महर्षि पतंजलि ने योग सूत्र के अनुसार अभ्यास के साधन
अभ्यास के साधन
अभ्यास में दृढ़ता के उपायो का अध्ययन आपने किया। अब आपके मन में प्रश्न उठ रहे होंगे कि ये अभ्यास किसका किया जाए। जिनका अभ्यास करने से चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है।
प्रिय विद्यार्थियो अभ्यास के इन साधनों का वर्णन महर्षि पतंजलि ने योग सूत्र के अन्तर्गत किया है। ये साधन निम्न है -
एक तत्व का अभ्यास -
- महर्षि पतंजलि ने साधना के लिए एक तत्व का अभ्यास आवश्यक बताया है। मनुष्य साधना तभी कर सकता है, जब शरीर स्वस्थ हो । मनुष्य के शरीर में एक प्रकार से विद्युत प्रवाह चलता रहता हैं। जब इस प्रवाह में किसी प्रकार का अवरोध उत्पन्न होता है, तो मनुष्य साधना नही कर सकता हैं। इसी विद्युत प्रवाह को एकतत्व के अभ्यास के द्वारा सही किया जा सकता है। तथा शरीर को स्वस्थ रखा जा सकता सकता है। तभी मनुष्य साधना कर सकता है। चित्त की वृत्तियों को नियन्त्रित करने के लिए एक तत्व का अभ्यास करना चाहिये।
एक तत्व के अभ्यास का वर्णन महर्षि पतंजलि ने निम्न प्रकार से किया है-
'ततप्रतिषेधार्थमेकतत्वाभ्यासः ।' पा० यो० सू० 1 / 32
अर्थात साधना के मार्ग में आये विघ्नो को दूर करने के लिए एक तत्व का अभ्यास करना चाहिए। उस एकतत्व के अभ्यास के लिए एक ही तत्व 'ॐ का उच्चारण करना चाहिए। 'ऊँ' के उच्चारण से चित्त शान्त होता हैं।
प्रणव (ऊँकार) का उच्चारण
एक तत्व के अभ्यास के लिए महर्षि पतंजलि प्रणव का उच्चारण बताते हुए कहते है-
'तस्य वाचकः प्रणवः । पा० यो० सू० 1 / 27
अर्थात उस ईश्वर को ॐ नाम से जाना जाता है। महर्षि पतंजलि ने इस सूत्र में ऊँ ईश्वर व एकतत्व का नाम बताया हैं। उस एकतत्व या ईश्वर के वाचक ॐ का उच्चारण से साधना की सिद्धि होती हैं। इस ॐ में उतने ही रहस्य है, जितने प्रभु के नाम में हैं। जिसने ॐ को जान लिया, समझना चाहिए उसने प्रभु को पहचान लिया । वेद, पुराण, उपनिषद सभी में ऊँ की महिमा का वर्णन किया है। अतः ॐ के उच्चारण का अभ्यास करके चित्त की वृत्तियों को शान्त किया जा सकता है।
वीत राग पुरूष का ध्यान
महर्षि पतंजलि ने चित्त को शुद्ध करने के लिए अभ्यास के साधन के रूप में वीतराग पुरूष का ध्यान का वर्णन इस प्रकार किया है -
'वीतराग विषय वा चित्तम् ।' - पा० यो० सू० 1 /37
- अर्थात वीतराग को विषय करने वाला चित्त भी स्थिर हो जाता हैं। वीतराग से अभिप्राय वह पुरूष जिसके सभी राग, आसक्तियां, आकाक्षांए शान्त हो चुकी हों, जो पुरूष इनसे परे आ चुका हो, ऐसे पुरूष स्वयं महर्षि पतंजलि भी हैं। साथ ही उनकी परम्परा में अनेक ऋषि महर्षि बुद्ध पुरूष हैं, जिन्होने इस धरा को पावन किया है। इन ऋषियो में कुछ प्राचीन ऋषिगण है, तथा कुछ अवतार हुए है जैसे प्रभु श्री राम, भगवान श्री कृष्णा, बुद्ध, महावीर आदि सन्त आत्माएं है। आधुनिक युग के सिद्ध पुरुषों में श्री रामकृष्ण परमहंस, महर्षि अरविन्द, महर्षि रमण, स्वामी विवेकानन्द आदि हैं। इन सभी ने इस युग को अपनी तपस्या से, साधना से प्रकाशित किया, ये सभी वीतरागी पुरुष है।
प्रिय विद्यार्थियो वीतराग पुरूष का ध्यान करने से मनः स्थिति उन्ही की तरह होने लगती है। इस तरह वीतराग पुरूष का ध्यान करने से चित्त निर्मल होता है, स्थिर होता है, जो कि चित्त वृत्तियों के निरोध में सहायक है।
- प्रिय विद्यार्थियो महर्षि पतंजलि ने अभ्यास के साधन एक तत्व का अभ्यास ॐ का उच्चारण आदि बताया हैं। परन्तु इस ओऽम् के उच्चारण के लिए किसी भी ध्यानात्मक आसन में बैठना आवश्यक है। क्योकि चित्त की वृत्तियों को रोकने के लिए सर्वप्रथम शरीर को स्थिर करना आवश्यक है।
यदि शरीर को अधिक समय तक स्थिर अवस्था में बिना हिलाये डुलाये, मूर्ति के समान स्थिर रखा जाए तो विचारों का प्रवाह रूक जाता है। इसलिए प्रिय विद्यार्थियो वृत्तियो के इस प्रवाह को रोकने के लिए एक आसन में स्थिर होना पड़ता है। जिसका वर्णन निम्न है-
आसन का अभ्यास :
प्रिय विद्यार्थियो चित्त की वृत्तियों को रोकने के लिए आसन का अभ्यास जरूरी है। जिसका वर्णन महर्षि पतंजलि ने इस प्रकार किया है -
'स्थिरसुखमासनम्।' – पा० यो० सू० 2 / 46
अर्थात स्थिर व सुखपूर्वक जिसमें बैठा जा सके वह 'आसन' है। परन्तु चित्त वृत्ति निरोध के लिए ध्यानात्मक आसन में बैठना उचित है। क्योकि वृत्तियों के निरोध के लिए आसन में दीर्घ काल तक स्थिर रह कर अभ्यास की आवश्यकता है। यदि आसन पर स्थिरता का अभ्यास ना हो तो साधना में व्यवधान उत्पन्न हो जाता है। अतः ज्यो ज्यो - स्थिरता आती है, त्यो - त्यो वृत्तियाँ शान्त होने लगती है। चित्त शान्त होने लगता हैं।
प्राणायाम का अभ्यास -
प्रिय विद्यार्थियो महर्षि पतंजलि ने चित्त को वृत्तियों से रहित करने के लिए प्राणायाम का अभ्यास बताया है। जो निम्न है
'प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य ।' पा० यो० सू० 1 / 34
अर्थात प्राण को बारम्बार बाहर निकालने तथा बाहर रोकने के प्रयास से भी चित्त निर्मल होता है। इस सूत्र में प्राणायाम की प्रक्रिया मुख्यतः रेचक, कुम्भक (बाहृय कुम्भक) का वर्णन किया गया है। प्रच्छर्दन से तात्पर्य अन्दर स्थित वायु को प्रयत्न पूर्वक नासारन्ध्रो से बाहर छोड़ने की क्रिया से है, तथा विधारण छोड़ी गयी वायु को वहीं रोके रखने की प्रक्रिया को विधारणा कहते है। अतः इन दोनो प्रच्छर्दन और विधारण किया द्वारा प्राण का नियमन करने से चित्त शुद्ध होता हैं।