ध्यान के प्रकार और उनका वर्णन, ध्यान किसका किया जाए ?
ध्यान के प्रकार (Types of Meditation in Hindi)
प्रिय विद्यार्थियों महर्षि पतंजलि ने ध्यान के प्रकारो का वर्णन नहीं किया है। परन्तु प्राचीन ग्रन्थों में ध्यान के विभिन्न प्रकार बताये गये है।
घेरण्ड संहिता के अनुसार - घेरण्ड संहिता में ध्यान के तीन प्रकार बताये गये है-
"स्थूलं ज्योतिस्तथासूक्ष्मं ध्यानस्य त्रिविधं बिन्दुः ।
स्थूलं मूर्तिमयं प्रोक्तं ज्योतिस्तेजोमयं तथा
सूक्ष्मं, बिन्दुमयं ब्रहम कुण्डली परदेवता ।। - 6/1
स्थूल ध्यान, ज्योति ध्यान और सूक्ष्म ध्यान के भेद से ध्यान तीन प्रकार का होता है।
(1) स्थूल ध्यान -
- स्थूल ध्यान वह जिसमें मूर्तिमय ईष्टदेव का ध्यान किया जाता है।
(2) ज्योतिर्मय ध्यान -
- ज्योतिर्मय ध्यान वह है जिसमें तेजोमय ज्योतिस्वरूप ब्रहम का ध्यान किया जाता है ।
(3) सूक्ष्म ध्यान
- सूक्ष्म ध्यान वह है जिसमें बिन्दुमय कुण्डलिनी शक्ति का ध्यान किया जाता है।
- कुण्डलिनी शक्ति रीढ़ की हड्डी के सबसे नीचे भाग में साढ़े तीन लपेटे लिए हुए अपनी शान्त मुद्रा में सोई रहती है। यह बहुत सूक्ष्म है। योग द्वारा ही इस सोई हुए कुण्डलिनी शक्ति के जाग्रत किया जा सकता है।
शाण्डिल्योपनिषद के अनुसार ध्यान के दो प्रकार
शाण्डिल्योपनिषद में ध्यान के दो प्रकारो का वर्णन किया गया है।
( 1 ) सगुण ध्यान
- सगुण ध्यान ईष्ट या मूर्ति का ध्यान है। इस ध्यान से मात्र सिद्धियाँ प्राप्त होती है।
(2) निर्गुण ध्यान
- इस ध्यान में आत्मा में ध्यान किया जाता है। आत्मा में ध्यान के द्वारा समाधि की प्राप्ति होती है।
वशिष्ट संहिता में ध्यान - वशिष्ट संहिता में ध्यान का वर्णन इस प्रकार से है
"ध्यानमात्मस्वरूप वेदनं मनसा भवेद्
- तदेव द्विविधं प्रोक्तं सगुण निगुणं तथा ।। - 4/19
अर्थात
निज स्वरूप को मन से तत्वतः समझ लेना ही ध्यान है। वह दो प्रकार का होता है - सगुण व निगुण ।
(1) सगुण ध्यान सगुण साकार ईष्ट या मूर्ति का ध्यान है।
(2) निर्गुण ध्यान - निगुण ध्यान, निगुण निराकार ब्रहम का ध्यान है।
भक्तिसागर के अनुसार भक्ति सागर के अनुसार ध्यान चार प्रकार का होता है।
वर्णन इस प्रकार है
(1) पदस्थ ध्यान -
- इसमें किसी भी अराध्य की मूर्ति या अपने ईष्ट देवता का नख से लेकर शिख तक ध्यान किया जाता है। इसके पश्चात ध्यान को अपने ईष्ट के चरणों में केन्द्रित करके कुम्भक लगाकर ओऽम् का उच्चारण व जप किया जाता है। ऐसा करने से मन निश्छल हो जाता है, तथा इसे त्रिताप तीनों प्रकार दुःखों (दैहिक, दैविक, भौतिक) से मुक्ति मिलती है ।
(2) पिड़स्थ ध्यान -
- साधक को इस ध्यान में चकों में ध्यान केन्द्रित करना होता है। सर्वप्रथम मूलाधार जहाँ चार पक्तियों वाला कमल है, तथा इसका रंग लाल तथा इसके देवता गणेश है, पर ध्यान लगाना होता है। इसके पश्चात क्रमानुसार सभी चको पर ध्यान केन्द्रित करना होता है। जैसे सर्वप्रथम मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत चक, विशुद्धि चक एवं आज्ञा चक्र पर ध्यान केन्द्रित करने से साधक को अलौकिक ज्योति के दर्शन होते है। जिसमें उसे अपने पूर्व जन्म का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। तत्पश्चात साधक हजार पत्तियों वाले शून्य (सहस्त्रार चक्र) में ध्यान लगाता है। सहस्त्रार चक्र में ध्यान के फलस्वरूप उसे अमरत्व की प्राप्ति होती है। यह ध्यान की सर्वोत्तम विधि है।
(3) रूपस्थ ध्यान
- इस विधि में साधक अपने ध्यान को भूमध्य में स्थिर रख कर विभिन्न - प्रकार के दृश्यों के दर्शन करता है। सर्वप्रथम उसे अग्नि का गोला दिखाई देता है। उसके पश्चात साधक को दीपक व तारों के समूह के दर्शन होते हैं, तथा बिजली की चमक महसूस होती है। इसके पश्चात अनेको चन्द्रमा व सूर्य के दर्शन होने लगते है। तथा इनसे समस्त विश्व प्रकाशवान दिखाई देता है। इस प्रकार के ध्यान के पश्चात साधक को चारो ओर प्रकाश ही प्रकाश दिखाई देता है।
(4) रूपाति ध्यान -
- यह ध्यान सभी प्रकार के ध्यान से सर्वश्रेष्ठ ध्यान है। रूपाति ध्यान में निराकार ब्रहम, जिसका कोई आकार नही है, ऐसे निराकार ब्रहम में अपना ध्यान साधक लगाता है। जिससे साधक का चित्त एकाग्र हो कर ब्रहम में लीन हो जाता है। रूपाति ध्यान, ध्यान की अन्तिम अवस्था है तथा यह ध्यान समाधि की प्रारम्भिक अवस्था है।
ध्यान किसका किया जाए ?
इस प्रकार ध्यान द्वारा अन्तर्मन को जाग्रत कर स्वयं को जाना जा सकता है। स्वयं को जान कर स्वयं को अनुशासित तथा नियन्त्रित किया जाता है। प्रिय विद्यार्थियों अभी तक आपने ध्यान, ध्यान के विभिन्न प्रकारो का अध्ययन किया। अब आपके मन में प्रश्न उठ रहे होंगे कि ध्यान किसका किया जाए ? इन्ही प्रश्नों का उत्तर महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र के सूत्र 1/37 एवं 1 / 39 में किया है, जिसका वर्णन निम्न है
ध्यान किसका किया जाए ? प्रिय विद्यार्थियों महर्षि पतंजलि ने चित्त को स्थिर रखने हेतु हमें किसका ध्यान करना चाहिए इसका वर्णन समाधिपाद में इस प्रकार किया है
"वीतराग विषयं वा चित्तम् ।" ( 1 / 37 )
अर्थात
रागद्वेष रहित महात्माओं के शुभ चरित्र का ध्यान करने से भी मन स्थिर होता है। महर्षि पतंजलि कहते है कि ऐसे महापुरूष जिनके रागद्वेष सर्वथा नष्ट हो गये हो, उन वीतरागी पुरूषों का भी ध्यान करने से भी मन स्थिर हो जाता है। क्योकि हम जैसे व्यक्ति का ध्यान करते है, वैसे ही हमारे विचार भी बन जाते है। क्योकि उन व्यक्तियों या महापुरूषों, सन्तो, महात्माओं अथवा कोई बुरे व्यक्तियों आदि में से जिसके भी हम विचार करते है, अथवा सुनते है या जिस प्रकार का साहित्य पढ़ते है, हमारा मस्तिष्क भी वैसा ही बन जाता है। यह पूर्णरूपेण मनोवैज्ञानिक सत्य है। इसलिए रागद्वेष रहित महात्माओं के शुभ चरित्र का ध्यान करना चाहिए।
महर्षि पतंजलि ने 1 / 39 में वर्णन किया है पुनः -
"यथाऽभिमत ध्यानाद्वा ।"
- अर्थात अभीष्ट विषय के ध्यान से भी मन स्थिर हो जाता है। अर्थात ध्यान उसका करना चाहिए जिस पर भी तुम्हारी गहरी रूचि हो । महर्षि पतंजलि का यह सूत्र अत्यन्त गहरा एवं व्यापक है। ध्यान में लिए विषय वस्तु के चुनाव में अभिमत का या गहरी रूचि का विशेष महत्व है। ध्येय को किसी के व्यक्तित्व पर आरोपित नहीं किया जा सकता है। ध्यान की प्रक्रिया में साधक का ध्यान की विषय वस्तु के प्रति गहरी श्रद्धा हो या आस्था होनी चाहिए। जिससे कि उसके भाव व विचार सहज ही बहने लगे। ध्यान की विषय वस्तु के चिन्तन से उसके अन्त मन में उल्लास एवं श्रद्धा उत्पन्न होने लगे। उसका विचार प्रवाह ध्यान की विषय वस्तु में विलीन होने लगे। ऐसा तभी सम्भव है जब साधक के रूचि के अनुरूप ध्यान की विषय वस्तु हो । उसके अराध्य उसके रूचि के अनुरूप हो।
- इस प्रकार महर्षि पतंजलि कहते है कि अपने रूचि के अनुरूप अभीष्ट विषय के ध्यान से मन स्थिर हो जाता है, तथा जिससे ध्यान करने वाले की चेतना परिमार्जित, पवित्र एवं रूपान्तरित होती है।