आधुनिक पाश्चात्य दर्शन में मानव स्वरूप की अवधारणा
आधुनिक पाश्चात्य दर्शन में मानव स्वरूप की अवधारणा
मध्ययुगीन पाश्चात्य दर्शन के ऊपर धर्म ईसाई धर्म का व्यापक प्रभाव था । इस युग में दार्शनिकों का प्रमुख कार्य ईसाई धर्म की मान्यताओं के औचित्य को स्थापित करना था, जिसके लिए प्रायः ग्रीक दर्शन विशेष रूप में प्लेटो एवं अरस्तू के विचारों को इस प्रकार प्रस्तुत करने की चेष्टा की गयी जिससे ईसाई धर्म की मान्यताओं हेतु तर्क दिये जा सकें।
1 बुद्धिवाद के अनुसार मानव स्वरूप की विवेचना
- बुद्धिवाद वह दार्शनिक परम्परा है जो बुद्धि को ही ज्ञान का स्रोत एवं प्रमाण मानती है । इसीलिए इनकी मजबूरी थी कि वे 'जन्मताज प्रत्यय' की सत्ता को माने क्योंकि ज्ञान का स्रोत 'बुद्धि' है और बुद्धि में प्रत्यय ही पाये जाते है। इतना ही नही बुद्धिवादी मानवीय ज्ञान को विश्लेषणात्मक एवं प्रागनुभविक भी मानते है ।
- डेकार्ट जिन्हें आधुनिक दर्शन का पिता भी कहा जाता है, ने संदेह पद्धति के द्वारा 'चेतना' की स्वतंत्र सत्ता के रूप में दर्शन को एक ऐसा सुदृढ़ आधार उपलब्ध कराया जिस पर उनके बाद के दार्शनिकों ने दर्शन को भव्य महल का निर्माण किया ।
- डेकार्ट ने शुरू से शुरू करते हुए, यह जानने का प्रयास किया कि मानवीय ज्ञान में क्या कुछ ऐसा भी है जिस पर किसी भी प्रकार से संदेह न किया जा सके? असंदिग्ध की खोज हेतु उन्होंने संदेह पद्धति का सहारा लेते हुए मानव द्वारा प्राप्त समस्त ज्ञान यहाँ तक कि गणित एवं ज्यामिति तथा ईश्वर की सत्ता के ज्ञान पर भी संदेह किया और इस हेतु उन्होंने प्रमुख रूप से स्वप्न के तर्क' ;क्तमंउपदह । तहनउमदजद्ध तथा "धोखा देने वाली सत्ता के तर्क' क्मबमपअपदह । तहनउमदजद्ध का सहारा लिया। डेकार्ट जगत की समस्त सत्ताओं पर संदेह करने और उनका निषेध करने में सफल रहे लेकिन उनके लिए उस "सत्ता पर करना कठिन प्रतीत हुआ जो संदेह की क्रिया कर रही है। डेकार्ट कहते है कि 'संदेह की क्रिया' ही संदेहकर्त्ता' के अस्तित्व को असंदिग्ध बना देती है। उनका प्रसिद्ध कथन "मैं सोचता हूँ इसलिए मैं "हूँ" इसी को व्यक्त करता है। अपनी इस घोषणा के माध्यम से डेकार्ट 'चेतना' की सत्ता को स्वयंसिद्ध असंदिग्ध स्वीकार किया है।
2 अनुभववाद के अनुसार मानव स्वरूप की अवधारणा
- बुद्धिवाद के विपरीत अनुभववाद, अनुभव को ही ज्ञान का स्रोत एवं प्रमाण मानता है। अनुभववाद इन्द्रिय प्रत्यक्ष के द्वारा प्राप्त ज्ञान पर ही विश्वास करता है इसलिए स्वाभाविक है कि वह किसी ऐसी सत्ता विश्वास कर ही नही सकता है जो हमारे इन्द्रियानुभूति का विषय न हो। इसी से अनुभववाद के शिखर दार्शनिक ह्यूम किसी भी प्रकार की 'आत्मा' की सत्ता का निषेध करते है। इतना ही नहीं उन्होंने ईश्वर एवं कारणता के सिद्धान्त का भी खंडन अनुभववाद की दृष्टि से किया । ह्यूम ने अपने पूर्ववर्ती अनुभववादी दार्शनिकों लाक एवं बर्कले को असंगत अनुभववादी कहा क्योंकि दोनों अनुभववाद की मौलिक स्थापनाओं से इतर जाते हुए निष्कर्ष प्रतिपादित कर देते है।
- अनुभववाद की स्थापनाओं के प्रति तार्किक रूप में संगत रहते हुए यूम मानव स्वरूप की विवेचना के लिए 'आत्मा' का सहारा नहीं लेते है। उनके अनुसार यदि आत्मा नाम की कोई सत्ता जगत में है तो उसका हमें ज्ञान होना चाहिए। ह्यूम के अनुसार किसी भी वस्तु का ज्ञान हमें दो ही तरीकों- 'बुद्धि' या 'अनुभव' से ही प्राप्त हो सकता है तीसरा कोई विकल्प हमारे समक्ष उपलब्ध नहीं है।
- बुद्धि द्वारा हम आत्मा का ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते क्योंकि इसका ज्ञान 'विज्ञानों के परस्पर सम्बन्ध का ज्ञान नही है बल्कि वस्तुजगत से सम्बन्धित ज्ञान है और बुद्धि, वस्तुजगत के बारे में ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकती है। तो फिर क्या आत्मा का ज्ञान अनुभव द्वारा प्राप्त हो सकता है? इस प्रश्न का उत्तर भी हयूम नहीं' में ही देते है। ह्यूम कहते है कि साधारण व्यक्तियों से लेकर अधिकांश दार्शनिकों का मत है कि आत्मा एक 'कूटस्थ एवं नित्य द्रव्य' है जो समस्त परिवर्तनों के मध्य अपरिणामी, अपरिवर्तनीय' तत्व के रूप में विद्यमान रहता है। उनके अनुसार संस्कारों एवं विज्ञानों की एक क्षणिक संस्कारों एवं विज्ञानों को देखने वाला, द्रष्टा निरन्तर विद्यमान रहता है। तथाकथित 'आत्मा' के विषय में अन्य विचारधारा का भी वे उल्लेख करते है जिसके अनुसार यह ( आत्मा ) उनका (संस्कारों एवं विज्ञानों का) अधिष्ठान, आधार है। ह्यूम इन सभी का निषेध करते है
3 कांट के अनुसार मानव स्वरूप की अवधारणा
- कांट के सम्मुख सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न व ज्ञान के स्रोत, सीमा एवं बैधता को लेकर था। कांट ने बुद्धिवाद एवं अनुभववाद दोनों को ही अनालोचात्मक दर्शन की श्रेणी में रखा क्योंकि दोनो ही अपने चिंतन के पूर्व अपनी ज्ञानमीमांसीय स्थापनाओं का परीक्षण नही करते बल्कि अपने-अपने विश्वास के आधार पर यह घोषित कर देते है कि केवल बुद्धि या केवल अनुभव ही ज्ञान के स्रोत एवं प्रमाण है। इसी के कारण कांट के अनुसार बुद्धिवाद की परिणति रूढ़िवाद एवं अनुभववाद की परिणति संदेहवाद में हो जाती है। कांट ने बुद्धिवाद एवं अनुभववाद की स्थापनाओं का सम्यक् विवेचन किया और कहा कि दोनों ही एकांगी है क्योंकि मानवीय ज्ञान का स्रोत बुद्धि के स्थान पर अनुभव होता है और ज्ञान का प्रमाण अनुभव के स्थान पर बुद्धि होती है। उनके अनुसार मानवीय ज्ञान 'संश्लेषणात्मक एवं प्रागनुभविक' होता है अर्थात् इसमें नवीनता के साथ अनिवार्यता एवं सार्वभौमिकता भी पायी जाती है।
- मानवीय ज्ञान की विवेचना करते हुए कांट कहते है कि मानवीय ज्ञान के दो स्रोत- संवेदना एवं तर्क बुद्धि होते है। संवेदना द्वारा वस्तुएँ हमें प्रदत्त होती है तथा तर्क बुद्धि के द्वारा वे सोची जाती है। कांट मानवीय ज्ञान की प्रागनुभविक पूर्ववर्ती शर्तों को जानना चाहते है। संवेदन शक्ति की विवेचना करते हुए वे कहते है कि देश एवं काल इसके प्रागनुभविक आकार है। देश एवं काल वे पूर्ववर्ती शर्ते है जिसमें हमें वस्तुएँ प्रदत्त होती है और देश एवं काल के आकारों में ढलकर वे उनके धर्मों से युक्त हो जाती है। दूसरे शब्दों में इंद्रिय प्रदत्त संवेदना के लिए उपादान होते है जो देश एवं काल के आकारों में ढलकर बुद्धि हेतु उपादान उपलब्ध कराते है। इन्हीं उपादानों को बुद्धि अपने प्रागनुभविक आकारों - 12 कोटियों द्वारा संश्लेषित एवं अर्थवान बनाती है।
4 हीगल के अनुसार मानव स्वरूप का अवधारणा
- हीगल एक प्रत्ययवादी दार्शनिक है जो निरपेक्ष आत्मा की सत्ता स्वीकार करते है तथा वैयक्तिक आत्माओं, मनुष्यों को इसी सार्वभौम निरपेक्ष आत्मा का अभिव्यक्ति मात्र मानते है। उनके अनुसार निरपेक्ष सत्, अमूर्त निरपेक्ष पहले अचेतन प्रकृति के रूप में व्यक्त होता है और पुनः सामाजिक संस्थाओं, कला, धर्म और दर्शन द्वारा द्वंद्वात्मक प्रक्रिया से विकसित होते हुए मनुष्य में आत्म-चैतन्य' के रूप में अभिव्यक्त होता है।
हीगल के अनुसार सत्, विचार की वह अवस्था है जो अभिव्यक्त हो चुकी है तथा जो कुछ अभिव्यक्त हो चुका है वह विचार का विकास है";सस इमपदह पे जीवनहीज तमंसपेमक दक सस इमबवउपदह कमअमसवचउमदज व जीवनहीजद्ध हीगल के इस कथन के अनुसार :
- निरपेक्ष चैतन्य जहाँ एक ओर वस्तुओं को उत्पन्न करता है वहीं दूसरी ओर प्रत्ययों और विज्ञानों को भी विकसित करता है। फलस्वरूप एक तरफ वस्तु जगत की उत्पत्ति होती है तो दूसरी तरफ विचारों, विज्ञानों के जगत की उत्पत्ति होती है। दर्शन इन दोनों के मध्य केवल सम्बन्ध ही नही स्थापित करता बल्कि उन्हें सुसंगठित कर एक तंत्र के रूप में भी प्रस्तुत करता है। दर्शन यह भी जानने का प्रयास करता है कि 'मूल्यों' के क्रम में किसी वस्तु या विचार का क्या स्थान है? अर्थात् उनकी प्रयोजनमूलक विवेचना करता है।
- यदि संसार की समस्त वस्तुएँ चेतना की ही अभिव्यक्तियाँ हैं तो चेतना एवं सत्ता में कोई आत्यन्तिक अन्तर नही हैं। हीगल का कथन "सत् बोधमय है एवं बोध सत् है" इसी की अभिव्यक्ति है।
- जगत की वस्तुएँ चेतना के विकास के परिणाम है तो दर्शन एक प्रकार का विकासवाद है। संसार की प्रत्येक वस्तु बोध या विज्ञान के समान है। दर्शन इसी बोध के विभिन्न रूपों एवं वस्तुओं के विकास का सुव्यवस्थित अध्ययन करता है जिसकी परिणति निरपेक्ष प्रत्ययवाद में होती है जहाँ सत्ता एवं बोध में तादात्म्य का सम्बन्ध है।
5 मार्क्स के अनुसार मानव स्वरूप की अवधारणा
- मार्क्स कहते हैं कि हीगल ने मानव स्वरूप- मनुष्य को आत्म- चेतना के समतुल्य माना, इसीलिए उनके चिन्तन में मनुष्य को 'आत्म- चेतन मनुष्य' माना गया है न कि 'आत्म चेतना को मनुष्य - वास्तविक मनुष्य की आत्म चेतना' के रूप में स्वीकार किया मार्क्स कहते है कि "हीगल ने न केवल जगत को बल्कि मनुष्य को भी उसके सिर के बल खड़ा कर दिया है।"
- जगत एवं मनुष्य को पुनः उसके पैरों पर खड़ा करने के लिए हीगल द्वारा स्वीकृत विचारों, प्रत्ययों, सिद्धान्तों की स्वतंत्र एवं वस्तुगत सत्यता का खण्डन किया और कहा कि मनुष्य एवं समाज के सम्बन्ध के परिप्रेक्ष्य में ही इनका विश्लेषण किया जा सकता है। मार्क्स के अनुसार जैसे-जैसे मनुष्य अपनी क्रियाशीलता द्वारा स्वयं अपने एवं समाज में परिवर्तन करता है वैसे ही विचार, प्रत्यय एवं सिद्धान्त में भी परिवर्तन होता रहता है। मार्क्स, प्रत्ययवाद के निषेध द्वारा वस्तुतः दर्शन की नयी विधा का सूत्रपात करते है। उनके अनुसार दर्शन न तो मात्र भाषा एवं पदों का विश्लेषण है। जैसा तर्कीय प्रत्यक्षवादी मानते है और न ही मानवीय अस्तित्व तथा सत्ता एवं अनुभव की व्याख्या (जैसा कि अस्तित्ववादी तथा फेनामेनालॉजीवादी मानते है) बल्कि दर्शन प्रथमतः भौतिक परिस्थितियों एवं सामाजिक संरचनाओं को समझने और उन्हें परिवर्तित करने का साधन है। मार्क्स के चिंतन में आत्मनिर्भर, व्यवस्थित, शाश्वत, अमूर्त एवं परिकल्पनात्मक दर्शन के लिए कोई स्थान नही है। उनके अनुसार जहाँ परिकल्पना समाप्त होती है वहीं से वास्तविक जीवन का प्रारम्भ होता है जहाँ से व्यावहारिक क्रियाशीलता को निर्देशित करने वाले वास्तविक भावात्मक चिंतन- जिसे मार्क्स ने 'विज्ञान' की संज्ञा दी है, का प्रारम्भ होता है। मार्क्स के 'विज्ञान' की अवधारणा प्राकृतिक विज्ञानों में समान नही है जो किन्हीं ऐसे शाश्वत् सामान्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है जिसकी सार्वभौमिक वैधता एवं मान्यता होती । मार्क्स का 'विज्ञान' से तात्पर्य ऐसे 'विज्ञान' से है जो हमें 'क्रिया' हेतु न केवल प्रेरित करे बल्कि उसी की तरफ ले जाये ।
6 सार्त्र के अनुसार मानव स्वरूप की अवधारणा :
- सार्त्र एक अस्तित्ववादी दार्शनिक है। अस्तित्ववाद को परिभाषित करते हुए वे कहते है, "अस्तित्व सार का पूर्वगामी है।" अस्तित्व' का अर्थ किसी वस्तु का सत्तावान होता तथा 'सार' को सामान्यतः किसी वस्तु की उन विशेषताओं या धर्म के रूप में जाना जाता है जिसके नाते कोई वस्तु वही वस्तु होती है। मनुष्य के सम्बन्ध में इस दृष्टि से प्रश्न उठाया जा सकता है कि क्या उसका अस्तित्व पहले है या 'सार' पहले है?
- अस्तित्ववादी दर्शन मानवीय वास्तविकता का दर्शन है। अस्तित्व सार का पूर्वगामी है- यह कथन मानवीय वास्तविकता पर ही लागू होता है, वस्तुओं के समुदाय पर नहीं। मानव- वैशिष्ट्य का, जगत् से उसके अलगाव का, किसी सामान्य सूत्र में अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता। सिद्धान्तों के माध्यम से मानवीय अस्तित्व की गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास मताग्रह है, मानवीय वास्तविकता का मिथ्याकरण है। मानवीय अस्तित्व की समस्यायें, सैद्धान्तिक समस्यायें नहीं है। दर्शन का लक्ष्य सामान्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना नहीं है। उसका उद्देश्य मनुष्य को दार्शनिकता के प्रथम बिन्दु पर ले जाकर यह प्रश्न पूछना है कि मनुष्य होने का क्या अर्थ है? इस प्रश्न का कोई एक, वस्तुगत, वैज्ञानिक तथा सुनिश्चित उत्तर नहीं हो सकता। ऐसा इसलिए नहीं कि मनुष्य के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान अपर्याप्त है, बल्कि इसलिए कि मनुष्य अपनी सत्ता में निरन्तर एक प्रश्न बना रहता है। मानवीय वास्तविकता के सम्बन्ध में जगत् भी एक प्रश्न है, एक • खुली सम्भावना है। दोनों के ही बारे में जितना कहा जा सकता है, वे उससे अधिक होते है। मानवीय व्यवहार को किसी सामान्य सूत्र द्वारा सीमित अथवा नियन्त्रित नहीं किया जा सकता। उसका अपना व्यवहार भी उसकी वास्तविकता को परिसीमित नहीं कर सकता क्योंकि मनुष्य अपने ही व्यवहार द्वारा निरन्तर अपना निर्माण करता रहता है।
निष्कर्ष रूप में कह सकते है कि :
- अस्तित्ववादी दर्शन को प्रायः व्यष्टितावादी दर्शन के रूप में ग्रहण किया जाता है । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि इसका सामान्य से कोई सम्बन्ध नहीं है।
- इसके लिए भी दर्शन का लक्ष्य मानवीय अनुभूतियों की 'संप्रत्ययात्मक एकता' स्थापित करना है। कामू अपनी समस्त अतर्कबुद्धिपरता के बावजूद अपने असंगत तर्को के लिए 'तर्कबुद्धि' का सहारा लेते हैं। पोन्ती हेगेल की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हैं ।
- अपने व्यवहारों द्वारा व्यक्ति अपनी जो 'प्रतिमा' बनाता है, वह उसकी सर्वथा निजी प्रतिमा नहीं होती; वह सभी मनुष्यों की प्रतिमा होती है। यह मनुष्य का महान अस्तित्वपरक उत्तरदायित्व है, इससे वह बच नहीं सकता।
- किन्तु मनुष्य अपनी जो प्रतिमा बनाता है, वह उसका निषेध करने में भी समर्थ होता है। मनुष्य की यह विशिष्ट निषेधात्मक क्षमता है: वह जो कुछ है, उसने अपने को जो कुछ बनाया है, उससे अलग हो सकता है। अपने द्वारा अपने लिए निर्धारित सार का वह परित्याग कर सकता है ।