धारणा का स्वरूप,धारणा का अर्थ परिभाषा | धारणा के प्रकार | Yog Me Dharna Ka swaroop

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धारणा का स्वरूप,धारणा का अर्थ परिभाषा, धारणा के प्रकार 

धारणा का स्वरूप,धारणा का अर्थ  परिभाषा | धारणा के प्रकार | Yog Me Dharna Ka swaroop


धारणा का स्वरूप

 

महर्षि पतंजलि ने तृतीय पाद विभूति पाद केवल उत्तम अधिकारियों के लिए बताया गया है। जब साधक पूर्व के अभ्यासो पर दक्षता प्राप्त कर लेता है तभी साधक धारणा का अभ्यास कर सकता है। धारणा, ध्यान व समाधि एक मानसिक प्रक्रिया है जो कि अष्टांग योग के अन्तरंग साधन के रूप में आते है। धारणा अन्तरंग योग के प्रथम अभ्यास के रूप में वर्णित है। अष्टांग योग का छठा अंग धारणा है। धारणा वह है कि जब मन की चंचलता समाप्त हो जाए तथा नाभि, हृदय, नासिका के अग्रभाग या जीभ के अग्रभाग आदि देश में चित्त को ठहरा दिया जाए।

 

महर्षि पतंजलि ने धारणा का वर्णन करते हुए इस प्रकार वर्णन किया है-

 "देशबंधश्चित्तस्य धारणा ।" - पा० यो० सू० 3 / 1

 

अर्थात 

  • किसी एक देश में चित्त का ठहराना धारणा है। अर्थात चित्त की किसी एक देश (स्थान) में बाहर (सूर्य, चन्द्र कमल) अथवा शरीर के भीतर (हृदय कमल, भुकृटि, नाभि आदि) में ठहराना धारणा है।

 

  • इस सूत्र में धारणा की व्याख्या की गई है कि जब चित्त कर भटकाव समाप्त हो जाता है, तब वह पूर्णतया साधक के नियन्त्रण में आ जाता है। इसी चित्त शक्ति का उपयोग इस स्थिति से पहले संसार की उपलब्धियों तथा भोगो में हो रहा था । नियन्त्रित चित्त अब किसी एक स्थान पर अपनी इच्छानुसार केन्द्रित किया जा सकता है। वह स्थान शरीर के भीतर भुकृटि, नाभि, हृदय चक आदि हो सकते है, अथवा बाहृय स्थान सूर्य, गुरुमूर्ति, ध्रुव आदि हो सकते है। इन भिन्न-भिन्न स्थान पर चित्त को ठहरा देना ही धारणा है।

 

धारणा का अर्थ - 

  • धारणा शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत शब्द के 'धृ' से हुई है। जिसका अर्थ है-आधार या नींव इस प्रकार धारणा का अर्थ वह वस्तु या प्रत्यय जिस पर मन दृढ़तापूर्वक आधारित होता है।

 

  • योग में धारणा का यह अर्थ लिया गया है मन को किसी एक बिन्दु पर लगाये रखना या टिकाये रखना धारणा है।

 

धारणा की परिभाषा 

प्रिय विद्यार्थियों महर्षि पतंजलि ने धारणा को इस प्रकार परिभाषित किया है

 "देशबन्धश्चित्तस्य धारणा' । ( 3 / 1 ) 

अर्थात किसी एक देश में चित्त को ठहराना धारणा है। 

 

महर्षि व्यास ने धारणा का वर्णन इस प्रकार किया है -

 

"नाभिचके हृदयपुडण्रीके, मूर्ध्नि ज्योतिषि, नासिकाग्रे, जिहृवाग्रे

इत्येवमादिषु देशेषु वाहृये वा विषये चित्तस्य वृत्तिमात्रेण बन्ध इति धारणा ।"

 

अर्थात

नाभिचक, हृदय, पुण्डरीक, मूर्धाज्योति, नासिकाग्र, जिहृवाग्र इत्यादि देशों में (बन्ध होना) अथवा वाहृय विषयो में वृत्तिमात्र के द्वारा चित्त का जो बन्ध है वही धारणा है। कूर्म पुराण के अनुसार - "हृदयकमल, नाभि मूर्धा, पर्वत के शिखर इत्यादि प्रदेशो में चित्त के बन्धन को धारणा कहते है ।"

 

त्रिशिखिब्रहमणोपनिषद के अनुसार धारणा की परिभाषा

 "चित्त का निश्चलीय भाव होना ही धारणा है और शरीरगत पंचमहाभूतो में मनोधारणा रूपधारण, भवसागर को पार कराने वाली होती है। 

विज्ञानभिक्षु के अनुसार धारणा की परिभाषा

  •  "जिस देश में ध्येय का चिन्तन किया जाता है, वहा चित्त को स्थिर करने को धारणा कहते है ।"

 

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार धारणा की परिभाषा -

"जब मन शरीर के भीतर या उसके बाहृय किसी वस्तु के साथ संलग्न होता है और कुछ समय तक उसी तरह रहता है, तो उसे धारणा कहते है।" 


स्वामी हरिहरानन्द के अनुसार धारणा की परिभाषा

"जिस चित्त बन्ध में केवल उसी देश का (जिसमें चित्त - बद्ध किया गया ) ज्ञान होता रहता है, और तब प्रत्याहार इन्द्रिय समूह स्वविषय को ग्रहण नही करती है तब प्रत्याहार मूलक वैसी धारणा ही समाधि की अंगभूत धारणा होती है।" 


 धारणा के प्रकार

 

प्रिय विद्यार्थियों यद्यपि महर्षि पतंजलि ने धारणा के प्रकारों का वर्णन नही किया है। परन्तु उपलब्ध प्रमाणो के आधार पर धारणा को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है।

 

(1) आन्तरिक धारणा 

(2) बाहृय धारणा

 

(1) आन्तरिक धारणा - 

आन्तरिक धारणा जैसा कि नाम से स्पष्ट है। शरीर के भीतर किसी एक स्थान जैसे नाभिचक, भ्रकृटि, हृदयचक आदि पर चित्त को ठहरा देना आन्तरिक धारणा है। आन्तरिक धारणा का वर्णन यजुर्वेद में इस प्रकार है - कि ध्यान करने वाले विद्वान ! लोग यथायोग्य विभाग से नाड़ियों में अपने आत्मा से परमेश्वर की धारणा करते है जो योगयुक्त कर्मों में तत्पर रहते हुए, ज्ञान एवं आनन्द को फैलाते हुए विद्वानों के मध्य प्रशंसा को पाकर परमानन्द के भागी होते है। 

 

"सीरा युञ्जनित कवयो युगा वितन्वते पृथक 

धीरा देवेशु सुम्नया ।" यजु 12/67


आन्तरिक धारणा के उद्देश्य को मन्त्र में स्पष्ट किया गया है - कि पृथ्वी आदि पंचमहाभूत है इनकी उत्पत्ति पंचतन्मात्राओं में होती है, इन सभी में एक सूक्ष्म वायु इन सभी को धारण किये हुए है जो योगी सूक्ष्म वायु की धारणा करते है, या लक्ष्य बनाते है वे परमात्मा का साक्षात्कार कर लेते है।

 

(2) बाह्य धारणा - 

बाह्य धारणा से तात्पर्य शरीर से बाहर किसी एक देश में चित्त को ठहरा देना है। शरीर से बाहर एक देश जैसे सूर्य, चन्द्र, बाहृय ज्योतियाँ आदि । 

बाह्य धारणा का वर्णन अथर्ववेद में इस प्रकार है 

"अपां.. - .. धारयामो।" - ( अथo 1 / 35 / 3 )

 

अर्थात 

जलों में ज्योतियों में तथा वनस्पतियाँ धारणा करने का विधान है। हठयोग के अनुसार हठयोग के अनुसार धारणा पाँच प्रकार की बताई गई है। ये धारणाएं है पार्थिवी धारणा, आम्भसी धारणा, आग्नेयी धारणा, वायवी धारणा, आकाशीय धारणा । महर्षि घेरण्ड के अनुसार इन पाँचो धारणाओं के सिद्ध होने पर कोई कार्य नहीं है जो सिद्ध ना हो सके। 


घेरण्ड संहिता के अनुसार धारणाए निम्न है -

 

(1) पार्थिवी धारणा 

  • पृथ्वी पर वर्ण हरताल के समान है। बीज 'लॅ' चौकोन आकृति ब्रहम - देवता है। योग बल से इसे उदय कर, दो घण्टे प्राण के निरोध पूरक, कुम्भक करें, इसे पार्थिवी मुद्रा कहते है।

 

पार्थिवी धारणा का फल 

  • इस पार्थिवी धारणा का फल यह है कि जो इस पार्थिवी धारणा को करता है। वह मृत्यु जीत कर सिद्ध होकर पृथ्वी पर विचरण करता है। (घे० सं० 3 / 17-18 )

 

( 2 ) आम्भसी धारणा - 

  • जल का वर्ण शंख, चन्द्र कुन्द के समान शुभ्र है। विष्णु देवता है। वकार या 'वॅ' बीज मन्त्र है। योग बल से इसे उदय कर प्राण को, एकाग्र चित्त से पाँच घड़ी कुम्भक द्वारा धारण करें इसे आम्भसी धारणा कहते है।

आम्भसी धारणा के फल - 

  • इस धारणा से मनुष्य के सभी ताप-दुःख नष्ट होते है। आम्भसी मुद्रा का अभ्यस्त योगी, भीषण गम्भीर जल में पड़कर भी नहीं मरता है। (घे० सं० 3 / 19,20,21)

 

( 3 ) आग्नेयी धारणा - 

  • नाभि में अग्नि का वास है। जिसे जठराग्नि भी कहते है। इसका रंग लाल है। आकृति त्रिकोण, देवता, रूद्र, मन्त्र रं है। यह तत्व तेज पुज्जमय दीप्तिमय और सिद्धिप्रद है। इसे योग बल से उदय कर एकाग्र चित्त से पॉच घड़ी कुम्भक करके प्राण धारण करें। इसे आग्नेयी धारणा कहते है। 

आग्नेयी धारणा के फल - 

  • इस धारणा के अभ्यास से यदि साधक अग्नि में भी गिर जाए तो भी जीवित रहेगा। (घे० सं० 3 / 22.23 )

 

( 4 ) वायवी धारणा

वायु का रंग धुए के रंग के समान या अंजन के समान हल्का काला होता है। यह तत्व सत्व गुण वाला तथा इसका मन्त्र यं' है। योग बल से उदय होने पर एकाग्र चित्त से कुम्भक कर पाँच घड़ी तक प्राण को धारण करने से वायवीय धारणा होती है। इसके अभ्यास से वायु से मृत्यु नही होती है।

 

आग्नेयी धारणा के फल

  • यह धारणा जरा व मृत्यु से दूर रखती है। वायु से साधक की मृत्यु नही होती तथा आकाश गमन की सिद्धि प्राप्त होती है। (घे० सं० 3 / 24,25, 26 ) (5) 


आकाशीय धारणा - 

  • आकाश तत्व का वर्ण शुद्ध सागर के जल के सदृश नीला है। देवता सदाशिव व बीज मन्त्र हकार है। शान्त मन से प्राण वायु को रोके तथा पाँच घड़ी तक कुम्भक करना चाहिए ऐसा करने से यह नभो धारणा (आकाश धारणा) सिद्ध होती है।

 

आकाशीय धारणा के फल - 

  • जो योग वेन्ता आकाशी धारणा को जानता है, उसकी मृत्यु नहीं होती है। प्रलय होने पर भी उसे दुःख नही होता है। (घे० सं० 3 / 27.28 ) उपरोक्त पंच धारणा की प्रशंसा योग ग्रन्थों में अनेको स्थानों में की गयी है । साधक इनकी सिद्धि कर अनेक फलो व सिद्धियों को प्राप्त कर सकता है।

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