महर्षि पतंजलि :वैराग्य क्या है?, वैराग्य का वर्णन , वैराग्य के भेद (प्रकार)
वैराग्य क्या है?, वैराग्य का वर्णन
प्रिय विद्यार्थियों महर्षि पतंजलि ने चित्त की वृत्तियों के निरोधापाय के रूप मे अभ्यास व वैराग्य का वर्णन किया है। इससे पूर्व आपने अभ्यास का अध्ययन किया। अब आप दूसरा साधन वैराग्य का अध्ययन करेगे। अभ्यास की पूर्णता के लिए वैराग्य साधना की अति आवश्यकता होती है। वैराग्य अर्थात बिना राग के अर्थात यदि साधक साधना में सफलता चाहता है, तो सांसारिक माया मोह आसक्ति उसकी साधना में बाधक बनते है। जब तक आसक्ति रहेगी साधना सफल नही हो सकती है। आत्मिक जागृति एवं आध्यात्मिक उपलब्धि की प्राप्ति का एक ही सशक्त उपाय है वैराग्य ।
वैराग्य क्या है?
वैराग्य अर्थात बिना राग। वैराग्य का जन्म विवेक के द्वारा होता है। विवेक का अर्थ है उचित-अनुचित का ज्ञान, सही गलत की समझ, अविनाशी तत्व व नाशवान का बोध, असत्य और सत्य की पहचान । जिसे इसका ज्ञान हो जाये, विवेक ज्ञान प्राप्त हो जाए, उसी साधक का वैराग्य सधता है।
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में स्पष्ट कहा है-
"ये हि संस्पर्शजाभोगा दुःखयोनय एव ते
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ।।" गीता 5 / 22
- अर्थात इन्द्रियों के स्पर्श से अनुभव होने वाले जो भी भोग है, वे सभी दुःख देने वाले है। ये सभी आदि अन्तः वाले है, नाशवान है। इसलिए विवेकवान पुरूष इनमें नही रमते है। अर्थात जो विवेकवान पुरूष हैं, वही विषय भोगो से दूर रहेगा। इस प्रकार वैराग्य का उदय विवेकज्ञान से होता है। क्योकि भोग यदि लौकिक हो अथवा अलौकिक सभी निरर्थक है। अर्थ यदि है तो केवल आत्मतत्व का है। इस आत्मतत्व साधना के लिए अभ्यास व वैराग्य का होना आवश्यक है। अतः वैराग्य के लिए सांसारिक दुःखो का बारम्बार चिन्तन कर वैराग्य साधा जा सकता है। जैसे गौतम बुद्ध ने सभी राजसी सुखो को त्याग कर यही निष्कर्ष निकाला कि सब्बं दुक्खम्' यह सब दुःख ही है। वैराग्य की सच्ची - साधना यही है।
वैराग्य के भेद (प्रकार)
प्रिय विद्यार्थियो महर्षि पतंजलि ने वैराग्य के दो प्रकार के भेद बताये है
- अपर वैराग्य
- पर वैराग्य
वशीकार अथवा अपर वैराग्य
वैराग्य का वर्णन योग सूत्र में इस प्रकार से है
"दृष्टानुश्रविक विषयवितृष्णस्य वशीकार संज्ञावैराग्यम् ।' पा० यो० सू० 1 / 15
अर्थात देखे हुए तथा सुने हुए विषयों में जो पूर्ण रूपेण तृष्णा रहित चित्त की वशीकार नामक संज्ञा ही वैराग्य है। उपरोक्त सूत्र में महर्षि पतंजलि ने विषय को दो श्रेणियों में विभाजित किया है-
1. दृष्ट
2. आनुश्रविक
दृष्ट विषय -
- दृष्ट विषय उन्हें कहते है जो इस जगत में हम स्वयं देखते है या दिखाई देते है। जैसे धन सम्पदा, ऐश्वर्य, रूप, रस, गन्ध आदि ,
आनुश्रविक विषय -
- आनुश्रविक विषय उन्हें कहते हैं जो महा पुरुषों व पुराण, उपनिषद शास्त्रो द्वारा सुने गये हैं। जैसे- स्वर्गलोक दिव्यलोक की प्राप्ति आदि इस प्रकार वह स्थिति जिसमे मनुष्य को सुने गये तथा देखे गये विषयो के प्रति कोई भी आसक्ति नही रहती है। इस स्थिति में दोनो विषयो के प्रति कोई भी विकार चित्त में नहीं रहता है। उस स्थिति को वशीकार नामक वैराग्य कहा जाता है। इसे ही अपर वैराग्य कहते है।
पर वैराग्य
पर वैराग्य का वर्णन महर्षि पतंजलि ने इस प्रकार किया है-
'तत्परंपुरूषख्यातेर्गुणवैतृष्णयम् ।' -पा० यो० सू० 1/16
अर्थात
पुरूष के ज्ञान होने पर (आत्मज्ञान होने पर) प्रकृति के गुणो में तृष्णा का सर्वथा अभाव हो जाना 'परम वैराग्य' है। प्रिय विद्यार्थियो पुरुष (आत्मा) का ज्ञान हो जाने पर प्रकृति के गुणों के स्वरूप की जानकारी हो जाती है। जिससे प्रकृति के गुणो में तृष्णा का अभाव हो जाता है। जिसे पर वैराग्य कहा जाता है।
वैराग्य की यह अवस्था अति दुर्लभ अन्तः चेतना के परमात्मा में विलीन हो जाने पर यह अवस्था स्वयं ही प्रकट हो जाती है। जिसे पर वैराग्य कहते है। अन्तर्चेतना प्रभु में जब विलीन हो जाती है, तो विषय भोगो के प्रति कोई भी रूचि नही रह जाती है, आसक्ति नही रह जाती है। यही पर वैराग्य है ।
प्रिय विद्यार्थियों यह अवस्था कैसे प्राप्त हो या इस परम सिद्धि का भाव चेतना में कैसे अवतरण हो? इस प्रकार के प्रश्न आपके मन में उठ रहे होगे। आपकी जिज्ञासाओ का एक ही उत्तर है, प्रभु में प्रीति जिन साधको की ईश्वर के प्रति प्रीति है उनके चरणो में अनुरक्ति है, उन्हे वैराग्य की सिद्धि अपने आप ही मिल जाती है। भक्ति मार्ग से वैराग्य की सिद्धि सहज ही हो जाती है।