद हैं।

यथा : 

  • सवितर्क, निर्वितर्क, सविचारा और निर्विचार 


1 सवितर्का समापत्ति :

 

योगसूत्र में सवितर्का समापत्ति का स्वरूप इस प्रकार बतलाया है :

 

  • तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः ।। जो समापत्ति शब्द, अर्थ और ज्ञान के विकल्पों से मिश्रित होती है। (अर्थात इन तीनों भिन्न-भिन्न पदार्थो का अभेद रूप से जिसमें भान होता है।) वह सवितर्क समापत्ति है।

 

  • जिस समापत्ति में शब्द, अर्थ और ज्ञान में तीनों भिन्न पदार्थ अनुभव आते हैं अर्थात जब चित्त इन तीनों के आकार को ग्रहण करता है तब उस समापत्ति को सवितर्क समापत्ति कहते है। इसमें शब्द, अर्थ और ज्ञान में तीन विकल्प या भेद चित्त में भासित होते है इसलिए इसे सविकल्प समाधि भी कहते हैं। जब शब्द और ज्ञान का विकल्प (भेद) चित्त में भासित नहीं होता, केवल अर्थ ही भासित होता है तब वह निर्वितर्क या निर्विकल्प समापत्ति कहलाती है।

 

  • दूसरे शब्दों में समापत्ति की परिभाषा के अनुसार चित्त जब इस प्रक्रिया में अन्दर की ओर जाना (लौटना) प्रारम्भ करता है, तब अपनी आदत के अनुसार वह विचारशील रहते हुए अन्दर की ओर जाना प्रारम्भ करता है। इस आन्तरिक यात्रा की प्रक्रिया में वह शब्द, अर्थ तथा ज्ञान इन विकल्पों के एक दूसरे से मिल जाने से उत्पन्न होने वाले (वास्तविकता से भिन्न अधूरे ज्ञान वाले) वितर्कों के कारण संकीर्ण हो जाया करता है। सवितर्क समापत्ति ध्येय विषय स्थूल रूप होता है। अतः इसे सवितर्का समापत्ति कहते है।

 

  • उदाहरणार्थ- कर्णेन्द्रिय से सुनाई देने वाली 'गौ' ध्वनि; गौ शब्द है, उससे संकेतित होने वाला प्राणि विशेष गौ अर्थ (गौ पदार्थ) है तथा गौ शब्द से जो गौ- अर्थ का बोध होता है वह गौ- ज्ञान है। ये तीनों भिन्न है किन्तु निरन्तर अभ्यास के कारण अभिन्न प्रतीत होते हैं। जब 'गौ' में चित्त को एकाग्र किया जाय तब समाधिस्थ चित्त में गौ- शब्द, गौ अर्थ, गौ- ज्ञान भासित हों अर्थात तीनों में वह तदाकार रहे तब उस समापत्ति को सवितर्क समापत्ति कहते है।

 

2 निर्वितर्क समापत्ति :

 

सूत्रकार ने निर्वितर्क समापत्ति के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए बताया है, कि-

स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का ।।

 

  • स्मृति के भलीभांति लुप्त (निवृत) हो जाने पर अपने रूप से शून्य हुई सदृश केवल ध्येय मात्र के रूप (अर्थ) को प्रत्यक्ष कराने वाली (चित्तवृत्ति की स्थिति) का नाम निर्वितर्का समापत्ति है।

 

  • सवितर्का समापत्ति की स्थिति से गुजरने के बाद जब इस अन्दर की यात्रा में स्मृति की पूर्णरूप से शुद्धि हो जाती है, अर्थात शब्दार्थादि की किसी प्रकार संकीर्णता नहीं रहती (बुरे बिचार करने की प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है और बुरी स्मृतियों के भी उठने की सम्भावना समाप्त हो जाती है ) तब स्वरूप शून्यता की ओर प्रगति होने लगती है, जिससे विषय के पीछे के तथ्य की झलक मिलने लगती है। अतः यहाॅ वितर्कादि समाप्त हो जाने पर यह निर्वितर्का समापत्ति होती है।

 

  • जिस प्रकार सवितर्का समापत्ति में चित्त शब्द, अर्थ और ज्ञान इन तीनों में तदाकार रहता है एवं इस स्थिति में एकाग्रता जितनी बढ़ती जाती है। उतनी ही बाह्यवृति अन्तर्मुखी होती जाती है और जब एकाग्रता इतनी बढ़ जाए कि चित्त शब्द और ज्ञान को छोड़कर केवल अर्थ रूप ध्येय वस्तु में तदाकार हो जाए तो उसे निवितर्क समापत्ति कहते हैं। इसमें शब्द और ज्ञान का विकल्प न रहने से इसे निर्विकल्प समापत्ति भी कहते है। इसमें दूसरा विकल्प रहता ही नहीं यही स्मृति परिशुद्ध है। यह उच्च अवस्था भी कही जाती है। 


3 सविचार और निर्विचार

 

  • समापत्ति के स्वरूप का महर्षि पतंजलि ने निम्नलिखित सूत्र में प्रतिपादन किया है। यथा : एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता ।।" इसी से (पूर्वोक्त सवितर्क और निर्वितर्क के वर्णन से ही) सूक्ष्म विषयों में की जाने वाली सविचारा और निर्विचारा समाधि का भी वर्णन किया गया है।

 

  • जिस प्रकार स्थूल ध्येय पदार्थों में की जाने वाली समाधि के दो भेद हैं। उसी प्रकार सूक्ष्म ध्येय पदार्थों से सम्बन्ध रखने वाली समाधि के भी दो भेद समझने चाहिए अर्थात जब किसी सूक्ष्म ध्येय पदार्थ का यथार्थ स्वरूप जानने के लिए उसमें चित्त को स्थिर किया जाता है तब पहले उसके नाम, रूप और ज्ञान के विकल्पों से मिला हुआ अनुभव होता है वह स्थिति सविचार समाधि है। उसके बाद जब नाम और ज्ञान का अर्थात चित्त के निज स्वरूप का भी विस्मण होकर केवल ध्येय पदार्थ का अनुभव होता है, तब यह स्थिति निर्विचार समापत्ति है।

 

सविचार :

 

  • विषयों की सूक्ष्मता हो जाने के कारण सवितर्का समापत्ति के समान यहा वितर्क नहीं होते ओर न ही बुरे या अशुद्ध विचार ही उत्पन्न होते हैं, किन्तु शुद्ध विचार अवश्य बने रहते हैं। साथ ही शब्द, उनके अर्थ और ज्ञान भी रहते ही हैं, किन्तु संकीर्ण और अशुद्ध रूप में नहीं। अतः सुविचार सम्पन्न होने के कारण इसे सविचार समापत्ति कहते हैं। 


निर्विचार :

 

  • इस अन्तिम प्रकार में विचारों का भी उठना धीरे-धीरे कम होते-होते पूर्ण रूप से बन्द हो जाता है। तब साधक को यह अनुभव होने लगता है कि सविचारा समापत्ति में प्राप्त हुए शुद्ध विचारों के स्वरूप भी नष्ट होकर एक निराले रूप ही प्रतीत हो रहे हैं। वास्तविक तथ्य अधिक स्पष्ट होने लगते हैं।

 

  • महर्षि पतंजलि ने समाधि पाद के प्रारम्भ में भी कहा है कि अभ्यास और वैराग्य के द्वारा चित्त की वृत्तियों का निरोध हो जाने पर सम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था प्राप्त होती है। यह वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मिता के चार चरणों में पूर्ण होती है। जैसा कि निम्नलिखित में दर्शाया गया है। यथा :

 

सूत्र वितर्कविचारानन्दास्मितानुगमात्सम्प्रज्ञातः।।

 

  • वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मिता इन चारों के सम्बन्ध से युक्त चित्तवृत्ति का समाधान ही सम्प्रज्ञात योग है।

 

  • वितर्क (गहरे विचार) विचार (बुरे-अच्छे विचार) आनन्द (मैं आनन्द में हूँ) और अस्मिता (मैं हूँ मात्र यह भावना), इनके आधार या सहारे से सम्प्रज्ञात' यह एक विशिष्ट योग प्रदेश का नाम है। धारणा, ध्यान आदि अंतरंग योग साधना में जब-जब चित्त अन्दर की ओर जाता है, तब प्रारम्भ में उसको जिस प्रदेश से गुजरना पड़ता है अर्थात जिस प्रकार का अनुभव चित्त को होता है, उसको 'वितर्क' शब्द से अभिहित किया जाता है। कर्माशय में जन्म-जन्म के कर्मों के संस्कार भरे पड़े रहते हैं। धारणा - ध्यानादि की साधना में जब चित्त की बाहर जाने की प्रवृत्ति को रोकने का प्रयत्न साधक करता है तब कर्माशय में पड़ा हुआ यह संस्कार समूह उभर आता है। 


  • अतः प्रथम चित्त प्रसादन के अभ्यास द्वारा इन संस्कारों के हटने पर चित्त प्रसन्न एवं निर्मल होकर ही धारणा - ध्यानादि का सफल अभ्यास हो पाता है। इस प्रकार अभ्यास करने से चित्त के बाहर जाने और विषयों की ओर झांकने की प्रवृत्ति कम हो जाती है, और तब जिस प्रकार बड़ा कोलाहल शान्त हो जाने पर मंद और क्षीण ध्वनि भी सुनाई देने लगती है। इसी प्रकार अपने अंदर की प्रतिभाओं की संवेदना का अनुभव होने लगता है। इस प्रकार प्रत्याहार द्वारा चित्त के बाहर जाने की प्रवृत्ति कम होने तथा धारणा ध्यानादि के द्वारा चित्त के अंतर्मुखी होने की प्रक्रिया के समय का प्रारंभिक प्रदेश वितर्कों का होता है। बाद में अभ्यास बढ़ने पर धारणा ध्यान की प्रक्रिया में अपने आप यह वितर्क उठना बंद हो जाते हैं। इसके पश्चात जो विचार चित्त प्रदेश में उठता है वह शुभ विचार होता है। अर्थात प्रथम वितर्क का उसके बाद विचार का प्रदेश होता है। किन्तु विचार द्वारा प्राप्त ज्ञान भी सापेक्ष या अपूर्ण होता है। 


  • अतः उसकी पूर्णता के लिए धारणा ध्यानादि का अभ्यास बढ़ाया जाता है। इससे जिस प्रकार वितर्क का उठना बंद हुआ था उसी प्रकार विचार का उठना भी धीरे-धीरे स्वतः बंद हो जाता है। अब जो तृतीय प्रदेश है वह भावना का प्रदेश है। जिसका प्रारम्भिक अनुभव आनन्द होता है। इस अवस्था में 'मैं आनन्द में हूँ' ऐसा साधक अनुभव करता है, परन्तु यह अवस्था भी सापेक्ष होती है। अतः अभ्यास के बाद इस अवस्था के भी समाप्त होने पर जो चतुर्थ या अन्तिम प्रदेश का अनुभव होता है, उसमे 'मैं हूँ' यह अनुभव होने लगता है। इस अनुभव की स्थिति को ही 'अस्मिता' कहा गया है। यही सब 'सम्प्रज्ञात' का प्रदेश है। सम+प्र + ज्ञात अर्थात अच्छी प्रकार से जाना हुआ। यहाँ तक के अनुभव का पूरा ज्ञान साधक को रहता है। इसी कारण इसे सम्प्रज्ञात कहा गया है।

 

उपर्युक्त सविचारा और निर्विचारा समापत्ति के जो ध्येय सूक्ष्म विषय बतलाऐं है उनकी सूक्ष्म विषयता कहाँ तक है, इसका निरूपण करते हुए महर्षि पतंजलि ने बताया है: 

"सूक्ष्मविषयत्वं चालिङ्गपर्यवसानम् ।।'

 

  • और सूक्ष्म विषयता अलिङ्ग प्रकृति पर्यन्त है। सृष्टि के स्थूल विषय है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश । क्रमशः गंध, रस, तेज, स्पर्श और शब्द इनके यह सूक्ष्म विषय है, इन्हें तन्मात्राऐं भी कहते है। ये तन्मात्राऐं, मन सहित इन्द्रियों का सूक्ष्म विषय अहंकार, अहंकार का महत्तत्व और महत्तत्व का सूक्ष्म विषय अर्थात कारण 'मूल प्रकृति है। इसके आगे कोई सूक्ष्म पदार्थ नहीं है और यही सूक्ष्मता की अवधि है। अतः प्रकृति पर्यन्त किसी भी सूक्ष्म पदार्थ को लक्ष्य बनाकर उसमें की हुई समाधि को सविचार और निर्विचार समाधि के अन्तर्गत समझना चाहिए । यद्यपि पुरूष प्रकृति से भी सूक्ष्म है। पर वह दृश्य पदार्थों में नहीं है अतः तद्विषयक समाधि इसमें नहीं आनी चाहिए, तथापि ग्रहीतृविषयक समाधि बुद्धि में प्रतिबिम्वित पुरूष में की जाती है। अतः उसको निर्विचारा समाधि के अन्तर्गत मान लेने में कोई अपत्ति नहीं होती।

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