भारतीय दर्शन के अनुसार योग का अर्थ एवं परिभाषा
भारतीय दर्शन में योग
भरतीय दर्शन अपनी भिन्न- भिन्न दार्शनिक मान्यता रखते है। पर सभी दर्शनो, ग्रन्थों में योग को योगाभ्यास के समान रूप से स्वीकार किया है। इसमें योग को निम्न प्रकार से परिभाषित किया गया है। -
वेदान्त दर्शन में योग -
ब्रहम सूत्र 4/1/11 में आसन में बैठकर साधना की बात की गयी है, तथा आसन में बैठकर एकाग्रता का वर्णन किया गया है -
“यत्रेकाग्रता तत्राविशेषात् ।”
अर्थात् विशेषता न पाये जाने से जहाँ चित्त एकाग्र हो सके वही उपासना (साधना) करनी चाहिए। वेदान्त ग्रन्थ 'विवेक चूडामणि में परमात्म प्राप्ति के उपाय के रूप में योग साधना का वर्णन किया गया है
"उद्धरेदामात्मानं मग्नं संसारवारिधौ
योगारूढत्वमासाद्यसम्यग्दर्शननिष्ठया ।।" विवेक चूड़ामणि 1
अर्थात् संसार सागर में डूबी हुई आत्मा का आत्म दर्शन में मग्न रहता हुआ योगारूढ़ होकर स्वयं ही उद्धार करें।
विवेक चूडामणि 364 में योग में समाधि को इस प्रकार परिभाषित किया गया है। -
'समाधिनानेन समस्त वासना........ .. स्यात् ।।'
अर्थात् इस समाधि से समस्त वासना रूपी ग्रन्थि का विनाश और सभी कर्मों का नाश होकर भीतर व बाहर सर्वत्र एवं सर्वदा बिना यत्न किये ही स्वरूप का स्मरण होने लगता है। विवेक चूड़ामणि में 48 में कहा है अर्थात् श्रद्धा, भक्ति, ध्यानयोग द्वारा अविद्या से उत्पन्न देहेन्द्रिय आदि से मुक्त हो जाता है, व इनके द्वारा मुमुक्षु को मुक्ति प्राप्त होती हैं।
न्याय दर्शन में योग
न्याय दर्शन में विभिन्न स्थानो पर योग का उल्लेख मिलता है। अभ्यास का वर्णन करते हुए कहा गया है
'समाधिविशेषाभ्यासात् ।' न्याय सूत्र 4/2/38
अर्थात् अभ्यास से समाधि की प्राप्ति होती है।
"तदर्थ यमनियमाभ्यात्मसंस्कारो योगाक्चाध्यात्म विध्युपाये ।' न्याय सूत्र 4/2/42
अर्थात् मोक्ष प्राप्ति के लिए यम व नियम का पालन करना आवश्यक है, तथा योग के आध्यात्मिक अनुष्ठान कर आत्मा का संस्कार करना ही योग है।
वैशेषिक दर्शन में योग
वैशेषिक दर्शन महर्षि कणाद द्वारा प्रतिपादित है। इसमें योग को इस प्रकार परिभाषित किया गया है-
"आत्मन्यात्ममनसो संयोग विशेषात् आत्मपृत्यक्षम् । वैशेषिक सूत्र 9/1/11
अर्थात् योगियो को अपने आत्मा में परमात्मा के दर्शन होते है, तथा मन तथा आत्मा (परमात्मा) के संयोग से आत्मविषय प्रत्यक्ष ज्ञान होता है।
वैशेषिक दर्शन 9/1/13 में वर्णन है -
अर्थात् ऐसे युक्त योगी जो समाधि प्राप्त कर चुके है, उनके लिए अतीन्द्रिय द्रव्यो, का बिना समाधि प्रत्यक्ष होता है।
सांख्य दर्शन में योग -
सांख्य दर्शन के आदिवक्ता महर्षि कपिल है। सांख्य के निम्न सूत्रों में योग का वर्णन मिलता है-
"रागोपहितिर्ध्यानम्।" सांख्य सूत्र 3 / 30
अर्थात् ध्यान के द्वारा योग के अनुष्ठान करने चाहिए।
'वृत्तिनिरोधात् तत्सिद्धि । सांख्य सूत्र 3 / 32
अर्थात् वृत्तियों के निरोध से ध्यान की सिद्धि होती है।
'धारणासन स्वकर्मणा तत्सिद्धिः ।'
अर्थात् धारणा आसन तथा अन्य योग के साधनो द्वारा वृत्ति निरोध (ध्यान) की स्थिति होती है। आसन को परिभाषित करते हुए कहा गया
‘स्थिरसुखमासनम्।' सांख्य सूत्र 3 / 34
अर्थात् जिसमें सुखपूर्वक स्थिरता पूर्वक बैठ सके वही आसन है, तथा यह आसन योग सिद्धि में आवश्यक है।
जैन दर्शन में योग Yoga in Jain Religion
जैन दर्शन में योग की परिभाषा देते हुए आचार्य यशोविजय ने अपने ग्रन्थ द्वात्रिशिखा में वर्णन किया है।
'मोक्षेण योजनादेव योगो हृत्र निरुध्यते । द्वात्रिशिका 10-1
अर्थात् जिन जिन साधनो से आत्मा की शुद्धि तथा मोक्ष का योग होता है।-
अर्थात् जिन- जिन साधनो से आत्म तत्व की शुद्धि होती है, वही साधन योग है। जैन आचार्य हेम चन्द्र ने अपने धातु पाठ गण 7 में 'युजपीयोगे' कहकर योग का अर्थ परिभाषित किया है। साथ ही साथ उन्होने 'युजि च समाधौ' का अर्थ मन की स्थिरता व समाधि से लिया है।
आचार्य हेम चन्द्र ने योग विशिंका गाथा में योग को इस प्रकार परिभाषित किया है -
'मुक्खेण जोयणाओ जोगो ।'
अर्थात्
जिन साधनों से कर्म मल का नाश होता है, एवं मोक्ष का उसके साथ संयोग होता है, वही योग है। उर्पयुक्त परिभाषा से स्पष्ट होता है कि आत्मसाक्षात्कार के साधन एवं उसके फलस्वरूप सिद्ध स्वरूपावस्थिति रूप साध्य दोनो को ही योग कहा जाता है। जैन दर्शन में कही पर आत्मा व परमात्मा के संयोग को योग कहा है। योग को इस तरह से भी परिभाषित किया है "योग चित्त वृत्ति निरोध अथवा दुःख कारक तत्वो की
बौद्ध दर्शन में योग Yoga in Buddhist Philosophy
बौद्ध दर्शन में निर्वाण (समाधि) प्राप्ति के उपायो का वर्णन किया गया है। निर्वाण समाधि का ही पर्यायवाची शब्द है। योग में समाधि, जैन में मुक्ति व बौद्ध में निर्वाण तथा हिन्दुओ में मोक्ष के नाम से वर्णन दर्शन में मिलता है। इन सभी के नाम अलग है, परन्तु लक्ष्य एक ही है, समाधि की प्राप्ति । इस समाधि की प्राप्ति करना ही योग है। बौद्ध दर्शन में इसके आठ अंग बताये गये है।
1 सम्यक दृष्टि - हमारे चार आर्य सत्य, दुख, दुःख का कारण दुःख नाश व दुःख नाश के लिए सम्यक दृष्टि रहे।
2 सम्यक संकल्प - अनात्म पदार्थो को त्यागने के लिए संकल्प ।
3 सम्यक वाक - प्रिय बोले अनुचित वचनो का त्याग 4 सम्यक कर्म सम्यक कर्म करने चाहिए, कर्मयोगी बने।
5 सम्यक आजीव- न्यायपूर्वक धर्म के अनुसार आजीविका चलाये।
6 सम्यक व्यायाम - वह क्रियाये जिनसे अशुभ मनः स्थिति का अन्त होता है। अच्छे कर्मों में प्रवृत्त रहना सम्यक व्यायाम है।
7 सम्यक स्मृति - काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि सभी अनात्म वस्तुओं की स्मृति स्मरण नहीं करना चाहिए।
8 सम्यक समाधि- समाधि की अवस्था में चित्त वृत्तियो का पूर्णतया निरोध हो जाता है, इस अवस्था में समस्त दुःखो का निरोध हो जाता है। यह अवस्था निर्वाण की अवस्था है।
योग सूत्र के अनुसार योग Yoga according to the Yoga Sutras
योग सूत्र के प्रेणता महर्षि पतंजलि हैं। योग सूत्र में चार पाद है, समाधि पाद, साधना पाद, विभूति पाद, कैवल्य पाद । महर्षि पतंजलि ने योग की परिभाषा इस प्रकार दी-
'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । योग सूत्र 1/2
अर्थात्
'चित्त की वृत्तियो का सर्वथा अभाव ही योग है। चित्त का तात्पर्य मन, बुद्धि, अहंकार का सम्मिलित रूप है। चित्त में जो प्रतिविम्ब बनता है, वही वृत्तियाँ है। चित्त दर्पण के समान है। विषयो का प्रतिविम्ब उसमें पड़ता है। अर्थात् चित्त विषयाकार हो जाता है। चित्त को विषयाकार होने से रोकना या विषयो का अभाव होना ही योग है। यही महर्षि पतंजलि ने भी स्पष्ट किया है। चित्त की वृत्तियों का सर्वथा अभाव ही योग है।
योग के अर्थ को और अधिक स्पष्ट योगसूत्र के तृतीय सूत्र में किया है-
'तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ।' योग सूत्र 1/3
अर्थात्
उस समय दृष्टा (आत्मा) की अपने स्वरूप में स्थिति हो जाती है। अर्थात् चित्त की वृत्तियों के अभाव होने पर ही चैतन्य आत्मा अपने शुद्ध रूप में अवस्थित हो जाती है। यही कैवल्य की स्थिति है, यही मोक्ष है।
श्रीमद् भगवद्गीता के अनुसार योग Yoga according to Shrimad Bhagavad Gita
भारतीय आध्यात्मिक ग्रन्थों में श्रीमद् भगवद्गीता को बहुत अधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है। भगवद् गीता में श्रीकृष्ण स्वयं योग की विद्या अर्जुन व जन - जन के लिए उद्घोषित किया। गीता में योग को इस प्रकार परिभाषित किया गया है
"योगस्य कुरूकर्माणि संगत्यक्त्वा धनञ्जय
सिद्ध सिद्धयासमो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।।" 2/48
अर्थात्
हे धनञ्जय ! तू आसक्ति त्याग कर समत्व बुद्धि से कर्म कर, सिद्धि असिद्धि में समत्व भाव से कार्य करना ही योग है। अर्थात् योग साधक का चित्त सभी द्वन्द्वो सुख दुःख, लाभ - हानि, जय- पराजय, शीत - उष्ण आदि में समान बना रहता है यह - समत्व बुद्धि ही योग है।
"बुद्धियुक्तो जहा तीह उभे सुकृत दुष्कृते ।
तस्माद्योगाययुज्यस्वयोगः कर्मसुकौशलम् ।।” 2/50
अर्थात्
कर्मों में कुशलता ही योग है। कर्मों में कुशलता से अभिप्राय यहा कर्मों को इस प्रकार से करने में है, कि वे कर्म बन्धन का कारण न बन सके, बल्कि कर्म मुक्ति दिलाने वाले हो।
गीता में योग की परिभाषा अन्य स्थान पर इस प्रकार है -
"तं विद्यात् दुःख संयोग वियोग संज्ञिताम्।' 6/13
अर्थात्
ऐसी विद्या जिससे दुःखो से पूर्णतया मुक्ति मिल जाए उस विद्या को प्राप्त कर परमात्मा के साथ संयोग ही योग है।
योग वशिष्ट के अनुसार -
योग वशिष्ट नामक ग्रन्थ के रचनाकार महर्षि वशिष्ट हैं। इस ग्रन्थ में महर्षि वशिष्ट ने श्री राम चन्द्र जी को योग की आध्यात्मिक विधाओ को समझाया है। योग वशिष्ट का दूसरा नाम महारामायण है।
योग वशिष्ट में योग को इस प्रकार से परिभाषित किया गया है-
'संसार सागर से पार होने की युक्ति का नाम ही योग है।'
योग वशिष्ट निर्वाण प्रकरण में योग को इस प्रकार परिभाषित किया गया है-
"एको यागस्तथा ज्ञानं संसारोत्तरणक्रमे ।
समावुपायौ द्वावेव प्रोक्तावेकफलदौ ।।
असाध्यः कस्यचिद्योगः कस्यचिज्ज्ञानश्चियः ।
ममत्वभिमतः साधो सुसाध्यो ज्ञान निश्चयः ।।" योग वशिष्ट निर्वाण प्रकरण 13 / 7-8
अर्थात्
संसार सागर से पार होने के दो उपाय कहे गये है, योग तथा ज्ञान । योग (कर्मयोग) तथा ज्ञान (ज्ञानयोग) ये दोनो उपाय एक ही फल देने वाले हैं। कर्मयोग मनुष्य को असाध्य प्रतीत होता है। परन्तु ज्ञानयोग निश्चय ही सरलतम व साध्य है।
योग की अन्य परिभाषाए -Other definitions of yoga
प्रिय विद्यार्थियो आपने अभी तक विविध ग्रन्थो तथा भारतीय दर्शन में वेदो में, उपनिषदों में योग की परिभाषाओ का अध्ययन किया । योग की अन्य परिभाषाओ जो कि विद्वानो, चिन्तको के द्वारा दी गयी है, इन परिभाषाओ को अध्ययन कर अपने जीवन में उतारने का प्रयास करेगे।
1- महर्षि याज्ञवल्क्य के अनुसार-
- जीवात्मा और परमात्मा के संयोग की अवस्था का नाम योग है।
2 - महर्षि व्यास के अनुसार
- योग समाधिः । योग नाम समाधि का है।
3- शंकराचार्य के अनुसार
- ब्रहम को सख्य मानते हुए और इस संसार के प्रति मिथ्या दृष्टि रखना ही योग है।
4 - श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार-
- "जीवन जीने की कला ही योग है।"
5- रागेय राधव के अनुसार
- शिव और शक्ति का मिलन ही योग है।
6 – श्री गुरू ग्रन्थ साहिब के अनुसार-
- निष्काम कर्म करने में सच्चे धर्म का पालन है, यही वास्तविक योग है। परमात्मा के शाश्वत और अखण्ड ज्योति के साथ अपनी ज्योति को मिला देना वास्तविक योग है।