विभूतियाँ क्या होती हैं वर्णन कीजिये ,विभूतियों के प्रकार
विभूतियाँ क्या होती हैं वर्णन कीजिये
- संयम उपरान्त शरीर, मन और इन्द्रियों का अद्भुत शक्ति से सम्पन्न होना ही योग सिद्धि है जिसे विभूति भी कहते हैं। ये विभूतियां ईश्वरीय अंश है। जब अविद्या नष्ट होती है तब सत्त्व गुण का उद्भव होता है, तद्उपरान्त साधक में स्वाभाविक ऐश्वर्य का उत्कर्ष होता है। इसी ऐश्वर्य के रूप में अनेक प्रकार की विभूतियों की प्राप्ति होती है। यह स्थिति कैवल्य से पूर्व की है। उच्च कोटि के साधक विभूतियों को कैवल्य मार्ग की बाधा रूप बताते है इसीलिए वे इन विभूतियों के मोह में न आकार आगे की यात्रा अनवरत करते रहते हैं। विभूतियों की प्राप्ति साधक को यह ज्ञात कराती है कि उसने योग मार्ग को भलीभांति जानकरी के साथ अपनाया है। श्रद्धा पूर्वक योग अभ्यास की निरन्तरता और संयम के परिणाम स्वरूप अनेक शक्तियों के रूप में विभूतियों की प्राप्ति भी अनवरत होती रहती है ।
विभूतियों के प्रकार
विभिन्न विषयों संयम करने से अनेक प्रकार की विभूतियों की प्राप्ति होती है, जिन्हें निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। ज्ञानात्मक सिद्धियां, शक्तिरूप सिद्धियाँ, क्रियारूप सिद्धियाँ एवं अन्य सिद्धियाँ
1. ज्ञानात्मक विभूतियां :
महर्षि पतंजलि ने ज्ञानात्मक विभुतियों का स्वरूप इस प्रकार बताया है :
अतीतानागतज्ञान विभुति :-
- धर्म, लक्षण एवं अवस्था नामक तीनों परिणामों में संयम करने से योगी को भूत और भविष्य का ज्ञान हो जाता है। जब वस्तु के तीनों परिणामों को लक्ष्य में रखकर संयम करते है तो उसका इन तीनों परिणामों के साक्षात होने से उस वस्तु के सब क्रमों का अर्थात जिस-जिस अवस्था में होकर वह वस्तु इस रूप में पहुँची है और आगे जिस-जिस अवस्था में पहुंचेगी और जितने-जितने काल में पहुंचगी, सब ज्ञान हो जाता है।
यथा :-
परिणामत्रयसंयमादतीतानागतज्ञानम् (पाoयो0सू० 3 / 16 )
सर्वभूतज्ञान विभूति :-
- समस्त प्राणियों के वाग्व्यवहार को जानने की क्षमता की प्राप्ति होना । जब साधक शब्द, अर्थ और ज्ञान के परस्पर संकर अध्यास को त्यागकर इनके प्रविभाग में संयम करता है, तब यह विभूति प्राप्त होती है, और सब प्राणियों की वाणी का ज्ञान हो जाता है।
यथाः–
शब्दार्थप्रत्ययानामितरेतराध्यासात् संकरस्तत्प्रविभागसंयमात् सर्वभूतरूतज्ञानम्।।
(पाoयो0सू० 3 / 17)
पूर्वजातिज्ञान विभूति :-
- संस्कारों में संयम करने से संस्कार के कारणरूप कर्मों का यथावत ज्ञान साधक को हो जाता है। संस्कार दो प्रकार के होते है। एक स्मृति के बीजरूप में रहते हैं जो स्मृति और क्लेशों के कारण हैं। दूसरे विपाक के कारण वासना रूप से रहते हैं जो जन्म, आयु, भोग और उनमें सुख-दुःख के कारण होते है। वे धर्म और अधर्म रूप हैं। ये संस्कार ग्रामोफोन के प्लेट रिकार्ड के सदृश चित्त में चित्रित रहते हैं। वे परिणाम, चेष्टा, निरोध, शक्ति, जीवन और धर्म की भांति अपरिदृष्ट चित्त के धर्म हैं जिनमें संयम करने पर उनका साक्षात हो जाता है। उसको जिस देश, काल और जिन निमित्तों से वे संस्कार बने हैं, सब स्मरण हो जाता है, यही पूर्वजन्मज्ञान है। जिस प्रकार संस्कारों के साक्षात करने से अपने पूर्वजन्म का ज्ञान होता है वैसे ही दूसरे के संस्कारों को साक्षात करने से दूसरे के पूर्वजन्म का ज्ञान होता है।
यथा :-
संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम् ।। ( पाoयोoसू० 3 / 18 )
परचित्तज्ञान विभूति :-
प्रत्ययस्य परचित्तज्ञानम् (पाoयो0सू० 3 / 19 )
अर्थात
- अन्य पुरूष के चित्त विषयक संयम करने से अन्य पुरूष के चित्त का साक्षातकारात्मक ज्ञान साधक को हो जाता है। यह विभूति रागादियुक्त निजचित्तवृत्ति के साक्षात्कार के फलस्वरूप प्राप्त होती है। चित्त के साक्षात्कार से जो दूसरे के चित्त का ज्ञान होता है वह केवल चित्त के स्वरूप का ही होता है। उस चित्त के सालम्बन का अर्थात उसका चित्त जिस वस्तु का चिन्तन कर रहा है, उसका ज्ञान नही होता क्योंकि चित्त का विषय दूसरे का चित्त है, उसका आलम्बन नहीं।
यथा :-
न च तत्सालम्बनं तस्याविषयीभूतत्वात् ।। ( पाoयोoसू० 3 / 20 )
अपरान्त (मृत्यु) विभूति ज्ञान:-
सोपक्रम और निरूपक्रम दो प्रकार के कर्म होते है। इन कर्मों में संयम करने पर मृत्यु का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त अरिष्टों से भी मृत्यु का ज्ञान प्राप्त होता है
यथा :-
सोपक्रमं निरूपक्रमं च कर्म तत्संयमादपरान्तज्ञानमरिष्टेभ्यो वा (पाoयो0सू० 3/22)
जिन कर्मों के फलस्वरूप मनुष्य की आयु का निर्माण होता है वे दो प्रकार के होते हैं :
1. सोपक्रम
जिन कर्मों का फल प्रारम्भ हो चुका है जो कि आपका फल देने में लगे हुए हैं जैसे - जल से भीगे हुए वस्त्र
2. निरूपक्रम :-
वे कर्म जो मन्द वेग वाले हैं जिन्होंने आयु भोगने का कार्य अभी तक प्रारम्भ नहीं किया है। इन दोनों कर्मों में संयम करने से उनका साक्षात हो जाने पर योगी को संशय रहित यह ज्ञान हो जाता है कि आयु कितनी शेष रही है।
इसके अतिरिक्त यह मृत्यु ज्ञान कभी-कभी विपरीत चिन्हों के द्वारा भी प्राप्त होता है जैसे- सियार, कुत्ते, बिल्ली का रोना, आकाश नक्षत्र - तारा आदि का उल्टा पुलटा दिखायी देना, मरे हुए पुरुषों का इस प्रकार दिखायी देना मानो सामने खड़े हैं। कानों को बंद करने पर अंदर की ध्वनि का सुनायी न देना आदि । इन विपरीत चिन्हों के द्वारा प्राप्त ज्ञान अनुमान ज्ञान हैं प्रत्यक्ष नहीं।
सूक्ष्म व्यवहित विप्रकृष्ट ज्ञान विभूति
इन्द्रियातीत, व्यवहित एवं दूरस्थ वस्तुओं का - ज्ञान प्राप्त करने की सिद्धि मन की ज्योतिष्मति प्रवृत्ति को आलोक में निहित करने पर होती है।
इन्द्रियातीत:- अत्यन्त सूक्ष्म जैसे परमाणु, महत्तत्व प्रकृति आदि ।
व्यवहित :- आवरण में छिपी जैसे समुद्र रत्न, मणी आदि ।
विप्रकृष्ट :- दूर देश में स्थित जैसे हम भारत में और वस्तु अमेरिका में ।
उपरोक्त किसी भी वस्तु को जानने के लिए ज्योतिष्मती प्रवृत्ति के प्रकाश को उस पर छोड़ते है। तदोपरान्त उस वस्तु का साक्षात्कार हो जाता है।
यथा :
प्रवृत्त्यालोकन्यासात् सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टज्ञानम्।। (पा०यो0सू० 3/25)
भुवनज्ञान विभुति :-
सूर्य में संयम करने से समस्त लोकों का ज्ञान हो जाता है।
यथा -
भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात् ।। ( पाoयोoसू० 3 / 26)
चन्द्रताराव्यूह ज्ञान विभूति :-
चन्द्रमा में संयम करने से सब तारों के व्यूह (स्थिति- विशेष) का ज्ञान हो जाता है।
यथा :-
चन्द्रे ताराव्यूहज्ञानम् ।। (पाoयो0सू० 3 / 27 )
ताराओं की गति का ज्ञान :-
ध्रुव तारे में संयम करने से ताराओं की गति का पूर्ण ज्ञान होता है।
यथा :
- ध्रुवे तद्गतिज्ञानम् ।। (पा०यो0सू० 3 / 28)
कायव्ज्ञयुह्भूज्ञान विभूति :-
नाभिचक्र में संयम करने से शरीर के समुदाय का ज्ञान होता है।
यथा :-
नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम् ।। (पाoयो0सू० 3 / 29)
प्रातिभज्ञान विभूति
प्रातिभ का अर्थ है विवेकजनित ज्ञान का पूर्णरूप। प्रातिभ में संयम करने से सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है।
यथा :-
प्रातिभाद्वा सर्वम् ।। ( पाoयोoसू० 3 / 33 )
चित्तज्ञान विभूति
“हृदये चित्तसंवित्।।” (पाoयो0सू० 3 / 34 )
हृदय में संयम करने पर चित्त के स्वरूप का ज्ञान हो जाता है।
पुरूषज्ञान विभूति :-
पुरूष और बुद्धि जो कि दोनो परस्पर अत्यन्त भिन्न हैं। इन दोनों की प्रतीति का अभेद है वही भोग है। बुद्धि परार्थ है, बुद्धि पुरुष का जो परस्पर प्रतिबिम्ब - संबंध से अभेदज्ञान है, वही पुरूष निष्ठ योग कहलाता है। बुद्धि दृश्य होने से उसका यह भोग रूप प्रत्यक्ष परार्थ अर्थात पुरूष के लिए ही है। इस परार्थ से अन्य जो स्वार्थ प्रत्यय है उसमें संयम करने से नित्य शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वभाव पुरूष का ज्ञान हो जाता है। इसी विभूति की प्राप्ति उपरान्त षसिद्धियों (प्रात्तिभ, श्रवण, वेदन, आदर्श, आस्वाद और वार्ता नामक षसिद्धियों) की प्राप्ति हो जाती है।
षटसिद्धियों का फल :
1. प्रातिभ :- अतीत, अनागत, विप्रकृष्ट और सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थो का ज्ञान ।
2. श्रावण :- दिव्य श्रवण ज्ञान की 3. वेदन दिव्य दर्शन की पूर्णता पूर्णता
4. आदर्श :- दिव्यदर्शन की पूर्णता
5. आस्वाद :- दिव्य रसज्ञान की पूर्णता ।
6. वार्ता :- दिव्य गन्ध की पूर्णता ।