योगान्तराय (चित्त विक्षेप) |महर्षि पतंजलि द्वारा वर्णित योग के नौ अन्तराय| | Yogantar Kya Hote Hain

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महर्षि पतंजलि द्वारा वर्णित योग के नौ अन्तराय, योगान्तराय (चित्त विक्षेप)

योगान्तराय (चित्त विक्षेप) |महर्षि पतंजलि द्वारा वर्णित योग के नौ अन्तराय| | Yogantar Kya Hote Hain


योगान्तराय (चित्त विक्षेप)

 

  • चित्त के विक्षेपो को ही योगान्तराय कहते है। साधना की समस्त बाधाओ को चित्त विक्षेप, योगान्तराय, विघ्न कहते है। ये चित्त को विक्षिप्त करके उसकी एकाग्रता नष्ट करते है। ये योग साधना में विध्न उत्पन्न करते है। जिससे विघ्नो से व्यथित होकर साधक अपनी साधना बीच में ही छोड़ देता है। ये योग साधना में अन्तराय उत्पन्न करते है, इसलिए इन्हें योगान्तराय कहते है ।

 

'योगस्य अन्तः मध्ये आयान्ति ते अन्तरायाः।

 

  • ये योग के मध्य में आते हैं, इसलिए इन्हें योगान्तराय कहा जाता है। ये विघ्न योग के साधक के मार्ग में प्रबल बाधक बनते है। इसलिए इन्हें योग के बाधक तत्व भी कहा जाता है। ये विघ्न एक साथ ही आए ऐसा नही होता है। वरन योग साधक के मार्ग में विभिन्न स्तरो में ये विघ्न आते है। अतः योग साधक को इन विघ्नो से बचने का प्रयास सदैव करना चाहिए। क्योंकि कोई भी कार्य करने में या श्रेष्ठ कार्य करने में विघ्न अवश्य आते है। जैसा कहा गया "श्रेयांसि बहुविघ्नानि ।" कि श्रेष्ठ कार्यो में विघ्न आया ही करते है। 


  • प्रिय विद्यार्थियो इन विघ्नो से व्यथित होकर साधना को बीच में ही नहीं छोड़ना चाहिए। एक योग साधक को इन विघ्नो को सहन करने की सामर्थ्य होनी चाहिए। अपने संकल्पों की पूर्णता के लिए इन विघ्नो से व्यथित नही होना चाहिए। अपने पथ पर निर्भिकता से चलना चाहिए। इन विघ्नो के शमन के लिए महर्षि पतंजलि ने उस ईश्वर की कृपा का वर्णन किया है कि इन विघ्नो के शमन के लिए उस एकतत्व का अभ्यास करना चाहिए। जिस पर ईश्वर की अनुकम्पा होगी, उसे यह विघ्न नहीं सताते।

 

  • प्रिय विद्यार्थियों आइये जाने ये विघ्न या अन्तराय है क्या। ये विघ्न या अन्तराय नौ है - व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्ध भूमिकत्व और अनवस्थित। ये नौ विघ्न ही चित्त को विक्षेपित करते है, तथा इन्ही नौ अन्तराय के साथ-साथ चलने वाले पाँच विक्षेप सहभुवः है, जो योग साधना में बाधक है।

 

चित्त विक्षप

 

  1. व्याधि 
  2. स्त्यान 
  3. सशय 
  4. प्रमाद 
  5. आलस्य 
  6. अनवस्थितत्व 
  7. अलब्ध भू मिकत्व 
  8. भ्रान्तिदर्शन 
  9. अवरति 


इस प्रकार चित्त के विक्षेप या अन्तराय नौ है। जिसका वर्णन महर्षि पतंजलि ने समाधिपाद में इस प्रकार किया है, जो निम्न है -


'व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वनवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तराया।'1 / 30 पा० योसू० 

 

व्याधि -(व्याधि क्या होती है व्याख्या कीजिये ?) 

  • योग भाष्य में वर्णन है -व्याधिर्धातुरसकरण वैषम्यम् ।" अर्थात धातु, रस, करण इन तीनो की विषमता ही व्याधि है। अर्थात् आयुर्वेद के अनुसार वात, पित्त व कफ तीन दोष है। हमारे गलत आहार विहार के कारण ये तीनों दोषों में किसी एक की वृद्धि या क्षय हो जाता है अर्थात इनमें विषमता आ जाती है। विषमता के कारण ही ये दूषित होते हैं। इसलिए ये दोष कहलाते है। ये दोष ही कुपित होने पर धातुओ में (रस, रक्त, मांस, मेद, मज्जा, अस्थि, शुक) विषमता उत्पन्न करते है। जिसे धातु वैषम्य कहते है। ये त्रिदोषों की विषमता, धातुओ की विषमता ही रोग है। जो योग में विघ्न है, अन्तराय है। इस वैषम्य विपरित आहार करने से आहार का परिपाक नही हो पाता है। जिसे रस वैषम्य कहते है। यही शरीर में रोगों का कारण है। गलत आहार विहार से इन्द्रियो (ज्ञानेन्द्रिय कर्मेन्द्रिय) की शक्ति मन्द हो जाती है। जिसे करण वैषम्य कहते है। इस प्रकार धातु वैषम्य, रस वैषम्य एवं करण वैषम्य, इन तीनों की विषमता ही व्याधि है। क्योकि रोगी शरीर में साधना नही की जा सकती हैं, तथा चारो पुरुषार्थों की पूर्ति भी वही कर सकता है, जो आरोग्य का सुख लाभ ले रहा हो, जो निरोग हो। उसी प्रकार योग साधना का लाभ भी वही ले सकता है, जो व्याधियो से मुक्त हो, अतः व्याधि योग साधना में अन्तराय है।

 

स्त्यान - (स्त्यान क्या होता है वर्णन कीजिये ?)

  • चित्त की अकर्मण्यता ही स्त्यान है। व्यास भाष्य के अनुसार "स्त्यानमर्कण्यता चितस्य ।' अर्थात् चित्त की अकर्मण्यता ही स्त्यान है। स्त्यान के कारण ही शरीर में भारीपन बना रहता है। जिसके रहते सत्कार्यों के प्रति प्रीति नही रहती है, यही स्त्यान है। हमारे चित्त में पूर्व जन्म के संस्कार एकत्रित रहते है, जिसके कारण चित्त सांसारिक विषय भोगो में लिप्त रहता है। जिससे कि योगानुष्ठान की इच्छा होने पर भी वह सामर्थ्य नही होती कि योगानुष्ठान कर सके, अकर्मण्यता का अनुभव होता है। यही अकर्मण्यता समाधि में बाधक है। इस प्रकार स्त्यान एक अन्तराय व बाधक तत्व के रूप में स्वीकार किया गया है। 


 संशय ( संशय क्या होता है वर्णन कीजिये ?)

 

  • योग विद्या की वस्तुस्थिति पर अविश्वास तथा अपने द्वारा किए गये प्रयत्न की सफलता पर संदेह करना संशय कहलाता है। व्यास भाष्य के अनुसार - संशय उभयकोटिस्पृग्विज्ञानं स्यादिदमेवं नैवं स्यादिति ।' अर्थात् ऐसा ज्ञान जो उभयकोटिस्पक, दोनों किनारों को छूने वाला दो विरूद्ध मार्गों को जाने वाला अर्थात् द्विविधा (संशय) उत्पन्न करने वाला है, यह भी हो सकता है, और वह भी हो सकता है, इस प्रकार का ज्ञान संशय है। योग साधना में सफलता निरन्तर तथा दीर्घकाल तक अभ्यास के पश्चात प्राप्त होती है। साधक लम्बे समय तक, निरन्तर सेवा पूर्वक श्रद्धा पूर्वक जब साधना करता है, तब ही उसे सफलता मिलती है। परन्तु फल प्राप्ति से पूर्व ही मन में संदेह हो जाए कि मैं योग साधना कर सकूँगा या नही या मुझे इसमें सफलता मिलेगी कि नही, समाधि की प्राप्ति होगी कि नही। यही सन्देह चित्त को असन्तुलित कर देता है, चित्त विक्षिप्त होता है। जिससे साधना में विघ्न उत्पन्न होते है। अतः योग साधना में संशय एक बहुत बड़ा विघ्न है, अन्तराय है।

 

प्रमाद (प्रमाद  क्या होता है वर्णन कीजिये) 

  • चौथा अन्तराय प्रमाद है। प्रमाद एक ऐसी मन की अवस्था है, जिसमें मन में उत्साह न होने के कारण योगानुष्ठान के कार्यो में प्रवृत्ति नहीं होती है। क्योकि योगानुष्ठान के लिए उत्साह और निरन्तरता का होना आवश्यक है। जिसे कि योग साधना में साधक तत्व के रूप में लिया गया है। व्यास भाष्य के अनुसार प्रमाद: समाधिसाध्नानामभावनम् ।' अर्थात - समाधि के साधनों को ना करना प्रमाद विघ्न या अन्तराय है। मन में उत्साह न होने के कारण ही लापरवाही पूर्वक योगसाधना करना तथा उसे अधूरा ही छोड़ देना और वह छूट भी गया तो चिन्ता न करना प्रमाद है। यह प्रमाद योग साधना में बाधा उत्पन्न करता है। अतः प्रमाद योग साधना में अन्तराय है।

 

आलस्य

 

  • शरीर और चित्त के तमोगुण के प्रभाव के कारण जो शरीर और मन में भारीपन होता है। चित्त व शरीर में भारीपन होने से योग साधना में या समाधि के साधनो में प्रवृत्ति नही होती यही आलस्य विघ्न है। आलस्य कायस्य चितस्य च गुरुत्वादप्रवृत्तिः । - व्यास भाष्य अर्थात शरीर और चित्त के तम प्रधान होने पर योग साधना में प्रवृत ना होना ही आलस्य विघ्न है। गलत आहार विहार से शरीर और चित्त में भारीपन हो जाता है। यह योग साधना में बाधा उत्पन्न करता है, तथा योग साधना में बहुत बड़ा अन्तराय है।

 

अविरति (अविरति क्या होती है वर्णन कीजिये ?)

 

  • विरक्ति का अभाव ही अविरति है। विरक्ति या वैराग्य ही समाधि के लिए प्रमुख साधन है, और इस वैराग्य का अभाव ही योग साधना में अन्तराय है। प्रायः अविवेक के कारण ही मनुष्य इस जागतिक विषय भोगों के आकर्षण से घिर कर इन विषयों ( रूप, रस, गन्ध, स्पर्श) में ही आसक्त रहता है। इन विषयों के प्रति आसक्ति उसके पूर्व जन्मों के संस्कारो के कारण बनी रहती है। इन विषयों के प्रति आसक्ति ही अविरति है। 
  • महर्षि व्यास ने अविरति का वर्णन इस प्रकार किया है 'अविरतिचित्तस्य विषयसम्प्रयोगात्मा गर्धः ।' अर्थात् चित्त के - विषयो (रस, रूप आदि) की सम्प्रयोग रूप जो इच्छा है वह अविरति है। अर्थात् विरक्ति का अभाव अविरति योग साधना में एक विघ्न है। जब तक विषयो के प्रति आसक्ति रहेगी तब तक चित्त की वृत्तियों का निरोध सम्भव नही है। इस प्रकार योग साधना के लिए अविरति एक महान अन्तराय है।

 

भ्रन्तिदर्शन -

 

  • योग साधना का सातवाँ अन्तराय या विघ्न भ्रान्तिदर्शन है। भ्रान्तिदर्शनं विपर्ययज्ञानम ।' अर्थात् मिथ्याज्ञान को भ्रान्तिदर्शन कहते है। मिथ्याज्ञान एक क्लिष्ट वृत्ति है, विपर्यय है। विपर्यय अर्थात् किसी एक वस्तु को देख कर या सुन कर उस वस्तु को उस वस्तु से भिन्न समझ लेना जैसे रस्सी को सॉप समझ लेना या मरूस्थल में जल की भ्रान्ति हो जाना। इसी प्रकार साधक योग के साधनो को असाधन समझ कर उनकी अवहेलना करता है। मिथ्या ज्ञान के कारण ही गुरू के द्वारा तथा शास्त्रों में कही हुई बातो पर अविश्वास होने लगता है, तथा योग साधना के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न होती है। जिससे योग साधना में विघ्न होता है। योग साधना के लिए यह अन्तराय सबसे प्रबल शत्रु है।

 

अलब्ध भूमिकत्व -

 

  • योग साधना का आठवॉ अन्तराय है, अलब्ध भूमिकत्व योग व्यास भाष्य में कहा गया है 'अलब्धभूमिकत्वं समाधिभूमेरलाभः ।' अर्थात समाधि की किसी भी भूमि की प्राप्ति न होना योग साधना में विघ्न है। योग साधना करते करते समाधि की प्राप्ति होने पर उसकी अन्य भूमियों की प्राप्ति न कर पाना ही अलब्ध भूमिकत्व है। साधना को जब समाधि की प्रथम भूमि प्राप्त हो जाती है, तब उसके उत्साह में वृद्धि होने लगती है। इसी कारण वह सोचता है कि एक भूमि प्राप्त होने पर अन्य भूमि भी उसी तरह सहजता से प्राप्त हो जायेगी, जैसे प्रथम भूमि प्राप्त हुयी है। परन्तु किसी कारण वश उसकी प्राप्ति ना होना अलब्ध भूमिकत्व कहा गया है।

 

अनवस्थित्व -(अनवस्थित्व क्या होता है ?)

 

नवा विघ्न या अन्तराय अस्थिरता है। अस्थिरता के कारण अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाता है। समाधि भूमि प्राप्त हो जाने पर भी उसमें चित्त का न ठहरना अर्थात ध्येय का साक्षात्कार होने से पूर्व ही समाधि का छूट जाना ही अनवस्थितत्व है। 


योग भाष्यानुसार - 

"अनवस्थितत्वं यललब्धायां भूमौचितस्याप्रतिष्ठा समाधिप्रतिलाम्भे हि सति तदवस्थितं स्यदिति ।।"

 

अर्थात समाधि की प्राप्ति की भूमि पर चित्त का न लगना क्योकि समाधि की सिद्धि होने पर तो चित्त अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाता है। परन्तु अनवस्थितत्व की स्थिति में

 

साधक अपनी सफलता को देखकर अपने कर्त्तव्य कर्मों को पूर्ण समझ कर साधना बीच में ही छोड़ बैठते हैं। जिस कारण पूर्ण सफलता प्राप्त होने पर ही चित्त योग साधना में नही लगता चित्त का योग साधना में ना लगना एक बड़ा विघ्न है। इसलिए महर्षि पतंजलि ने साधक के लिए पूर्व में ही योग दर्शन ( 1 / 14 ) में निर्देश दिये है कि योग साधना के लिये निरन्तर दीर्घकाल तक सेवापूर्वक, श्रद्धापूर्वक करनी चाहिए। जिससे कि साधक अपने लक्ष्य समाधि की सिद्धि कैवल्य प्राप्त कर सके। इस प्रकार प्रिय पाठको महर्षि पतंजलि द्वारा वर्णित योग के नौ अन्तराय है। इन्हे अन्तराय या विघ्न या विक्षेप कहा जाता हैं। इन नौ विक्षेपो, अन्तरायो या विघ्नो के साथ साथ होने वाले पॉच उपविघ्न भी है। जिन्हे इनके साथ - साथ चलने के कारण विक्षेप सहभुवः या उपविघ्न या अन्तराय भी कहा जाता है। 

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