विवेकज्ञान विभूति लक्षण फल ,पांच प्रकार की सिद्धियां
विवेकज्ञान विभूति
- क्षण और क्रम के संयम करने से विवेकज्ञान विभूति उत्पन्न होती है।
यथा :- क्षणतत्क्रमयोः संयमाद्विवेकजं ज्ञानम् ।। ( पाoयो0सू० 3 / 52 )
अर्थात
जितने काल में एक परमाणु पलटा खाता है उसको क्षण कहते हैं और उसके अविच्छिन्न प्रवाह को क्रम कहते हैं। इनमें संयम करने पर विवेक अथार्त अनुभवसिद्ध ज्ञान उत्पन्न होता है। यही विवेकज्ञान विभूति कहलाती हैं।
विवेकज्ञान के लक्षण
दो परस्पर वस्तुओं के भेद का ज्ञान वस्तु की जाति जैसे - गाय, वस्तु का लक्षण जैसे गौ आकृति और वस्तु का देश अर्थात स्थान, इन तीनों के भेद से होता है। परन्तु जब जिन दो वस्तुओं में इन तीनों से भेद की उपलब्धि न हो सके तब उन एक जैसी प्रतीत होने वाली वस्तुओं के भेद को भी प्रत्यक्ष करा देने वाला ज्ञान ही "विवेकज्ञान' कहलाता है। यथा :-
जातिलक्षणदेशैरन्यतानवच्छेदात्तुल्ययोस्ततः प्रतिपत्तिः ।। (पाoयो0सू० 3 / 53 )
विवेकज्ञान का मुख्य फल
इस विवेकज्ञान के द्वारा समस्त विषयों का विषयक्रम आदि के बिना भी ज्ञान होता रहता है। अतः इस ज्ञान के द्वारा समस्त जागतिक पदार्थों के यथार्थ स्वरूप के कारण उनके प्रति वितृष्णा (वैराग्य) उत्पन्न हो जाती है। इसीलिए यह विवेकज्ञान संसार रूप सागर से पार कराने वाला बताया गया है।
यथा :-
तारकं सर्वविषयं सर्वथाविषयमक्रमं चेति विवेकजंज्ञानम् ।। (पा०यो0सू० 3 / 54)
योग साधक को उपरोक्तानुसार विभूतियों की प्राप्ति क्रमशः होती है। इन विभूतियों के द्वारा योग साधक को अपने जीवन सम्बन्धी आवश्यकताओं के लिए भी संसार अथवा सांसारिक जनों से सम्बन्ध रखने की आवश्यकता नहीं रहती, लेकिन यदि वह इन विभूतियों को प्राप्त करते ही तुष्ट होकर स्वयं को लोकोत्तर पुरूष समझने लगता है तो वे उसे समाधि भावना के मार्ग से पथभ्रष्ट कर देती हैं। इसीलिए महर्षि पतंजलि ने स्पष्ट किया है, यथा :-
ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः ।। (पाoयो0सू० 3 / 37 )
ये विभूतियां समधि में विघ्न एवं साधरण अवस्था में सिद्धियाँ है। अतः योगी को कभी भी इन सिद्धियों की अपेक्षा न कर समाधि साधना के लिए सदैव उन्मुख रहना चाहिए, क्योंकि योग के मार्ग में साधक जैसे-जैसे आगे बढ़ता है वैसे-वैसे बड़े-बड़े प्रलोभन दिव्य विषय और विभूतियों की प्राप्ति होने लगती है, परन्तु इनमें आसक्त न हो अपितु सावधानी बरतनी चाहिए।
यथा :- स्थान्युपनिमन्त्रणे संगस्मयाकरणं पुनरनिष्टप्रसंगात् ।। (पाoयो0सू० 3 / 51 )
अतः सतर्कतापूर्वक योग मार्ग पर निरन्तर समाधि की भावना बनाए रखें कैवल्य प्राप्ति के लिए अभ्यस्त बने रहना चाहिए। हुए उपरोक्त विभूतियों के अतिरिक्त महर्षि पतंजलि ने
कैवल्य पाद के प्रारम्भ में ही पांच प्रकार की सिद्धियां और बतायी है जो निम्नानुसार
जन्मजा सिद्धि
इस सिद्धि में चित्त जन्म से ही ऐसी योग्यता को प्राप्त किये रहते हैं, जैसे पक्षियों का आकाश में उड़ना एवं महर्षि कपिल आदि ऋषियों का पूर्व जन्म के पुण्यों के प्रभाव से जन्म से ही सांसिद्धिक ज्ञान का उत्पन्न होना।
औषधजा सिद्धि
यह सिद्धि औषधि आदि के सेवन द्वारा चित्त में सात्त्विक परिणाम से होती है। जैसे : औषधि एवं रसायन आदि के द्वारा कायाकल्प करके शरीर को पुनः युवा बना लेना ।
मन्त्रजा सिद्धि
मन्त्र द्वारा चित्त में एकाग्रता का परिणाम होने पर इस सिद्धि की प्राप्ति होती है।
यथा :- स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः ।। (पाoयो०सू० / 44 )
स्वाध्याय से इष्टदेवता की प्राप्ति ।
तपोजा सिद्धि
तप के प्रभाव से चित्त की अशुद्धियां दूर होने से शरीर और इन्द्रियों की शुद्धि एवं सिद्धि होती है,
यथा : कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपसः ।। (पाoयोoसू0 2 / 43 )
समाधिजा सिद्धि
समाधि से ही अनेक प्रकार की विभूतियों की उपलब्धि होती है । इस प्रकार स्पष्ट है कि कैवल्य प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर साधक को अनेक प्रकार शक्ति सम्मत विभूतियों की उपलब्ध होती है लेकिन कैवल्यमार्गी की इन समस्त विभुतियों में वैराग्य की प्रवृत्ति होनी चाहिए।