चित्त की भूमियॉ (अवस्था) State of Mind in Yoga
चित्त की भूमियॉ (अवस्था) (State of Mind in Yoga )
- चित्त अपनी प्रादुर्भावावस्था में सत्व गुण प्रधान रहता है। परन्तु चित्त त्रिगुणात्मक है तथा त्रिगुणात्मक होने के कारण गुणों के परस्पर विषमता होने तथा अनेक वृत्तियों, संस्कारो से चित्रित चित्त भिन्न भिन्न अवस्थाओ व भूमियों का रूप धारण करता है।
- योगसूत्र में सूत्रकार ने भूमियों अथवा अवस्थाओं का वर्णन नहीं किया है। किन्तु व्यासभाष्य व तत्व वैशारदी एवं योग वार्तिक में भूमियों का वर्णन किया गया है। व्यासभाष्य में भूमियों का वर्णन इस प्रकार किया गया है।
"क्षिप्त मूढ़ विक्षिप्तमेकाग्रं निरूद्धमितिचितस्य भूमयः ।' पा० यो० सू० 1 / 1व्यासभाष्य
अर्थात्
क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र, निरूद्ध चित्त की भूमियाँ है। इस प्रकार चित्त की पाँच स्थितियों को पाँच अवस्थाओ में बाँटा गया है। जिन्हें चित्त की अवस्थायें या चित्तभूमि नाम से जाना जाता है।
1 चित्त की मूढ़ अवस्था
- तमोगुण के आध्यिकय के कारण जड़वत, अकर्मण्य अवस्था का नाम मूढ़ है। इस अवस्था में रज व सत्व दबे रहते है, तथा तमोगुण प्रधान रहता है। ऐसा व्यक्ति विवेक शून्य होता है तथा अशास्त्र विधि से आचरण करना, आलस्य, प्रमाद में रहना, पाप कर्मों में लिप्त रहना, आवेश युक्त रहना इस चित्त की मूल अवस्था है। इस अवस्था विषयों का अभाव रहता है। इसी कारण विषयों के प्रति इस अवस्था में मोह उत्पन्न होता है, तथा ऐसे चित्त से युक्त जीवात्मा संसार में फंसा रहता है। ऐसा चित्त काम, कोध, लोभ, मोह के कुचक में फंसा रहता है तथा यह अवस्था नीच मनुष्यों के चित्त की है।
2 चित्त की क्षिप्त अवस्था
- शब्द, रूप, स्पर्श आदि विषयों में निरन्तर भ्रमण करने वाला अस्थिर चित्त ही क्षिप्तावस्था है। इस अवस्था में रजोगुण की प्रधानता होती है, तथा तम व सत्य गुण गौण रूप में रहता है। इस अवस्था में राग- द्वेष, काम – क्रोध, लोभ अधर्म, ज्ञान - - मोह आदि के साथ - साथ धर्म - अज्ञान आदि में चित्त प्रवृत्त रहता है। रजोगुण प्रधान होने के कारण चित्त किसी एक विषय में स्थिर नही हो पाता है, निरन्तर क्रियाशील बना रहता है। एक विषय प्राप्त हो जाने पर वह तुरन्त दूसरे विषय की ओर दौड़ने लगता है। इसी कारण चित्त में दुःख उत्पन्न होता है। क्षिप्तावस्था में तमोगुण जब सत्व को दबा देता है तब अधर्म, अज्ञान आदि में चित्त प्रवृत्त होने लगता है, तथा जब सत्व तम को दबा देता है, तब चित्त धर्म के कार्यों में ज्ञान के कार्यों में प्रवृत्त होता है। यह अवस्था साधारणतया सांसारिक व्यक्तियो की है।
3 चित्त की विक्षिप्त अवस्था
- क्षिप्त व मूढ़ भूमि की अपेक्षा यह अवस्था कुछ उत्तम कोटि की है। क्योकि इस अवस्था में सत्व गुण बना रहता है। रज व तम गुण कुछ कम हो जाता है। यह अवस्था चित्त की निष्काम कर्म करने से तथा राग - द्वेष, लोभ मोह आदि का त्याग कर देने के पश्चात प्राप्त होती है। इस अवस्था में सत्व गुण के बने रहने के कारण मनुष्य की प्रवृत्ति धर्म, वैराग्य, ज्ञान एवं ऐश्वर्य में होती है। परन्तु रजोगुण के बड़ते ही क्षण में चित्त क्षोभ को प्राप्त हो जाता है। रजोगुण चित्त को विक्षिप्त करता रहता है। इसलिए इसे विक्षिप्त अवस्था कहा जाता है। यह अवस्था श्रेष्ठ मनुष्यो तथा जिज्ञासु साधको की होती है।
4 चित्त की एकाग्र अवस्था
- जब एक ही विषय में वृत्तियों का प्रवाह निरन्तर चित्त में बहता रहे तब उस अवस्था को एकाग्र अवस्था कहते है। यह चित्त की स्वभाविक अवस्था है। इस अवस्था में चित्त में बाह्वय विषयो तथा रज व तम का प्रभाव नही रहता है। तब वह चमकते हुए स्फटिक मणि के समान स्वच्छ व निर्मल होता है।
- इस अवस्था में सत्व गुण के कारण रज व तम दब कर पूर्ण रूप से अभाव हो जाता है। साधक का चित्त एक बिन्दु पर केन्द्रित हो जाता है। इसी अवस्था में चिन्तन मनन किया जाता है। क्योंकि इस अवस्था में साधक का चित्त शान्त हो जाता है, तथा यह अवस्था विवेक ख्याति की होती है। इसी अवस्था को सम्प्रज्ञात समाधि भी कहा जाता है। इस अवस्था में चित्त एक ही विषय में स्थिर हो जाता है। यह चित्त की निर्मल व स्वच्छ अवस्था होती है। एकाग्र अवस्था में चित्त में धर्म ज्ञान एवं वैराग्य की प्रधानता रहती है। इस अवस्था में साधक को स्थूल से लेकर सूक्ष्म तक का ज्ञान हो जाता है। इस अवस्था में चित्त वृत्ति बाह्वय विषयो से निरूद्ध रहती है। वृत्तियों के अन्तर्मुखी होने कारण ही इस अवस्था को एकाग्र अवस्था कहा जाता है। योग का आरम्भ इसी अवस्था से होता है।
5 चित्त की निरूद्ध अवस्था -
- विवेक ख्याति द्वारा जब चित्त और पुरुष के भेद का साक्षात्कार हो जाता है। तब उस विवेक ख्याति के उदय होने पर वैराग्य की प्राप्ति होती है। इस अवस्था में योगी सुख-दुःख से विरक्त होकर इसका परित्याग कर निरोधावस्था में पहुँच जाता है। जिस कारण संस्कारों के बीज के रहते हुए भी उनको जाग्रत नहीं कर पाता है। विवेक ख्याति भी एक प्रकार की वृत्ति ही है। इस वृत्ति के निरूद्ध होने पर सभी वृत्तियाँ समाप्त हो जाती है। यही चित्त की निरूद्धावस्था होती है। इस निरूद्धावस्था में किसी भी प्रकार की वृत्ति के ना रहने पर कोई भी पदार्थ जानने में नहीं आता तथा कर्माशय रूप जन्म जन्मान्तरों के बीज नही रहते है। इसलिए इसको असम्प्रज्ञात समाधि कहते है।
- इस प्रकार प्रिय विद्यार्थियो इन चित्त की पाँच अवस्थाओ का अध्ययन आपने किया। उपरोक्त पाँचो अवस्थाओं में मूढ़, क्षिप्त और विक्षिप्त इन अवस्थाओं में योग का आरम्भ नही हो पाता है। क्योकि इन अवस्थाओं में तम व रज गुण प्रधान रहते हैं। विक्षिप्त अवस्था में सत्व गुण प्रधान तो रहता है, परन्तु रज व तम भी कम हो जाते है। इस लिए विक्षिप्त अवस्था में यदा - कदा चित्त स्थिरता को प्राप्त करने वाला हो जाता है। परन्तु रजो गुण के बढ़ते ही क्षण में क्षोभ को प्राप्त हो जाता है। इसलिए इन अवस्थाओ में योग आरम्भ नहीं हो पाता है। योग का आरम्भ एकाग्र अवस्था से होता है। योग की एकाग्र अवस्था परिपक्व हो जाने पर निरूद्धावस्था की प्राप्ति हो जाती है। जिसमें सत्व, रज व तम सभी प्रकार की वृत्तियाँ समाप्त हो जाती है। साधक को समाधि की प्राप्ति हो जाती है। तथा क्लेशो का नाश हो जाता है, तथा आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाती है ।