आश्रम व्यस्था का वर्णन (Aashram Vyastha Details in Hindi)
आश्रम शब्द का अर्थ
- आश्रम शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के श्रम् धातु से हुई है। जिसका अर्थ है परिश्रम या प्रयास करना अतः आश्रम वे स्थान हैं, जहाँ प्रयास किया जाय मूलतः आश्रम जीवन की यात्रा में एक विश्राम स्थल है जहाँ आगे की तैयारी की जाती है। इसका अन्तिम लक्ष्य मोक्ष तक पहुॅचना होता है । वर्णव्यवस्था का सिद्धान्त सम्पूर्ण समाज के लिए था और आश्रम का सिद्धान्त व्यक्ति के लिए था। चारो आश्रम ब्रह्मचर्य गृहस्थ, वानप्रस्थ व सन्यास तथा चारो पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष, इनके बीच घनिष्ठ सम्बन्ध माना गया है।
1 ब्रह्मचर्य आश्रम
- ब्रह्मचर्य आश्रम में धर्म की शिक्षा दी जाती है । ब्रह्मचर्य शब्द ब्रह्म और चर्य दो शब्दों से मिलकर बना है। ब्रह्म का अर्थ है वेद अथवा महान तथा चर्य का अर्थ है विचरण या अनुसरण करना। इस प्रकार ब्रह्मचर्य का अर्थ है - विद्याध्ययन के मार्ग पर चलना। इसका प्रारम्भ उपनयन संस्कार से होता है। इस संस्कार के पश्चात् ही ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश मिलता था। शास्त्रों में ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य इन तीनो वर्णों के उपनयन संस्कार का वर्णन मिलता है। स्त्रियों का भी उपनयन का अधिकार था, जिससे ज्ञात होता है कि उन्हें भी वेदाध्ययन का अधिकार प्राप्त था । वेदाध्ययन की समाप्ति के बाद समावर्तन संस्कार होता था। ब्रह्मचारी गुरुकुल में रहकर विभिन्न विषयों का अध्ययन करता था एवं नियमित रूप से भिक्षाटन करता था। वह सूर्योदय के पूर्व उठता था । दिन में तीन बार स्नान करता था प्रातः एवं सायंकाल सन्ध्या करता था। वह केवल दो बार भोजन करता था। उसके लिए नृत्य, गान, सुगन्धित द्रव्यों का उपयोग, स्त्रियों की संगति सब कुछ वर्जित थे। वह सदाचार व सचरित्रता का पालन करता था । विद्वान् कहते हैं कि इससे ब्रह्मचारी की मनः स्थिति का विकास होता था तथा भिक्षावृत्ति से उसमें विनम्रता का भाव जागृत होता था ब्रह्मचारी द्वारा अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इत्यादि का पालन करने से उसके व्यक्तित्व का विकास होता था । वह ज्ञान पिपासु, अंहिसक, सत्यभाषी, सच्चरित्र, गुरु, सेवक, काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष से रहित होकर सात्विक जीवन व्यतीत करता था । विद्यार्थी के ब्रह्मचर्य की अवधि प्रायः बारह वर्ष की होती थी तब तक वह पच्चीस वर्ष की आयु को प्राप्त हो जाता था । ब्रह्मचारी दो प्रकार के बताये गये हैं। उपकुर्वाण और नैष्ठिक, उपकुर्वाण विद्यार्थी वे थे जो विवाह से पूर्व तक गुरुकुल में रहकर विद्या ग्रहण करते और गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के लिए घर की ओर लौटते ।
- नैष्ठिक ब्रह्मचारी आठ वर्ष में उपनयन संस्कार से लेकर 48 वर्ष का ब्रह्मचर्य व्रत करते हुए 56 वर्ष तक अध्ययनरत रहते थे। कभी-कभी वे जीवन पर्यन्त गुरु के समीप रहकर अध्ययन करते थे और अन्त में इन्हें ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती थी । इन्हें अन्तेवासी कहा जाता था । अध्ययन की समाप्ति के पश्चात् ब्रह्मचारी स्नान करता था। यह अध्ययन के अन्त का सूचक था। तत्पश्चात् वह स्नातक कहा जाता था तथा अगले आश्रम में प्रवेश के योग्य बन जाता था.
2 गृहस्थ आश्रम
- गृहस्थ आश्रम सभी आश्रमों में सबसे महत्त्वपूर्ण आश्रम माना गया है। इसकी अवधि 25 से 50 वर्ष तक मानी गयी है। गृहस्थ आश्रम में रहकर ही मनुष्य अपने व्यक्तिगत, सामाजिक धार्मिक, नैतिक, आर्थिक आदि विभिन्न कर्त्तव्यों का पालन करता था । गुरुकुल से लौटने के पश्चात् विवाहोपरान्त वह गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था । शास्त्रों में गृहस्थ के कर्त्तव्य हैं अपने धर्म के अनुकूल जीविकोपार्जन करना, विधिपूर्वक विवाह करना, विवाहिता पत्नी से ही सम्बन्ध रखना, देवों, पितरों एवं सेवकों आदि को खिलाने के बाद बचे हुए अन्न को ग्रहण करना । इस आश्रम में ज्ञान योग की तुलना में कर्मयोग को प्रधानता दी गई है। गृहस्थ आश्रम में ही गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, कर्णछेदन, विद्यारम्भ, उपनयन, विवाह, अन्त्येष्टि आदि सभी संस्कार सम्पन्न किये जाते थे।
- गृहस्थ आश्रम में ही मनुष्य तीन ऋणों से मुक्ति प्राप्त करता था । ये ऋण हैं देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण । यज्ञ इत्यादि धार्मिक अनुष्ठानों के द्वारा देवताओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करके देव ऋण से मुक्ति पाई जाती थी । विधि पूर्वक वेदों का अध्ययन करने से ऋषि ऋण से मुक्ति मिलती थी तथा धर्मानुसार सन्तानोत्पत्ति करके व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता था ।
- उपर्युक्त तीनों ऋणों से मुक्त होना मनुष्य का परम - कर्तव्य माना गया था। उसके बिना मोक्ष सम्भव नहीं था । गृहस्थ आश्रम में रहते हुए मनुष्य को पञ्चमहायज्ञों का अनुष्ठान करना अनिवार्य था। ये पञ्चमहायज्ञ थे ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ और नृयज्ञ । ब्रह्मयज्ञ के माध्यम से व्यक्ति ऋषियों की वेदज्ञता और उनकी अद्भूत मेधा का स्मरण कर वैदिक मन्त्रों का पाठ करके बौद्धिक उत्कर्ष को प्राप्त करता था । पितृयज्ञ के अन्तर्गत पितरों का तर्पण, बलिहरण अथवा श्राद्ध इत्यादि कर्म सम्पन्न किये जाते थे ।
- देवयज्ञ में देवताओं का पूजन, बलि, घृत आदि विभिन्न सामग्रियों से अग्नि में आहुति दी जाती थी। यह यज्ञ पत्नी के बिना सम्भव नहीं था इसलिए विवाहित होकर गृहस्थ बनना आवश्यक था। यज्ञ में आहुति देते समय विभिन्न देवताओं के नाम के साथ स्वाहा उच्चरित किया जाता था भूतयज्ञ के माध्यम से विघ्नकारी और अनिष्टकारी प्रेतात्माओं की तुष्टि के लिए बलि प्रदान की जाती थी। बलि भाग को अग्नि में न डालकर विभिन्न दिशाओं में रखा जाता था, जिसे सभी प्राणी ग्रहण कर सकें। बलि देने की भावना श्रेष्ठ मानी गई थी ।
- नृयज्ञ को अतिथि यज्ञ भी कहा गया है। अतिथि की यथा शक्ति सेवा करना और उसे भोजन प्रदान करना प्रत्येक गृहस्थ का परम कर्तव्य माना गया है। अतिथि को देवता के रूप में देखा जाता था। इस प्रकार तीन ऋण तथा पाँच महायज्ञ गृहस्थाश्रम में व्यक्ति को लौकिक तथा पारलौकिक सुख देने वाले थे। गृहस्थाश्रम में धर्मसंगत आचरण करता हुआ मनुष्य अर्थ एवं काम की प्राप्ति तथा उपभोग करता था । यह साधना किसी अन्य आश्रम में सम्भव नहीं थी । इसलिए प्राचीन धर्मशास्त्र गृहस्थ आश्रम को सर्वश्रेष्ठ घोषित करते हैं।
3 वानप्रस्थ (वैखानस ) आश्रम
- गृस्थाश्रम के कर्तव्यों को भली-भाँति पूर्ण कर लेने के बाद मनुष्य वानप्रस्थ में प्रवेश करता था । वह अपने कुल, गृह एवं ग्राम को त्याग कर वन में संयमित जीवन व्यतीत करता था । वानप्रस्थ जीवन में मनुष्य का मूल उद्येश्य आध्यात्मिक उत्कर्ष और समस्त भौतिक स्पृहाओं से मुक्ति पाना था। वह इस जीवन में तप, त्याग, अहिंसा और ज्ञान का अर्जन करता था । शरीर की शुद्धि और तपस्या की वृद्धि के लिए वह संयमित और कठोर जीवन का अनुपालन करता था । वानप्रस्थी को वेदों का अध्ययन करना सबके लिए मैत्री भाव रखना, मन को वश में रखना तथा सभी जीवों पर दया करने का व्रत लेना पड़ता था। वह दिन में दो बार स्नान और होम का अनुष्ठान करता था। वह पञ्चमहायज्ञों का सम्पादन करता था । वह जंगली कन्दमूल फल को ग्रहण करता था तथा जंगल में प्राप्त चर्म, कुश तथा कास आदि से अपना परिधान बनाता था । वह भूमि तल पर शयन करता हुआ ब्रह्मचर्य का पालन करता था। इस प्रकार का जीवन जीने से वह मोक्ष की ओर अग्रसर होता था। अपने शरीर को घोर कष्ट देना और कठोर संयम से तपाना वानप्रस्थ जीवन का प्रधान नियम था ।
4 सन्यास आश्रम
- यदि मनुष्य बानप्रस्थ आश्रम को पार कर लेता तब वह अन्तिम आश्रम सन्यास में प्रवेश करता था। सन्यासी का भिक्षु, यति, परिवाट् और परिव्राजक भी कहा गया है। इस आश्रम की अवधि 75 से 100 वर्ष तक की मानी गई है। संन्यास आश्रम का मूल लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करना था, इसलिए वह राग, द्वेष और माया से विरत पूर्ण एकाकी जीवन व्यतीत करता था। महाभारत में कहा गया है कि वह अग्नि, धन, पत्नी और सन्तान के प्रति हमेशा अनासक्त रहे। वह आसन, वस्त्र, शैया आदि सुख के साधनों का त्याग करके सदा भ्रमणशील रहे। कांचन और पाषाण, शत्रु और मित्र सभी उसकी दृष्टि में एक समान हों। संन्यासी के लिए निर्दिष्ट था कि वह सदा भ्रमणशील रहे एक गाँव में एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रियों से अधिक नहीं ठहर सकता था। वह सदा ब्रह्म के ध्यान में लीन रहे तथा योगासनों में बैठा हुआ अपेक्षा से रहित केवल शरीर मात्र की सहायता प्राप्त मोक्ष को चाहने वाला तथा उसे दिन में एक बार ही भोजन ग्रहण करना चाहिए। सन्यास का प्रचलन प्रायः ब्राह्मणों में अधिक था क्षत्रियों एवं वैश्य के सन्यासी होने का कोई विवरण नहीं है। विदुर के सन्यासी होने का विवरण एकमात्र अपवाद है। इस प्रकार प्रत्येक आश्रम जीवन की एक अवस्था है, जिसमें रहकर व्यक्ति एक निश्चित अवधि तक प्रशिक्षण प्राप्त करता है। प्राचीन विद्वानों ने चतुराश्रम व्यवस्था के माध्यम से प्रवृति एवं निवृत्ति के आदर्शों में समन्वय स्थापित किया है।