विभूतियों के प्रकार (Types of vibhuti in Yoga)
चित्तशुद्धिजन्य शक्तिरूप विभूतियां
चित्तशुद्धिजन्य विभूतियाँ इस प्रकार है-
1 आत्मबल विभूति
मैत्री, करूणा, मुदिता और उपेक्षा आदि में संयम करने से तत्सम्बन्धी बल की प्राप्ति होती है।
यथा :-
मैत्र्यादिषु बलानि ।। (पा०यो0सू० 3 / 23)
मैत्री करूणा आदि बलों की प्राप्ति उपरान्त आत्मबल की उपलब्धि होती है। जो शक्ति अन्तःकरण को इन्द्रियों में गिरने न देकर नियमित रूप से आत्म स्वरूप की ओर खींचती रहती है, उसी को आत्मबल' या तेज कहते हैं।
2 शारीरिक विभुति :
बल में संयम करने से हाथी के समान बलादि की प्राप्ति हो सकती है।
यथा :-
बलेशु हस्तिबलादीनि ।। (पाoयो0सू० 3 / 24 )
बल दो प्रकार के होते है- एक आत्म बल और दूसरा शारीरिक बल, जैसे बल की आवश्यकता है उसी प्रकार के बलशाली जीवों के बलों में संयम करने से उसी प्रकार के बल की प्राप्ति होती है।
क्रियात्मक विभूतियां :
क्रियात्मक विभूतियों का स्वरूप निम्नानुसार है
1 चित्तस्य परशरीरावेश विभूति :
चंचलता को प्राप्त हुए आस्थिर मन का शरीर में द्वन्द तथा आसक्तिजन्य बन्धन है। समाधि की प्राप्ति से क्रमशः स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर का यह बन्धन शिथिल हो जाता हैं। इस प्रकार जब बन्धन के कारण शिथिल हो जाते है और नाड़ियों के सूक्ष्म शरीर के घूमने के मार्ग का पूरा पूरा ज्ञान हो जाता है। परिणाम स्वरूप साधक में ऐसी सामर्थ्य आ जाती है कि वह अपने शरीर से चित्त (सूक्ष्म शरीर) को निकालकर किसी दूसरे की शरीर में जब चाहे तब प्रवेश करा सकता है।
यथा :-
बन्धकारणशैथिल्यात्प्रचारसंवेदनाच्च चित्तस्य परशरीरावेशः ।। (पाoयो0सू० 3 / 38)
2 जलादि असंग विभूति
- शरीर के जीवन का आधार प्राण है, क्रिया भेद से उसके पांच नाम है, यथा :- प्राण, अपान, समान, व्यान और उदान इनमें से संयम द्वारा उदान को जीतने पर शरीर रूई की तरह हलका हो जाता है। पानी के ऊपर पैर रखने पर भी ऐसा योगी पानी में नहीं डूबता, कीचड़ एवं कांटों में उसके पैर नहीं फँसते और ऐसे सिद्ध पुरूष की मृत्यु के समय में प्राणों का ब्रह्मरन्ध्र द्वारा निकास होना उत्तम मार्ग होता है।
यथा :-
उदानजयाज्जलपंककण्टकादिष्वसंगउत्क्रान्तिश्च ।। (पा०यो0सू० 3 / 39)
3 ज्वलन विभूति :
संयम द्वारा समान वायु को वश में करने पर समान प्राण के अधीन जो शरीरिक अग्नि है, उसके उत्तेजित होने पर शरीर अग्नि के समान चमकता हुआ दिखायी देता है।
यथा :- समानजयाज्ज्वलनम् ।। ( पाoयोoसू० 3 / 40 )
4 दिव्यश्रोत्र विभूति :
समस्त श्रोत्र और शब्दों का आधार आकाश है। जब तक कान के साथ आकाश का सम्बन्ध रखा जाता है, तब तक शब्द सुनायी पड़ते हैं अन्यथा नहीं। इससे कान और आकाश का जो आश्रयाश्रयी रूप सम्बन्ध है, उसमें संयम करने से योगी सूक्ष्म से सूक्ष्म दूरवर्ती से दूरवर्ती: छिपे हुए एवं नाना प्रकार के दिव्य शब्दों को सुन सकता है।
यथा :- श्रोत्राकाशयोः सम्बन्धसंयमाद् दिव्यं श्रोत्रम् ।। ( पाoयो0सू० 3 / 41 )
5 आकाश गमन विभूति :
शरीर और आकाश के सम्बन्ध में संयम करने से आकाश गमन करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। आकाश और शरीर के सम्बन्ध में संयम के समय लघुता के विचार से रूई आदि हल्के से हल्के पदार्थों की धाराणा करने पर हल्केपन की सिद्धि हो जाती है जिसके फल स्वरूप वह इच्छानुसार पक्षियों के समान आकाश गमन कर सकता है
6 महाविदेह धारणा विभूति :
शरीर के बाहर जो मन की स्वाभाविक वृत्ति है, उसका नाम "महाविदेहधारणा" है। इसके द्वारा प्रकाश के आवरण का नाश होता है। इस महाविदेह के सिद्ध होने पर प्रकाश स्वरूप बुद्धि का पूर्ण विकास हो जाता है। तब अहंकार से उत्पन्न हुए क्लेश, कर्म और कर्मफल, इनके सम्बन्ध से साधक मुक्त हो जाता है, रज-तम का आवरण हट जाता है जिससे अन्तःकरण को यथेच्छ ले जाने की विभूति (सिद्धि) प्राप्त होती है।
अन्तर्धान विभूति
कायागत रूप में संयम करने पर उसकी ग्राहय शक्ति रूक जाती है, और शक्ति के रूकने पर दूसरे के नेत्रों के प्रकाश का योगी के शरीर के साथ संयोग नही हो पाता तब योगी का शरीर अन्तर्धान (अदृश्य) हो जाता है।
यथाः-कायरूपसंयमात्तद्ग्राह्यशक्तिस्तम्भेचक्षुःप्रकाशासम्प्रयोगेऽन्तर्धानम् ।। (पा०यो0सू० 3 / 21)
इसी प्रकार शब्दादि पांचों विषयों में संयम करने से योगी के शरीर के शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध को पास में स्थित पुरूष भी नहीं जान सकता।
क्षुत्पिपासा निवृत्ति विभूति
कण्ठ-कूप में संयम करने से भूख-प्यास की निवृत्ति हो जाती है। कण्ठ-कूप में ही विशुद्धि चक्र की कल्पना की गयी है। इसी स्थान से क्षुपिपासा का धनिष्ठ सम्बन्ध है।
यथा : कण्ठकूपे क्षुत्पिपासानिवृत्तिः ।। (पाoयोoसू० 3 / 30 )
स्थैर्य विभूति :
कण्ठ-कूप के नीचे छाती में कछुए के आकार वाली एक नाड़ी है, उसे कूर्म नाड़ी कहते है। इस नाड़ी में संयम करने से स्थिरता की प्राप्ति होती है। जैसे सर्प अथवा गोह अपने-अपने बिल में जाकर चंचलता और क्रूरता को त्याग देते हैं, वैसे ही योगी का मन इस कूर्म नाड़ी में प्रवेश करते ही अपनी स्वाभाविक चंचलता का त्याग कर देता है।
यथा :- कूर्मनाड्यां स्थैर्यम् ।। ( पा०यो0सू० 3 / 31 ) 14.9.4
सिद्धि सिद्ध दर्शन शिरः विभूति
शरीर के कपाल में ब्रह्मरन्ध्र नामक एक छिद्र है। उसमें प्रकाश वाली जो ज्योति है वह मूर्धा- ज्योति कहलाती है। इस ज्योति में संयम करने पर सिद्धगणों के दर्शन होते हैं। इस ज्योति का सम्बन्ध आज्ञा-चक्र से है। सिद्ध पुरुष अर्थात दिव्य पुरूष जो दूसरे प्राणियों को अदृश्य रहते हैं, योगी उनको ध्यानावस्था में देखता है और उनसे वार्तालाप भी कर सकता है। ऐसे सिद्ध पुरूष चतुर्दश भुवनों में ही विराजते है ।
यथा :- मूर्धज्योतिषि सिद्धदर्शनम् ।। (पाoयो0सू० 3/32) :