महर्षि पतंजलि योगदर्शन : यम क्या है यम का स्वरूप संख्या यम के प्रकार और उनका वर्णन
यम का स्वरूप
प्रिय विद्यार्थियों अष्टांग योग का प्रथम अंग
यह है, यह यम ही योग की आधारशिला है, यह यम ही मनुष्य के व्यवहार की शुद्धि करते हैं
तथा मनुष्य के अन्दर दिव्य गुणों का समावेश करते है, यम बर्हिमुखता से अन्तर्मुखता में प्रवेश है। यम से सामाजिक गुणों
में वृद्धि होती है, यम के अभ्यास से जीवन पवित्र व सात्विक
बन जाता है। यम के विषय में विभिन्न ग्रंथों व उपनिषदों में इस प्रकार प्रकाश डाला
गया है।
तेजबिंदू उपनिषद के अनुसार
सर्व ब्रह्मेतिवै ज्ञानादिन्द्रियज्ञानसंयमः ।
यमोऽयमिति सम्प्रोक्तोडभ्यसनीयो मुहुमुंहुः ।। (तेजबिन्दू 1 /17)
अर्थात सर्वब्रह्मा का ज्ञान हो जाने से होने वाला इन्द्रिय समूह का संयम ही यम कहलाता है।
त्रिषिखिब्राह्मणोपनिषद के अनुसार-
"देहेन्द्रियेषु वैराग्यं यम इत्युच्यते बुधैः
।" (त्रिषिखिब्राह्मणोपनिषद 2/28)
यम शरीर और इन्द्रियों में वैराग्य की स्थिति है, ऐसा बुद्धिमान लोग मानते है।
यम शब्द का अर्थ अष्टाध्यायी 3 / 3 / 63 में इस प्रकार से है अर्थात उपरम का साधन -
- ‘यम उपरमे'
अर्थात जो निषिद्ध कार्यों से मुक्ति दिलाते यम कहलाते हैं।
योग सुधा के अनुसार-
"हिंसादिभ्यो निषिद्धकर्मभ्यो योगिनंयमयन्ति निवर्तयन्तीति यमाः । (योग सुधा 2/30)
दूसरे
शब्दों में यम शब्द का अर्थ नियमन करना भी है, अर्थात
जिनसे चित्त पर नियंत्रण किया जा सके वही यम हैं।
यम की संख्या
प्रिय विद्यार्थियों यम की संख्या के विषय में प्राचीन आचार्यो के दो मत हैं। एक मत के अनुसार यमों की संख्या 10 है। विभिन्न उपनिषदों में 10 यमों का वर्णन मिलता है जिनमें शाण्डिल्योपनिषद, त्रिषिखिब्राह्मणोपनिषद, दर्षनोपनिषद तथा बराहोपनिषद आदि है - -
विभिन्न उपनिषदों में यमों का वर्णन इस प्रकार
से है
अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्य दयार्जवम्
क्षमाधृतिर्मिताहारः शौचं चेति यमा दषा।।
अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, दया, आर्जव, क्षमा, मिताहार और शौच ये 10 यम हैं।
दूसरे मत के अनुसार यमों की संख्या पाँच है-
इनमें महर्षि पतंजलि कृत पातंजल योगदर्षन में पाँच यमों को स्वीकार किया गया है।
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहायमाः । ( 2 / 30 )
अर्थात अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच यम है।
यम के प्रकार
प्रिय विद्यार्थियों महर्षि पतंजलि ने योगदर्षन
में पाँच यमों का वर्णन किया है- यम वस्तुतः हमारे व्यवहार को परिष्कृत करता है, यम के माध्यम से हम व्यवहार को परिष्कृत कर
पाने में समर्थ होते है। हमारा व्यवहार जब शुद्ध, सरल होता है,
तभी चित्त को एकाग्र करने में समर्थ हो
सकते है। इसलिए महर्षि पतंजलि ने साधना में प्रवेश से पहले व्यवहार को परिष्कृत
करने की शिक्षा दी है यम अष्टांग योग की प्रथम सीढ़ी है। जिसके द्वारा हम व्यवहार
को शुद्ध कर साधना में प्रवृत्त हो सकते है।
प्रिय विद्यार्थियों यह यम निम्न प्रकार से है पातंजल योग के अनुसार 2 / 30 में यम का वर्णन है
1 अहिंसा
- अहिंसा का शाब्दिक अर्थ है हिंसा का अभाव अर्थात मन, वचन, कर्म से किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार से दुःख नहीं देना, किसी भी प्राणी का अपमान न करना, उन्हें कष्ट ना देना किसी से द्वेष भाव ना रखना।
महर्षि पतंजलि ने अहिंसा का वर्णन करते हुए लिखा है
विर्तर्काहिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभ क्रोधमोहपूर्वका
मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्ष - भावनम् ।। ( 2 / 34)
अर्थात यम और नियम के विरोधी हिंसा आदि भाव विर्तक कहलाते है, इस प्रकार हिंसा तीन प्रकार की होती है।
- कृत - स्वयं की हुयी
- कारित – आज्ञा देकर करवायी हुयी
- अनुमोदित - अनुमोदन की हुई अन्य के करने पर समर्थन करना।
इस प्रकार तीनों प्रकार की हिंसा का अभाव ही अहिंसा है।
इन तीनों प्रकार की हिंसा के कारण लोभ और मोह है। ये छोटे, मध्यम और अधिक मात्रा में भेद वाले है, ये दुःख और अज्ञान रूप है। क्योंकि इनका फल कई जन्मों तक भुगतना पड़ेगा। ये मनुष्य को दुःख देने वाले है, ऐसी प्रतिपक्ष की भावना करके इनसे दूर रहा जा सकता है। प्रिय विद्यार्थियों विभिन्न वैदिक संहिताओं में अहिंसा को तीन भागों में विभक्त किया गया है।
1. मानसिक अहिंसा
2. वाचिक अहिंसा
3. शारीरिक अहिंसा
1. मानसिक अहिंसा -
- मन वचन और कर्म से हिंसा का त्याग करना ही अहिंसा है। हिंसा आदि भाव का मुख्य केन्द्र बुद्धि ही है, बुद्धि ही भले व बुरे का निर्णय करती है। तथा वचन व कर्म में मन को प्रवृत्त करती है। मन से किसी के प्रति द्वेष भाव, कुविचार, व किसी भी प्रकार घृणा भाव रखना भी एक प्रकार की हिंसा ही है। इस प्रकार कुविचार, द्वेष, हिंसा, ईर्ष्या आदि भावों को त्याग देना ही मानसिक अहिंसा है।
- बुद्धि द्वारा किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार का कष्ट ना देना बौद्धिक या मानसिक अहिंसा है। आत्मवत् सर्वभूतेषू का भाव ही पूर्ण रूप से अहिंसा है।
2. वाचिक अहिंसा
- वाचिक हिंसा से तात्पर्य वाणी द्वारा की जाने वाली हिंसा, - वाचिक हिंसा कई प्रकार से की जा सकती है। जैसे- वाणी द्वारा अपशब्द कहना, कटु वचनों से किसी का अपमान करना, किसी को मारने का निर्देश देना, किसी को अनिष्ट करने के लिए प्रोत्साहित करना आदि वाचिक हिंसा है। इन सभी कृत्यों का अभाव ही अहिंसा है। जैसा कि कहा गया है कि किसी शस्त्र से प्राप्त घाव भर जाते है, कटे हुए वन भी हरे भरे हो जाते हैं। परन्तु कठोर वाणी से दिये गये घाव जीवन पर्यन्त नहीं भरते है ।
- अतः साधक को कटु वचनों का त्याग करना चाहिए, मधुर वचन बोलने चाहिए, यथा समयानुसार मौन साधना करनी चाहिए, जिससे वाचिक हिंसा पर नियन्त्रण किया जा सके।
3. शारीरिक अहिंसा
मानसिक हिंसा व वाचिक हिंसा के
अभ्यास हो जाने पर शारीरिक हिंसा स्वयं ही रूक जाती है, शारीरिक हिंसा से तात्पर्य है, जीव हिंसा करना, अर्थ आदि की प्राप्ति के लिए हिंसा करना, स्वाद के वशीभूत होकर जीव हत्या कर भक्षण करना, आत्म रक्षा के लिए हत्या करना आदि,
जैसा कि मनुस्मृति में कहा गया है -
यो ऽहिंसकानि भूतानि हिनसयात्म सुखेच्छया
स जीवंश्च मृतश्चैवं न क्वचित्सुखमेधते ।। ( मनु 5 - 45)
अर्थात
जो मनुष्य आत्मसुख के लिए हिंसा
ना करने वाले जीवों का वध करता है। वह मनुष्य किसी भी जन्म में सुख नहीं पा सकता
है। क्योंकि जब मनुष्य के पैर में सिर्फ काँटा चुभ जाता है तब उसे कितना कष्ट होता
है। इसी प्रकार जब किसी जीव को मारा जाता है तो उस जीव को कितना कष्ट होता होगा यह
सहज ही अनुभव किया जा सकता है।
अतः प्रिय विद्यार्थियों उपरोक्त तथ्यों से
स्पष्ट है कि सभी मानसिक,
वाचिक, शारीरिक तीनों प्रकार की हिंसा का अभाव ही अहिंसा है।
अहिंसा का फल -
प्रिय विद्यार्थियों महर्षि
पतंजलि के अनुसार जो साधक इन तीनों प्रकार की हिंसा का त्याग कर देता है, मन, वचन, कर्म से अहिंसा का पालन करता है उसे निम्न लाभ
प्राप्त होता है -
"अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैर त्यागः
।" (पाoयो0सू०
2 / 35 )
अर्थात
‘अहिंसा' की दृढ़ स्थिति हो जाने पर उस योगी के समीप सभी प्राणी हिंसा का त्याग, वैर का त्याग कर देते हैं। अहिंसा का फल इस प्रकार प्राप्त होता है कि जो प्राणी इस अहिंसा व्रत का पालन करता है, उस मनुष्य से सभी प्राणी प्रेम करने लगते हैं। कितना भी हिंसक प्राणी हो वह वैर का त्याग कर देता है।
2 सत्य -
सत्य का अर्थ है मन, वचन, कर्म
में एकरूपता । अर्थात मन और वाणी का व्यवहार अर्थ के अनुकूल होना। व्यवहारिक जगत
में जो भी कोई विषय है उसे मन, बुद्धि, इन्द्रियों से जिस रूप से जाना या समझा जाए उसे
ठीक वैसा ही दूसरों से प्रकट करना सत्य है। जैसा कि शास्त्रों में कहा गया है -
"सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न सत्यम्
प्रियम् ।
अर्थात सदा सत्य ही बोलना चाहिए। ऐसा वचन नहीं बोलने चाहिए जो सुनने में अप्रिय हो ।
वषिष्ठ संहिता में कहा गया है -
'सत्यं भूतहितं प्रोक्तं न्याययर्थाभि भाषणम्
अर्थात प्राणी मात्र का हित करना और यर्थात सत्य वाणी का प्रयोग करना यही सत्य है।
शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है
अमेध्य वै पुरुषो यदनृतं वदन्ति
अर्थात असत्य भाषण करने वाला अपवित्र कहलाता है। वह कभी पवित्र नहीं बन सकता है।
शास्त्रों में कहा गया है असत्य भाषण करने से मनुष्य का तेज नष्ट हो जाता है, उसको हमेशा भय रहता है। इच्छा शक्ति प्रबल नहीं रह पाती है। क्योंकि जैसा कि कहा गया है 'सत्यमेव जयते नानृतम्' अर्थात् अन्त में सत्य की ही विजय होती है, असत्य की नहीं। प्रिय विद्यार्थियों जैसा कि वेदों में स्पष्ट है कि योग के साधक को सत्य का तीन प्रकार से पालन करना चाहिए - मानसिक सत्य, वाचिक सत्य, कायिक सत्य ।
सत्य का तीन प्रकार से पालन करना चाहिए
मानसिक सत्य राग -
- द्वेष, क्रोध, लोभ, काम आदि से रहित हुए मन से निश्चय करके उसे वाणी से व्यवहार में लाना मानसिक सत्य है। मानसिक सत्य का सबसे अधिक महत्व स्वीकार किया गया है।
- ऋग्वेद में मानसिक सत्य के महत्व का वर्णन करते हुए कहा है जो साधक मन के अनुसार वाणी का व्यवहार करता है। व अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार सत्य के मार्ग पर चल कर योग मार्ग में प्रवृत्त होने वाले साधक की परमात्मा रक्षा करता है, उसके स्वभाव में प्रेरणा, धर्मयुक्त गुण एवं शारीरिक व आत्मिक बल प्रदान कर उसे मोक्ष प्राप्त कराता है। ऋग्वेद - 6/15/11 ) -
वाचिक सत्य
- अहंकार और क्रोध के वशीभूत बोले जाने वाले असत्य व कटु - वचनों का त्याग तथा प्रिय एवं मधुर सत्य बोलना वाचिक सत्य है। वेदों में वर्णन किया गया है कि वाणी से सत्य भाषण करने पर अमोघ शक्ति प्राप्त होती है। तथा सत्य भाषण ही ब्रह्म प्राप्ति में सहायक है।
कायिक सत्य -
- मन तथा वाणी के अनुरूप सत्य का आचरण करना कायिक सत्य कहा जाता है, अर्थात शरीर के द्वारा सत्य धर्मयुक्त कार्यो को करना, सत्य को जीवन में, स्वभाव में उतारना, यही कायिक सत्य है ।
सत्य का फल -
प्रिय विद्यार्थियों महर्षि पतंजलि के अनुसार जो साधक इन तीनों प्रकार (मानसिक, वाचिक, कायिक) से सत्य का पालन करता है, अर्थात मन, वचन, कर्म से सत्य का पालन करता है, तो उसे निम्न लाभ प्राप्त होता है -
सत्यं प्रतिष्ठायां क्रियाफलाऽऽश्रयत्वम्। (पाoयो0सू०
2 / 36 )
अर्थात सत्य की प्रतिष्ठा होने पर उस योगी में क्रिया फल के आश्रय का भाव आ जाता है, अर्थात उस योगी की वाणी में ऐसी अमोघ शक्ति आ जाती है, वह जो कहता है वह हो जाता है।
महर्षि व्यास जी ने सत्य के फल का वर्णन इस प्रकार किया है
"अमोघास्य वाग्भवति”
अर्थात सत्य प्रतिष्ठित व्यक्ति का वाक्य अमोघ होता है। प्रिय विद्यार्थियों जैसा कि स्पष्ट है कि सत्य की महत्ता अनंत होती है, साधक सत्य के बल पर सब कुछ प्राप्त कर सकता है, वह जो कुछ भी कहता है, सत्य हो जाता है, वह किसी को श्राप या आर्शीवाद जो भी देता है, वह फलित हो जाता है।
अस्तेय -
यम का तीसरा अंग अस्तेय है। स्तेय का शाब्दिक अर्थ है - अनाधिकृत पदार्थ को अपना लेना, तथा इसका बुद्धि वचन व कर्म से त्याग कर देना अस्तेय' है ।
शाण्डिल्योपनिषद में कहा गया है -
अस्तेयं नाम मनोवाक् कायकर्मभिः परद्रव्येशु निस्पृहता।"
- अर्थात मन, शरीर और वाणी से दूसरों के द्रव्य (वस्तु) की इच्छा न करना अस्तेय है
- योग के साधक को बौद्धिक अस्तेय, वाचिक अस्तेय तथा शारीरिक अस्तेय का पालन करना चाहिए।
बौद्धिक अस्तेय
- बौद्धिक अस्तेय से तात्पर्य 'परद्रव्येषु अनभिध्यानम्' अर्थात दूसरों के किसी भी भौतिक सुख सम्पदा, पदार्थों की ओर ध्यान न देना, अथवा दूसरे के किसी भी द्रव्य (अन्न, वस्त्र, सम्पत्ति, विद्या आदि) किसी भी पदार्थ को प्राप्त करने की ईच्छा उत्पन्न ना होना। वह पदार्थ जो हम स्वयं पुरुषार्थ से प्राप्त ना किये हो अथवा वह पदार्थ हमें किसी ने उपहार या पुरस्कार स्वरूप ना दिया हो।
- इस प्रकार जो साधक चोरी या पर द्रव्य हरण का विचार भी मन से हटा देता है तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह, तृष्णा, आदि के वशीभूत नहीं होता है। इस तरह का विचार उसके वचन और कर्म में नहीं आता है। यही बौद्धिक अस्तेय है।
वाचिक अस्तेय
- वचनों द्वारा किसी को चोरी व गलत कार्यों में प्रवृत्त न करना वाचिक अस्तेय है। स्वयं गलत कार्य ना करना, व दूसरों को किसी भी विषय या वस्तु के मोह में फँसाकर चोरी करा देना वाचिक स्तेय है।
- किसी के प्रश्न पूछने पर प्रश्न का अधूरा उत्तर देकर टाल देना, जैसा देखा, सुना उसे वैसा ना कह कर अन्य रूप में प्रकट करना वाणी का स्तेय है।
- जैसा देखा, सुना, जाना व समझा उसे वैसा ही प्रकट कर देना वाणी का अस्तेय है। प्रिय विद्यार्थियों वाचिक अस्तेय का पालन करने के लिए मौन व्रत अति सहायक होता है।
शारीरिक अस्तेय
- शरीर द्वारा किसी के पदार्थ की चोरी लूट आदि न करना तथा न दूसरे से न कराना यह शारीरिक अस्तेय है।
जैसा कि व्यास भाष्य में महर्षि व्यास का कथन है
स्तेयमषस्त्रपूर्वकं द्रव्याणां परतः स्वीकरणं तत्प्रतिषेध ।
पुनरस्पृहारूपमस्तेयमिति
।। ( यो० व्यास भाष्य 2 /
30 )
अर्थात
शास्त्र निषिद्ध रीति से दूसरे के
द्रव्यों का लेना स्तेय है तथा इसके विपरीत उन दूसरों की वस्तुओं में किसी प्रकार
का राग ना होना, पर द्रव्य में राग का प्रतिशोध ही
अस्तेय है।
अस्तेय का फल -
प्रिय विद्यार्थियों जो साधक
तीनों प्रकार के अस्तेय का पालन करता है, उन्हें
सभी प्रकार के रत्न प्राप्त होते है जैसा कि पातंजल योगसूत्र में वर्णन किया गया
है
" अस्तेय प्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्"
।। ( पाoयो0सू०
2 / 37 )
अर्थात
अस्तेय की प्रतिष्ठा होने पर सभी प्रकार के द्रव्य पदार्थ रत्न आदि प्राप्त हो जाते है। उस मनुष्य को किसी भी प्रकार के धन, रत्न का अभाव नहीं रहता है। अर्थात अस्तेय की पूर्ण प्रतिष्ठा होने पर साधक को संसार के सभी ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।
4 ब्रह्मचर्य -
यम का चौथा अंग ब्रह्मचर्य है।
ब्रह्मचर्य अर्थात ब्रह्म में रमण करना, अर्थात
ऐसा आचरण किया जाए जिससे ईश्वर की समीपता अधिक से अधिक प्राप्त हो सके।
शास्त्रों में कहा गया है
'वीर्य धारणं ब्रह्मचर्यम् ।
अर्थात शरीरस्थ वीर्य शक्ति की अविचल रूप में
रक्षा करना ब्रह्मचर्य है
भाष्कार महर्षि व्यास के अनुसार
"ब्रह्मचर्य गुप्तेन्द्रियस्योपस्थस्य संयम ।”
अर्थात गुप्त इन्द्रिय (उपस्थेन्द्रिय) के संयम
का ब्रह्मचर्य है ।
याज्ञवल्क्य संहिता में ब्रह्मचर्य का वर्णन इस प्रकार से है
कर्मण मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा ।
सर्वत्र मैथुन त्यागो ब्रह्मचर्य प्रचक्षते ।।
( याज्ञवल्क्य संहिता)
अर्थात
योगी को मन, वचन तथा कर्म से सर्वथा मैथुन का त्याग कर देना चाहिए क्योंकि मन, वाणी तथा कर्म से मैथुन की इच्छा का परित्याग ही वास्तविक ब्रह्मचर्य है।
शास्त्रों में कहा गया है
'न तपस्तप इत्याहुब्रह्मचर्य तपोन्यात्मम् ।
ऊर्द्धरेता भवेद्रयस्तु सो देवो न तु मानुषः ।।
ब्रह्मचर्य रूप तप से बढ़कर कोई तप नहीं है, वही सबसे श्रेष्ठ तथा सर्वोत्तम तप है। जो
मनुष्य ब्रह्मचर्य रूपी तप से उर्ध्वरेता बन जाते हैं वे मनुष्य होने पर भी देवता
ही है।
ब्रह्मचर्य का फल
ब्रह्मचर्य के फल का वर्णन पातंजल योगसूत्र में इस प्रकार से है।
ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां वीर्यलाभः ( पाoयो०सूत्र 2 / 38)
अर्थात ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा होने पर साधक को सामर्थ्य लाभ प्राप्त होता है, अर्थात साधक को तेज व ओज की प्राप्ति होती है। शरीर में अपरिमित शक्ति सामर्थ्य की प्राप्ति होती है।
5 अपरिग्रह-
महर्षि पतंजलि ने अपरिग्रह को पंचम
यम के रूप में लिया है। प्रिय विद्यार्थियों संचय वृत्ति का त्याग अपरिग्रह है।
अपरिग्रह अर्थात आवश्यकता से अधिक धन का संग्रह ना करना अर्थात जीविकोपार्जन के लिए ही संग्रह करना।
भाष्यकार व्यास ने वर्णन किया है -
विषयाणार्जन रक्षणक्षय सड़गहिंसादोष -
दर्षनादस्वीकरणपरिग्रहः । (योगoसू० 2 / 30)
अर्थात
ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रियों के विषयों के उपार्जन व संग्रह करने में तथा उनकी रक्षा करने में उनको स्थिर रखने में हिंसा तथा उनकी क्षीणता में होने वाले बौद्धिक कष्टों को देखकर उन पर विचार करके इन्हें बुद्धि, वचन, कर्म से स्वीकार ना करना अपरिग्रह है।
प्रिय विद्यार्थियों अपरिग्रह को भी तीनों प्रकार से समझा जा सकता है -
1. बौद्धिक अपरिग्रह -
- जब मनुष्य की बुद्धि गुण दोष का निर्णय कर इन विषयों के ग्रहण, रक्षण आदि में अकल्याण तथा हिंसा आदि पाप का निश्चय करती हैं, तथा उन्हें सर्वथा ग्रहण नहीं करती है तथा लोभ मोह, काम - क्रोध व भय ग्रस्त होकर किसी भी देश, काल दिशा अवस्था में भी विषयों को अस्वीकार कर देती है। यह बौद्धिक अपरिग्रह कहा जाता है, तथा विषयों का सेवन या उपभोग बौद्धिक परिग्रह है।
2. वाचिक अपरिग्रह
- वाणी पर संयम ही वाचिक अपरिग्रह है। जैसे असत्य भाषण, छलकपट कर कठोर वचनों को ना बोलना, किसी की निन्दा न करना, काम, क्रोध, लोभ, मोह के वशीभूत होकर आचरण करना, अधिक बोलना, सभी देश, काल जाति में वाणी का दुरूपयोग ना करना, 'वाचिक अपरिग्रह है। वाणी के द्वारा दूसरों को विषयों में प्रवृत्त करना, अनावश्यक याचना, किसी का उपहास करना आदि सभी वाणी का परिग्रह है। इसके विपरीत वाणी का अपरिग्रह मौन है।
3. शारीरिक अपरिग्रह
अपनी यर्थाथ आवश्यकता से अधिक धन, भूमि, वस्त्र आदि का उपार्जन तथा संग्रह ना करना शारीरिक अपरिग्रह कहलाता है। जैसा कि कहा गया है कि चारों आश्रम में अपरिग्रह का पूर्ण रूप से पालन किया जाए तथा अपनी निजी आवश्यकता को मनुष्य कम करें, उतनी ही सामग्री ग्रहण करे जितनी आवश्यक हो तो मनुष्य सुख से रह सकेगा। इसके लिए मनुष्य को लोभ - मोह तथा तृष्णा के वशीभूत होकर पदार्थों का संग्रह नहीं करे तथा दूसरे मनुष्यों के ऐश्वर्य को देखकर ईर्ष्या ना करें तथा किसी भी विशेष देश, काल, परिस्थिति में लोभ मोह से - ग्रसित होकर अधिक धन का संग्रह न करना ही शारीरिक अपरिग्रह है। अपरिग्रह का फल - महर्षि पतंजलि अपरिग्रह का फल बताते हुए स्पष्ट करते है कि -
"अपरिग्रहस्थैर्य जन्मकथन्तासंबोध" (पाoयो0सू०2 / 39)
अर्थात अपरिग्रह के दृढ़ प्रतिष्ठित हो जाने पर योगी को पूर्व जन्म में क्या थे ? की स्मृति हो जाती है, पूर्ण परिग्रह प्राप्त हो जाने पर जन्म वृतात का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। अर्थात पूर्व जन्म का तथा अगले जन्म में क्या होने वाला है ? इसका ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है।
स्पष्ट है कि परिग्रह को जब त्याग दिया जाता है
तब मन शुद्ध हो जाता है, और इससे पूर्व जन्म व अगले जन्म का
ज्ञान हो जाता है। अर्थात तीनों कालों में आत्मस्वरूप की जिज्ञासा निवृत्त हो जाती
है।