उपविघ्न क्या होते हैं , महर्षि पतंजलि के अनुसार उपविघ्न का वर्णन
प्रिय विद्यार्थियों अब आप उन पॉच चित्त के विक्षेपो या अन्तराय के साथ होने वाले उपविघ्नो का अध्ययन करेंगे जो हमारे चित्त को विक्षिप्त करते है तथा योग साधना में बाधा उत्पन्न करते है।
विक्षेप सहभुवः
(उपविघ्न)
- प्रिय विद्यार्थियो महर्षि पतंजलि द्वारा रचित योग दर्शन में चित्त को - परिभाषित किया गया है। चित्त की शुद्धि के उपाय बताये गये है। महर्षि ने जीवन के वे सूत्र दिये है, जो हमारे जीवन का परिमार्जन, परिष्कार करते है। योग साधना पथ में निरन्तर आगे बड़ते रहने के सूत्र दिए है, तथा इन विघ्नो, अन्तरायो का वर्णन कर उनसे व्यथित ना होने का सन्देश दिया है। ईश्वरीय अनुभूति या साधना के मार्ग में विघ्नों से व्यथित ही प्रमाद करने वाले साधको को चेतावनी देते हुए महर्षि कहते है, इन विघ्नो की इति श्री यही तक नही है। साथ - साथ पाँच और अन्य भी है, जिन्हें विक्षेप सहभुवः कहते है ।
- प्रिय पाठको महर्षि शायद यह बताना चाहते है कि साधना के मार्ग में अन्दर से ईश्वरीय अनुभूति ( कृपा) का सहारा तथा बाहर से विघ्नो अन्तराय की, उपविघ्नो की चोट पड़ती है। तभी हम मजबूत दृढ़ संकल्प से लक्ष्य की ओर चल पड़ते है। यही बात कबीर ने भी कही थी। "अन्तर हाथ सहाय दे बाहर वाहें चोट ।" योग साधना वह ब्रहम विद्या है, जिसमें हम एक कदम बढ़ाते है तो उस ईश्वरीय सत्ता के निकट पाते है। वह ईश्वर जो गुरूओ का भी गुरू है। वह ईश्वर ही हमें मजबूत करने के लिए अन्दर से हमे अपनी कृपा कर सहारा देता है, तथा बाहर से विघ्नो की चोट देकर मजबूत बनाता है। क्योकि बिना मजबूती (दृढ़ इच्छा शक्ति) के हम कोई भी साधना नहीं कर सकते है। तो आइये पाठको हम अध्ययन करें कि किन- किन उपविघ्नो का सामना कर दृढ़ इच्छा शक्ति प्राप्त करअपने लक्ष्य कैवल्य की प्राप्ति की जा सकती है।
ये उपविघ्न निम्न है, जिनका वर्णन महर्षि पतंजलि ने इस प्रकार किया है
'दुखदौर्मनस्याड गमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः ।'
- पा० यो० सू० 1 / 31
अर्थात् दुःख, दौर्मनस्य (मन का क्षोभ), अंगमेजयत्व (अंगो का कॉपना), श्वास, प्रश्वास ये पाँच विक्षेपो के साथ साथ होने वाले विघ्न है। आइये इन उपविघ्नो का विस्तृत अध्ययन करें।
दुःख (दुःख क्या होता है)
इस संसार में दुःख ही दुःख है । परन्तु शास्त्रों में तीन प्रकार के दुःखों का वर्णन मिलता है। इन्हे त्रिविध ताप भी कहते है। ये संसार के प्राणियों को ताप देते हैं, इसलिए ताप कहलाते है। इन त्रिविध दुःखो का वर्णन महर्षि दयानन्द ने इस प्रकार किया है "त्रिविध ताप अर्थात् इस संसार में तीन दुःख है। एक आध्यात्मिक' जो आत्मा, शरीर में अविद्या, राग, द्वेष, मूर्खता और ज्वर आदि पीड़ा होती है, आध्यात्मिक दुःख है। दूसरा 'आधिभौतिक' जो शत्रु, व्याघ्र और सर्पादि से प्राप्त होता है। तीसरा 'आधिदैविक' जो अतिवृष्टि, अतिशीत, अतिउष्णता, मन व इन्द्रियो की अशान्ति से होता है ।" ( स० प्र० प्र० समु०)
महर्षि व्यास के अनुसार दुःख-
"दुःखमाध्यात्मिकमाधिभौतिकमाधिदैविकं च ।
येनाभिहताः प्राणिनस्तदुपघाताय प्रयतन्ते तद्दुःखम् ।।"
अर्थात् दुःख आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक भेद से तीन प्रकार है। जिससे पीड़ित होकर प्राणी उस वेदनीय दुःख की निवृत्ति या नाश के लिए प्रयत्न करते हैं, वह दुःख कहा जाता है। दुःख तीन प्रकार के होते है आध्यात्मिक, आधिभौतिक, - आधिदैविक।
आध्यात्मिक दुःख
- काम, क्रोध, राग, द्वेष आदि के कारण या इन्द्रियों में किसी प्रकार की विकलता होने के कारण जो मन तथा शरीर में ताप या पीड़ा होती है उसको आध्यात्मिक दुःख कहते है। आध्यात्मिक दुःख दो प्रकार के होते है शारीरिक और मानसिक शारीरिक रोग जैसे कब्ज, ज्वर, अस्थमा आदि। मानसिक रोग जैसे तनाव, अवसाद, चिन्ता आदि। इन सभी रोगो को आध्यात्मिक दुःख कहा जाता है।
आधिभौतिक दुःख
- मनुष्य, पशु, पक्षी, सिंह, मच्छर और अन्य जीवो के कारण होने वाली पीड़ा को आधिभौतिक दुःख कहते है।
आधिदैविक दुःख
- सर्दी, अत्यधिक गर्मी, आँधी तूफान, भूकम्प, बिजली आदि दैवी कारणों से होने वाली पीड़ा को आदिदैविक दुःख कहते है।
दौर्मनस्य
- इच्छा पूर्ति न होने के कारण जो मन में क्षोभ उत्पन्न हो जाता है, वह दौर्मनस्य है। अर्थात अपने स्वार्थ की पूर्ति ना होने पर मन में क्षोभ उत्पन्न होता है। मन में दुःख होता है। इस विघ्न के उपस्थित होने पर साधक की योग के साधनो के प्रति प्रवृत्ति नही होती।
योग भाष्य के अनुसार
'दौर्मनस्यमिच्छाविधाताच्चेतसः क्षोभः ।'
- अर्थात इच्छा के पूर्ण ना होने से चित्त का क्षुब्ध होना दौर्मनस्य है । क्षुब्ध चित्त साधना में प्रवृत नही हो पाता है। जिस कारण वह साधक साधना बीच में ही छोड़ बैठता है। यह दौर्मन्य योग साधना में सबसे बड़ा विघ्न है, विक्षेप सहभुवः है।
अंगमेजयत्व
- व्यास भाष्य के अनुसार 'यदड़ गान्येजयति कम्पयति तदड़. - गमेजयत्वम् ।' अर्थात जो अंगो को कम्पित करता है, वह अंगमेजयत्व है। शरीर में वात व्याधि के कारण शरीर में कम्पन होना ही अंग मेजयत्व है। अंग के कम्पन होने से योग साधना में बाधा उत्पन्न होती है। जो कि एक विघ्न है, अन्तराय है।
श्वास -
महर्षि व्यास ने श्वास का वर्णन इस प्रकार किया है
प्राणो यद् वाहयं - वायुमाचामति स श्वासः ।'
- अर्थात जो वाह्रय वायु का नासिका द्वारा आचमन (पान) किया जाता है, वह श्वास कहलाता है। जब साधक की श्वास क्रिया पर नियन्त्रण नही हो पाता है तो उस स्थिति में बाहर की वायु का नासिका मार्ग में स्वतः ही प्रवेश हो जाता है। जिससे कुम्भक क्रिया में विघ्न हो जाता है। इस प्रकार का विध्न योग साधना में बाधा डालता है। अतः यह श्वास नामक उपविघ्न के रूप में लिया गया है।
प्रश्वास
- प्रश्वास का वर्णन योग व्यास भाष्य में इस प्रकार किया गया है. 'थत्कौष्ठ्यं वायुं निः सारयति स प्रश्वासः । अर्थात् जो कोष्ठ (उदर) की वायु को बाहर निकालना है, वह प्रश्वास है। जो प्राण भीतर की वायु को बाहर निकालता है, वही प्रश्वास है। यह श्वास प्रश्वास की क्रिया निरन्तर चलती ही रहती हैं। श्वास प्रश्वास की यह गति स्वभाविक होती है। परन्तु अस्थमा आदि रोगो के कारण श्वास - प्रश्वास का अत्यन्त वेग से आना जाना योग साधना में बाधा उत्पन्न करता है क्योंकि रोग की अवस्था में श्वास प्रश्वास साधक की इच्छा के विपरीत हो जाती है। जो साधक को प्राणायाम के अभ्यास (पूरक, रेचक, कुम्भक) में बाधा उत्पन्न करते है। इस प्रकार श्वास व प्रश्वास अलग - अलग रूप से योग साधना में विघ्न है, अन्तराय है।
- इस प्रकार योग साधना में पग-पग पर साधक को विविधि प्रकार के अवरोधो का सामना करना पड़ता है। पथ की विषमता के कारण ही योग मार्ग को अत्यन्त दुर्गम बताया गया है। इसी विषमता के कारण ही साधक कई बार इसमें असफल होता है। साधना के पथ पर असफल होने के बाद भी पुनः दृढ़ संकल्प से उठकर श्रद्धा पूर्वक फिर प्रसन्नता से आगे बढ़ता है। । महर्षि पतंजलि ने बताया कि योग पथ की साधना कठिन है। जिस साधना में अनेको विघ्न अन्तराय है, अतः इन विघ्नों के शमन के लिए एक तत्व के अभ्यास का वर्णन किया है।
'तत प्रतिषेधार्थ मेकतत्वाभ्यासः । पा० यो० सू० 1 / 32
- अर्थात उक्त योगान्तरायो के निराकरण के लिए साधक को एक तत्व का अभ्यास करना चाहिए। एक तत्व के अभ्यास से तात्पर्य ईश्वर के स्मरण से है। अर्थात ईश्वर का चिन्तन विघ्न बाधाओ का शमन कर साधना पथ का मार्ग प्रशस्त करता है। एक तत्व का अभ्यास एक साधक, एक भक्त के लिए सहज ही होता है। भक्त के जीवन में एक तत्व उसके अराध्य होते है। उसका हृदय अपने भगवान का स्मरण नित्य प्रति करता है। अपने ईष्ट के प्रति उसकी भावनाएँ इतनी प्रबल होती है कि उसका अभ्यास निरन्तर होता ही रहता है, उसे करना नही पड़ता है। इसके उदाहरण अनेक है जैसे मीरा, ध्रुव, प्रहलाद आदि । मीरा अनेको विघ्न बाधाओ को पार कर अपनी साधना अनवरत करती रही उसी ईश्वर के निरन्तर चिन्तन व साधना से उसकी जीवनी शक्ति इतनी प्रबल हो गयी थी कि उसे विष का कोई असर नही हुआ था।
इस प्रकार प्रिय विद्यार्थियो उस ईश्वरीय चिन्तन, मनन, ईश्वर प्राणिधान के द्वारा समस्त विघ्नो पर विजय पाया जा सकता है। तथा अपने चित्त को प्रसन्न रखा जा सकता है। चित्त को स्वच्छ कर समाधि की सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। अब आपके मन में चित्त को प्रसन्न व स्वच्छ किस प्रकार किया जा सकता है, यह प्रश्न उठ रहे होगे। आप जानना चाहेगे कि-
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- चित्त प्रसादन क्या है?
- चित्त को प्रसन्न व स्वच्छ किस प्रकार रखा जा सकता है।
- चित्त प्रसादन के उपाय कौन से है?
- क्या समाधि की सिद्धि के लिए चित्त का स्वच्छ होना आवश्यक है ? आगामी पृष्टो का अध्ययन करने के बाद आप निश्चित ही उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर दे सकने में समर्थ हो सकेंगे।