नियम का स्वरूप नियम के प्रकार, महर्षि पतंजलि के योगसूत्र के अनुसार नियमों की व्याख्या
नियम का स्वरूप
- यमों के साथ नियमों का पालन भी आवश्यक है। यमों में मानसिक भूमिका अधिक महत्वपूर्ण है। यह मनुष्य की सामाजिक एवं वाह्य क्रियाओं को सामजस्यपूर्ण बनाते है, तो नियम से मनुष्य जीवन का नियमन होता है। यम और नियम साधक के लिए क्रमशः सामाजिक और व्यक्तिक उपलब्धि है।
वेदों में यम और नियम को एक पक्षी के दो पंखों के समान कहा है। जिस प्रकार पक्षी अपने दोनों पंखों के फड़फड़ाने पर ही आकाश में विचरण करते है, उसी प्रकार योगी को भी यम, नियम का समान भाव से पालन करना अनिवार्य है। तथा इसके पालन से ही वह योग साधना के पथ पर अग्रसर होता है। योग के आठ अंगों में यम के बाद नियम का वर्णन किया गया है। महर्षि पतंजलि ने नियम पाँच बताये है। परन्तु विभिन्न ग्रन्थों में उपनिषदों में नियमों की व्याख्या व परिभाषाएं व संख्या भिन्न प्रकार से मिलती है।
याज्ञवलक्य संहिता में नियमों की संख्या 10 बताई गयी है। जिसका वर्णन इस प्रकार से है-
"तपः सन्तोष आस्तिक्यं दानमीष्वर पूजनम् ।
सिद्धान्तवाक्य श्रवणं हृीमती च जपो हुतम् ।
नियमादष प्रोक्ता योग शास्त्र विषारदैः ।।" ( याज्ञवल्क्य संहिता)
अर्थात
तप, सन्तोष, ईश्वर तथा वेद पर विश्वास, दान, सिद्धान्त वाक्यों को सुनना, जप, ध्यान, लज्जा, मति तथा अग्निहोत्र ये दस नियम कहलाते है।
भागवत् स्कंद में नियम 10 बताये गये हैं -
शौचं जपस्तपो होमः श्रद्धाऽऽतित्यं चार्चनम् ।
तीर्थाटनं परार्थेहा तुष्टिराचार्यसेवनम् ।।"
( भागवत् स्कन्द 11 अ0 20 श्लोक 34 )
अर्थात
शौच, जप, तप, होम, श्रद्धा, अतिथि सत्कार, ईशभक्ति, तीर्थ भ्रमण, परहित की भावना, सन्तोष तथा गुरू
या आचार्य की सेवा, ये 11 (ग्यारह) नियम है।
विभिन्न उपनिषदों में नियम की व्याख्या की गयी है
- शाण्डिल्य उपनिषद में तथा दर्षनोपनिषद में भी नियम का वर्णन मिलता है ।
- बराहोपनिषद तथा त्रिषिखीब्रह्मणोपनिषद व दर्षनोपनिषद में भी दस नियमों का प्रतिपादन किया गया है।
वैदिक मतानुसार
पाँच प्रकार के नियमों का उल्लेख संहिताओं में मिलता है। जिनका उल्लेख महर्षि
पतंजलि ने योगसूत्र में इस प्रकार किया है.
नियम के प्रकार
शौच सन्तोष तपः
स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधानानि
नियमाः ।। (पाoयो0सू० 2 / 32 )
अर्थात शौच, संतोष, तप, स्वा य, ईश्वरप्रणिधान ये पाँच नियम है।
1 शौच
शौच शब्द की निष्पत्ति शुचि शब्द में अण् प्रत्यय लगाकर होती है। जिसका अर्थ है, पवित्रता, परिशुद्धि, सफाई। शौच से तात्पर्य शारीरिक, मानसिक व वाचिक शुद्धि से है।जिसमें निन्दतों का संग ना करना आदि है।
शौच या शुद्धि को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है -
अ) वाह्य शुद्धि 1. शारीरिक शुद्धि 2. वाचिक शुद्धि ब)
आन्तरिक शुद्धि – मानसिक शुद्धि
अ) वाह्य शुद्धि -
वाह्य शुद्धि वह है जिसके अन्तर्गत शारीरिक शुद्धि तथा वाचिक शुद्धि आते है।
"आपो अस्मान् मातरः शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्वः पुनन्तुः ।" ( यर्जुवेद 4 / 2 )
शारीरिक शुद्धि
के अन्तर्गत सत्याचरण से मानव व्यवहार की शुद्धि विद्या व तप से पंचमहाभूतों की
शुद्धि ज्ञान से बुद्धि की शुद्धि आदि होती है। शारीरिक शुद्धि पवित्र जल से स्नान
आदि द्वारा होती है। शारीरिक शुद्धि के लिए जल अत्यन्त उपयोगी, रोगनाशक व
पुष्टिकारक व ब्रह्मचर्य में सहायक प्राणों को धारण करने वाला माता - पिता के समान
पालन करने वाला है।
वचिक शुद्धि के
अन्तर्गत सत्याचरण स्पष्ट व्यवहार व वाणी को पवित्र करने के लिए मन्त्रोचारण एवं
शुद्ध शब्दोचारण आदि आता है। मधुर भाषा द्वारा ही वाणी की शुद्धि सम्भव है। अतः
योग साधना में तत्पर साधकों के लिए वाणी का शुद्ध होना अत्यन्त आवश्यक है।
ब) आन्तरिक शुद्धि
- अन्तःकरण में उठने वाले भावों की शुद्धि आन्तरिक शुद्धि कहलाती - है। दूषित भावनाओं को समाप्त करने के लिए तथा पवित्र मानसिक भावनाओं को जाग्रत करने के सत्संग, साधना, प्राणायाम, ध्यान आदि साधना करना ही आन्तरिक शुद्धि है। धर्म में कमाया धन, कर्मों तथा सात्विक खान पान से मानसिक भावों का परिष्कार होता है।
मानसिक शुद्धि ईर्ष्या, अभिमान, घृणा आदि मन के मलों को योगसूत्र में बताये गये उपाय (मैत्री, करूणा, मुदिता, उपेक्षा -1 / 31 ) द्वारा दूर करना तथा मन में आने वाले बुरे विचारों को अच्छे विचारों से दूर करना तथा शुद्ध व्यवहार द्वारा दुर्व्यवहार को हटाना ही मानसिक (शौच) शुद्धि है।
योगसूत्र में शौच के फल के विषय में कहा गया है -
शौचत्स्वांगजुगुप्सा
परैरसंसर्गः । (पाoयो०सू० 2/40)
अर्थात शौच (पवित्रता) के पालन से अपने अंगों में वैराग्य (घृणा) और दूसरों से संसर्ग न करने की इच्छा होती है।
महर्षि पतंजलि ने अगले सूत्र में वर्णन किया है।
सत्वषुद्धिसौमनस्यैकाग्रयेन्द्रियजयात्म दर्षन योग्यत्वानि च। (पाoयो०सू० 2 / 41 )
अर्थात इसके सिवाय शौच से 'अन्तःकरण' की शुद्धि होती है, तथा चित्त एकाग्र होता है, मन में प्रसन्नता, इन्द्रिया वश में होती है तथा आत्म दर्शन की योग्यता आती है।
2 सन्तोष -
सन्तोष शब्द तुष
शब्द एवं तुष प्रीतौ धातु से निर्मित हुआ है। सन्तोष का अर्थ है - समयक् प्रकार से
तुष्टि एवं प्रीति अर्थात शरीर द्वारा पूर्ण पुरुषार्थ कर उससे प्राप्त धन से अधिक
का लालच ना करना तथा न्यूनाधिक (कम ज्यादा) की प्राप्ति पर शोक और हर्ष ना करना.
सन्तोष का पालन, मन, वचन तथा कर्म से करना अनिवार्य है, व साधक के लिए हितकारी है। सामान्य अर्थ में अन्तःकरण में सुतुष्टि का भाव जाग्रत होना ही सन्तोष है। अपने कर्तव्य कर्मों को करते हुए हमें प्रारब्ध कर्मों के कारण जो भी अर्थ लाभ हो उसी में संतुष्ट बने रहना सन्तोष है। हर परिस्थिति में सुख में, दुःख में, सदा सम बने रहना अपना धैर्य ना खोना तथा प्रसन्नचित्त बने रहना सन्तोष है। इसके विपरीत असन्तोष या तृष्णा ही दुःख का मूल है। सन्तोष का पालन मन, वचन एवं कर्म तीन प्रकार से पालनीय है
1. मानसिक सन्तोष
मानसिक सन्तोष वह है धन, सम्पत्ति व भोग सामाग्री की - न्यूनता होने पर भी संतुष्ट रहना, समाज या ईश्वर या प्रारब्ध पर क्रोध, रोष या अधैर्य न करना, मानसिक सन्तोष है। वेदों में सन्तोष के पालन का आदेश इस प्रकार दिया गया है-
'तेन व्यक्तेन भुज्जीथा मा गृधः कस्थस्विद्धनम् । ( यजुर्वेद 40 / 1 )
अर्थात
'सन्तोष बुद्धि उत्पन्न करने के लिए त्यागपूर्वक भोग करो
किसी के धन की लालसा मत करो। वेद का यह आदेश पालनीय है।
2. वाचिक सन्तोष
अत्यधिक बोलने का त्याग कर परिमित बोलना ही वाचिक - सन्तोष है। किसी के कठोर वचन सुनकर या अपमानित होने पर भी आवेग में ना आना, विवाद ना करना, गुरुजनों व श्रेष्ठजनों द्वारा प्रताड़ित होने पर प्रत्युत्तर ना देना तथा मौन धारण करना वाचिक सन्तोष के अन्तर्गत आता है।
वेदों
में वाचिक सन्तोष का वर्णन इस प्रकार किया है -
' वाचं वदतु शन्विाम् ।
वचं वदत भद्रया
।। ( अर्थववेद 3/30/2 - 3
)
अर्थात मधुर वाणी
व भद्र वाणी तथा शान्तिमय वचन बोलने चाहिए, यही वाचिक सन्तोष है।
3. शारीरिक सन्तोष
- ब्रह्मचर्य का पालन करना, सत्कर्मों का अनुष्ठान करना, दीन दुःखियों की सेवा करते हुए काम, क्रोध आदि दोषों से प्रभावित न होना, हिंसा, चोरी आदि गलत कृत्य ना करना ही शारीरिक सन्तोष है।
इस प्रकार धन तथा भोग विलास को अनित्य जानकर सभी सांसारिक सुखों को गौण मानकर साधक का लक्ष्य ब्रह्मप्राप्ति का होना ही सन्तोष है। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि सन्तोष का अर्थ जहाँ जो कुछ मिले उसी में संतुष्ट रहना है तो इसका अर्थ यह नहीं कि आलसी व भाग्य के भरोसे बैठे रहना सन्तोष है। शास्त्रों व वेदों में ऐसे आलसी व प्रमादी व परिश्रम ना करने वालों का विरोध - किया गया है। योग सूत्र में सन्तोष का फल बताते हुए कहा गया है-
संतोषादनुत्तमसुख लाभः ।' (पा०यो0सू० 2 / 42 )
चित्त में सन्तोष भाव प्रतिष्ठित हो जाने पर योगी को उत्तम सुख आनन्द की प्राप्ति होती है।
3 तप -
- तप का तात्पर्य है। उचित रीति द्वारा उचित अभ्यास से शरीर प्राण, इन्द्रिय और मन को वश मे करना। जिससे योग साधना काल में सर्दी गर्मी, भूख प्यास, हर्ष शोक, मान– अपमान आदि द्वन्दों को सहन करते हुए साधना में डटा रहा जा सके, यही तप है।
- योग मार्ग में अपने वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और योग्यता के अनुसार स्वधर्म का पालन करना और उसके पालन में जो भी शारीरिक, मानसिक अधिक से अधिक कष्ट प्राप्त हो उसे सहर्ष सहन करना, इसका नाम तप है। परन्तु योग मार्ग में शरीर को कष्ट देकर, पीड़ा देकर इन्द्रियों में विकार उत्पन्न होने या चित्त अप्रसन्नता हो तो ऐसे तप को तामसी तप कहा गया है, और उसका निषेध किया गया है।
वैदिक संहिताओं के अनुसार -तप को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है
- मानसिक तप, वाचिक तप तथा शारीरिक तप ।
1. मानसिक तप -
- मानसिक तप वह है जब काम, क्रोध, मोह, ईर्ष्या आदि आन्तरिक अन्तर्द्वन्द से प्रभावित होने पर उनसे उत्पन्न दुर्भावों को दैवीय गुणों से युक्त भावों या सुविचारों से नष्ट करते रहना ही मानसिक तप है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कुविचार ( आसुरी प्रवृत्तियों) को सुविचारों द्वारा नष्ट कर देना ही मानसिक तप है।
2. वाचिक तप -
सत्य बोलना, प्रिय बोलना, शास्त्रों के अनुसार शुद्ध विचारों से युक्त वाणी, व्याकरण युक्त शुद्ध भाषा का प्रयोग करना तथा हास्यास्पद या छलयुक्त वचन का प्रयोग ना करना वाणी के तप कहलाते है।
श्रीमद्भगवद् गीता में वाणी के तप या वाचिक तप के विषय में इस प्रकार कहा गया है-
"अनुद्वेगेकरं वाक्यं सत्यं प्रियं हितं च यत्
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाड्मयं तपउच्यते ।।" (गीता 17 / 15 )
अर्थात
उद्वेग व आक्रोश ना करने वाला वाक्य तथा
जो प्रिय एवं हितकारी हो सत्य हो और स्वाध्याय का अभ्यास ये सभी वाणी के तप है। इस
प्रकार वाणी के तप द्वारा साधक को अमोध शक्ति प्राप्त होती है।
3. शारीरिक तप -
शारीरिक द्वन्दो को सहन करना शरीर से शीत तथा उष्ण, भूख - प्यास सहन करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना तथा योगानुष्ठान आसन, प्राणायाम, ध्यान आदि करना शारीरिक तप है। शारीरिक तप से मानसिक पापों का क्षय होता है। अतः शारीरिक, मानसिक तथा वाचिक तीनों तपों का साधक के जीवन में अत्यधिक महत्व है। तीनों पालनीय है।
श्रीमद्भगवद्गीता में शारीरिक तप का वर्णन करते हुए कहा गया है -
"देवद्विजगुरूप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शरीरं तपउ च्यते ।।"
(गीता 17 / 14 )
अर्थात
देव तुल्य
आत्मदर्शियो, द्विजातियो, गुरूजनों तथा
प्रज्ञाविवेक वाले साधकों का सत्कार करना व पवित्र आचरण सरलता का व्यवहार तथा
अहिंसा का पालन करना आदि शारीरिक तप कहे जाते है। महर्षि पतंजलि ने वर्णन किया है
कि तप के सिद्ध हो जाने पर या तप प्रतिष्ठित हो जाने पर शरीर में अशुद्धियों का
नाश हो जाता है।
'कायेन्द्रियसिद्धिरषुद्धिक्षयात्तपसः ।।' (पाoयो0सू० 2 / 43 )
अर्थात
तप से अशुद्धि का नाश हो जाने पर शरीर और इन्द्रियों की सिद्धि हो जाती है। तप के द्वारा क्लेशों तथा पापों का क्षय होने पर शरीर में अणिमा, महिमा, आदि सिद्धियां आ जाती है और इन्द्रियों में दूर दर्शन, दूर श्रवण, दिव्य गन्ध, दिव्य रस आदि सूक्ष्म विषयों को ग्रहण करने की शक्ति आ जाती है।
4 स्वाध्याय
स्वाध्याय का तात्पर्य वेद, उपनिषद, दर्शन आदि मोक्ष शास्त्रों का गुरूजनों, विद्वान तथा आचार्य से अध्ययन करना। स्वाध्याय का दूसरा अर्थ है। स्वस्थ अध्ययनं स्वाध्यायः' अर्थात यह भी स्वाध्याय है। आत्म चिन्तन भी स्वाध्याय है।
योग भाष्यकार व्यास जी ने लिखा है-
'स्वाध्यायः प्रणव
श्रीरूद्रपुरूषसुक्तादि मन्त्राणां जप' मोक्षषास्त्राध्यय च ।
'अर्थात
- प्रणव अर्थात ओंकार मन्त्र का विधिपूर्वक जप करना, रूद्रसूक्त तथा पुरुषसूक्त आदि मन्त्रों का अनुष्ठान पूर्वक जप करना, दर्शन उपनिषद एवं पुराण आदि आध्यात्मिक मोक्ष शास्त्रों का गुरू वाणी से श्रवण करना अर्थात अध्ययन करना स्वाध्याय है। प्रतिमायें है।
- पं० श्री राम
शर्मा जी के अनुसार 'अच्छी पुस्तकें
जीवन्त देव जिनकी आराधना से तत्काल प्रकाश और उल्लास मिलता है।'
अतः स्वाध्याय का अभिप्राय केवल मात्र पुस्तकों, ग्रन्थों का अध्ययन मात्र नहीं है। साधक को चाहिए कि उनको समझ कर सार भाव को ग्रहण करना चाहिए तथा योग साधना में प्रयासरत रहे। क्योंकि स्वाध्याय से ही योग मार्ग का ज्ञान होता है तथा मोक्ष मार्ग प्रशस्त होता है। स्वाध्याय से ही उच्च विचारों का समावेश जीवन में होता है।
स्वाध्याय का फल बताते
हुए महर्षि पतंजलि ने इस प्रकार लिखा है -
'स्वाध्यायादिष्टदेवता
सम्प्रयोगः ।' (पाoयोoसू० 2 / 44 )
अर्थात स्वाध्याय
या प्रणव आदि मन्त्रों के उच्चारण से व साधना व जप करने से इच्छित देवता या ईष्ट
देवता का दर्शन हो जाता है।
5 ईश्वर प्रणिधान
नियम का अन्तिम अंग है ईश्वर प्रणिधान। ईश्वर की उपासना विशेष भक्ति भाव को ईश्वर प्रणिधान कहते है। महर्षि पतंजलि ने सामान्य श्रेणि (कोटि) के साधकों के लिए अष्टांग योग का वर्णन किया है। यम और नियम प्रथम व दूसरे अंगों के रूप में है। नियम का अन्तिम अंग है, ईश्वर प्रणिधान। इससे यह भाव परिलक्षित होता है कि जब सामान्य कोटि का साधक यम, नियम का पूर्ण रूप से पालन करता है, तभी ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पित पाता है तब उसे ईश्वरीय कृपा प्राप्त होती है।
ईश्वर प्रणिधान को व्यास भाष्य में इस प्रकार परिभाषित किया गया है -
'ईश्वर प्रणिधानं तस्मिन्यरमगुरौ सर्वकर्मार्पणम् । (व्यास भाष्य 2 / 32 )
अर्थात
उस परम गुरू परमेश्वर को सभी कर्मों को अर्पण करना ईश्वर प्रणिधान है। अतः मन, वचन, कर्म, व बुद्धि से ईश्वर के प्रति समर्पण ही ईश्वर प्रणिधान है। अथर्ववेद में वर्णन है हे वरणीय परमेश्वर हम जिस शुभ संकल्प इच्छा के साथ आपकी उपासन में - - लगे हुए है, आप उसमें पूर्णता प्रदान करें। सिद्धि दे और हमारे समस्त कर्म तथा कर्म फल आपके निमित्त अर्पित है। इसी का नाम ईश्वर प्रणिधान है।
महर्षि पतंजलि ने ईश्वर प्रणिधान के फल बताते हुए
कहा है -
'ईश्वरप्रणिधानाद्वा
।' (पाoयोoसू० 1 / 23)
अर्थात
ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि शीघ्र ही हो जाती है। सूत्र 2 / 45 में भी महर्षि पतंजलि ने यही बात कही है-
समाधि सिद्धिश्वर प्रणिधानात् ।'
अर्थात
- ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि हो जाती है। अर्थात समाधि की सिद्धि प्राप्त हो जाने पर ईश्वरीय कृपा हो जाती है। साधक के मार्ग सभी विघ्न बाधा दूर हो जाती है। सभी कष्ट दूर हो जाते है, तत्पश्चात् योगसिद्धि बिना किसी विलम्ब के प्राप्त हो जाती है।
ईश्वर शरणागति एक ऐसा अकेला साधन है, जिसमें साधक अपने शरीर, मन, बुद्धि एवं अहंकार सहित पूर्ण रूपेण ईश्वर को समर्पित कर देता है। साधक का निजत्व समाप्त होकर वह ईश्वर की इच्छा के अनुकूल कार्य करने लगता है। साधक स्वयं को बॉस की पोगंरी की तरह खाली कर देता है और उसमें स्वर ईश्वर का होता है। वह अपने को पूर्ण रूपेण समर्पण कर देता है। जिससे ईश्वर उसका हाथ थाम लेता है।
यही बात श्रीमद्भगवद् गीता में भी स्वयं श्री कृष्ण द्वारा कही गयी है।
"अनन्यश्रिचन्तयन्तो मां ये जनाः युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।" (गीता 9 / 22 )
अर्थात
- जो अनन्य प्रेमी भक्त जन मुझ परमेश्वर को निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से भजते है। उस नित्य निरन्तर मेरा चिन्तन करने वाले पुरुषों का योगक्षेम मैं स्वयं करता हूँ। अर्थात् उसकी रक्षा के साथ-साथ भगवद् प्राप्ति के निमित्त साधन की रक्षा स्वयं करता हूँ।