षड् दर्शन में मानव स्वरूप की अवधारणा
षड् दर्शन में मानव स्वरूप की अवधारणा
भारत में 'दर्शन' ज्ञान का मात्र एक अनुशासन न होकर 'भारतीय जीवन दृष्टि' का द्योतक है और इसीलिए पूरब के पूरे चिंतन को बाहर से अन्दर जाने की प्रक्रिया के रूप में समझा जा सकता है। समस्त आस्तिक दर्शनों यथा न्याय-वैशेषिक, सांख्य- योग, मीमांसा एवं वेदान्त में जिस प्रकार मानव-स्वरूप को समझने का प्रयास हुआ है, वह थोड़े-बहुत अन्तर के साथ वेद एवं उपनिषद में व्यक्त मानव-स्वरूप की विवेचना के समान प्रतीत होता है फिर भी अत्यंत संक्षेप में आस्तिक दर्शनों में मानव-स्वरूप की विवेचना को निम्नलिखित ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है:
- न्याय दर्शन का मूल ग्रंथ 'न्याय - सूत्र' है, जिसके रचयिता ऋषि गौतम है। इस दर्शन को अक्षपाद दर्शन' भी कहा जाता है। इस दर्शन का लक्ष्य भी 'निःश्रेयस' (मोक्ष) प्राप्त करना है। इस हेतु वह तत्त्व ज्ञान प्राप्त करना चाहता है जिसमें मोक्ष प्राप्ति के साथ-साथ दुःखों की भी समाप्ति हो सके। मनुष्य एवं वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप - तत्त्वज्ञान को स्पष्ट करने के लिए न्याय सोलह पदार्थो - प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति एवं निग्रह स्थान की व्याख्या करते है।
- वैशेषिक दर्शन के आदि प्रवर्तक 'कणाद' है। इसे कणाद दर्शन या औलूक्य दर्शन भी कहा जाता है। जहाँ न्याय दर्शन ने मानव एवं वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट करने हेतु सोलह पदार्थो का वर्णन किया है, वहीं वैशेषिक दर्शन ने सात पदार्थों का उल्लेख किया है यथा द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य विशेष समवाय एवं अभाव। यह सभी पदार्थ न्याय दर्शन के प्रमेयों के अन्तर्गत आसानी व्याख्यायित है एवं उनके द्वारा समझे जा सकते है इसलिए न्याय दर्शन में इनका अलग से वर्णन नहीं प्राप्त होता है। जैसे न्याय दर्शन के अनुसार मानव स्वरूप की विवेचना उनके द्वारा स्वीकृत बारह प्रमेयों के आधार पर किया गया है। ठीक वैसे ही वैशेषिकों के अनुसार मानव स्वरूप की समझ उनके द्वारा स्वीकृत सात पदार्थो के आधार पर विकसित की जा सकती है।
- मीमांसकों ने 'आत्मा' को एक जड़ द्रव्य माना है क्योंकि जब तक आत्मा का मनस् से संयोग नही होता तब तक उसमें चैतन्य का अविर्भाव नही होता है। मीमांसक चैतन्य को आत्मा का स्वरूप नही मानते है तथा इसे वे एक आगन्तुक गुण मानते है जो आत्मा का मनस् एवं शरीर के साथ संयोग होने से उत्पन्न होता है। (प्रकरण पंचिका पृ० 149, 151, 156) प्रभाकर के अनुसार आत्मा का ज्ञान विषय वित्तियों के ज्ञाता के रूप में होता है। आत्मा मूलतः ज्ञाता है जिसे ज्ञेय के रूप में नहीं जाना जा सकता है। प्रभाकर की स्थिति पश्चिमी दार्शनिक डेकार्ट से मिलती प्रतीत होती है क्योंकि उन्होंने भी संदेहकर्त्ता' के रूप में 'मैं' की सत्ता स्वीकार की थी।
- यह सही है कि हमारा शरीर जड़ है लेकिन हम एक आत्मचेतन सत्ता भी है। हमारी शारीरिक, मानसिक या अन्य कोई क्रियाएँ मात्र शरीर या मन तक ही सीमित नही रहती बल्कि उनका कोई न कोई केन्द्र या अधिष्ठान अवश्य होता है जहाँ से हमें शारीरिक, मानसिक या अन्य क्रियाओं हेतु शक्ति एवं निर्देश प्राप्त होते है जिससे हमारी क्रियाएँ अन्य चेतन सत्ताओं की क्रियाओं के समान होते हुए भी गुणात्मक रूप में भिन्न हो जाती है। मीमांसक इसी तथ्य को नही पाये थें ।
- हम न केवल क्रिया में संलग्न रहते है बल्कि उसके साक्षी भी हो सकते है जिससे हमारी क्रियाएँ शरीर एवं मन की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए उस आयाम को भी स्पर्श कर सकती है जिसे 'श्रेयस' द्वारा व्यक्त किया जा सकता है और हम उस सूत्र को जान पाते है जो हमें सम्पूर्ण चराचर जगत से संयुक्त कर देता है, हमें, अन्यों से अपनी अभिन्नता का बोध एवं परिचय प्राप्त होता है और तभी हमें अपने स्वरूप का यथार्थ बोध होता है।
- सांख्य दर्शन द्वैतवादी है जहाँ प्रकृति एवं पुरूष नामक दो तत्त्वों की सत्ता स्वीकार की गयी है। प्रकृति सांख्य के अनुसार जगत का मूल कारण है जिसे प्रधान' भी कहा जाता है । यह जड़ एवं अचेतन है। इसके विपरीत पुरूष चेतना है। भारतीय दर्शन में मानव स्वरूप को 'आत्मा' की विवेचना के आधार पर समझने का प्रयास किया गया है। अन्य दार्शनिक सम्प्रदायों जिसे 'आत्मा' की संज्ञा द्वारा व्यक्त किया गया है उसे ही सांख्य 'पुरूष' कह कर व्यक्त करते है। सांख्य के अनुसार पुरूष शुद्ध चेतना है । यह सर्वव्यापक, परिवर्तन रहित और शाश्वत है। यह निष्क्रिय है क्योंकि क्रियाशीलता प्रकृति में होती है। सांख्य के पुरुष को शरीर इन्द्रिय, मन, अहंकार या बुद्धि नही माना जा सकता है क्योंकि यह सब प्रकृति से सम्बन्धित है, प्रकृति के विकास के परिणाम है।
- चेतना पुरूष का गुण नही है क्योंकि पुरूष द्रव्य नही है। वह चेतन स्वरूप है, चेतना उसका सार है। वह सभी गुणों से परे ज्ञान का आधार है। वह ज्ञाता, विषयि है इसलिए कभी भी ज्ञान का विषय नही बन सकता है। वह किसी भी ज्ञान की पूर्ववर्ती शर्त है। यह परिवर्तन एवं क्रिया तथा देश-काल से परे साक्षी एवं द्रव्य है। वह अकर्ता प्रकाश स्वरूप है जिससे सभी वस्तुएँ प्रकाशित होती है, और चेतना का विषय बनती है। पुरूष केवल सुषुप्ति में ही नही अपितु जाग्रत एवं स्वप्न तीनों अवस्थाओं का साक्षी होता है। यहाँ पर सांख्य के पुरूष की तुलना माण्डूक्य उपनिषद् में व्यक्त मानव स्वरूप की विवेचना से की जा सकती है जहाँ जाग्रत, स्वप्न एवं सुषुप्ति की विवेचना करते हुए इन तीनों के अधिष्ठान के रूप में तुरीय अवस्था का उल्लेख किया गया है। इस अवस्था में सुषुप्ति के सामन विषयि एवं विषय का द्वैत तो नही रहता लेकिन सुषुप्ति के विपरीत दुःख एवं पीड़ा के निषेधात्मक अभाव के स्थान पर सकारात्मक आनन्द की अनुभूति होती है। सांख्य की दृष्टि में विकास के परिणाम, मन, बुद्धि, इन्द्रियों, शरीर, अहंकार आदि जो संघातमय है, की सत्ता प्रकृति हेतु नही होती है क्योंकि अचेतन होने के कारण प्रकृति इनका उपयोग नही कर सकती है। इससे यह सिद्ध होता है कि इस सबका अस्तित्व चेतन पुरूष के हेतु, प्रयोजन के लिए है। इतना ही नही प्रकृति की समस्त वस्तुएँ त्रिगुण से युक्त | त्रिगुणात्मक वस्तुओं का अस्तित्व यह सिद्ध करता है कि कोई सत्ता ऐसी भी होनी चाहिए जो इन तीनों गुणों का अतिक्रमण करता हो और वह चेतन पुरूष ही हो सकता है। किस भी क्रिया के लिए कर्त्ता की स्वीकृति एक पूर्ववर्ती शर्त होती है इसलिए प्रकृति की क्रियाशीलता का कोई चेतन अधिष्ठान अवश्य होना चाहिए। चेतन अधिष्ठान के रूप में सांख्य पुरूष को स्वीकार करते हैं। प्रकृति भोग्य है, पुरूष इनका भोक्ता है तथा सभी दुःखों, क्लेशों से निवृत्ति के आकांक्षी के रूप में सांख्य पुरूष को स्वीकार करते हैं।
- योग वह मार्ग बताता है जिसके द्वारा मनुष्य 'चित्त के बंधनों से मुक्त हो, अपने स्वरूप–सत्, चित्त आनन्द को जान सकता है, अनुभव कर सकता है । चित्त वृत्तियों के निरोध में मनुष्य को अपने-चेतनात्मक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है। विवेक के उत्पन्न होने से चित्त नाना प्रकार के परिणामों से शून्य हो जाता है। कर्त्तापन का अभाव हो जाता है। वस्तुतः मनुष्य में उसकी आत्मा में कोई विकार नही उत्पन्न होता लेकिन परिवर्तनशील चित्त वृत्तियों में प्रतिबिम्बित होने के कारण उसमें मनुष्य के स्वरूप में परिवर्तन ठीक उसी तरह दिखाई पड़ता है जिस तरह जल के हिलने से उसमें प्रतिबिम्बित चन्द्रमा हिलता प्रतीत होता है। मनुष्य चित्त के गुणों को अपना मानने लगता है और सुखी या दुःखी होता है। यही मनुष्य का बंधन है। मनुष्य को जब यह ज्ञान जो जाता है कि चित्त की वृत्तियाँ उसकी अपनी नही है तो उसे अपने स्वरूप का ज्ञान हो जाता है या दूसरे शब्दों में जब मनुष्य को योग के बतायें मार्ग से यह बोध हो जाता है कि चित्त वृत्तियाँ उसकी अपनी नही है तो उसे अपने स्वरूप का ज्ञान, अनुभव हो जाता है। इसीलिए योग को परिभाषित करते हुए पतंजलि कहते है कि "योगश्चित्त् वृत्तिनिरोध”। योग द्वारा बताएँ गयें अष्टांग मार्ग- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार धारणा, ध्यान और समाधि हमें, हमारे शरीर एवं मन को इस योग्य एवं सक्षम बनाते हैं जिससे चित्तवृत्तियों का निरोध जो जाये, उनका दमन न करना पड़े तथा हमें अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाय । समाधि की अवस्था में योगी को न केवल पूर्ण ज्ञान हो जाता है बल्कि वह अपने वास्तविक स्वरूप से भी परिचित हो जाता है और फिर उसे कोई दुःख, पीड़ा या क्लेश का भोग नही करना पड़ता है।
- वेदान्त विशेषकर अद्वैत वेदान्त का आत्मा सम्बन्धी सिद्धान्त उपनिषदों के आत्म सम्बन्धी सिद्धान्त के समान है। शंकराचार्य ने आत्मा को एक तत्व एवं एकमात्र सत्ता माना है तथा इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है उसे वे अनात्मा मानते हैं। आत्मा ज्ञान स्वरूप है तथा सार्वभौम चैतन्य है। शंकर ने आत्मा को ब्रह्म की संज्ञा से अभिहित किया है। भले ही आत्मा एवं ब्रह्म नाम की दृष्टि से अलग-अलग है लेकिन दोनों में अभेद है, एक ही सत्ता ब्रह्म एवं आत्मा के रूप में अभिव्यक्त होते है। शंकर आत्मा एवं जीव में भेद करते है। आत्मा जब शरीर युक्त होती है तो उसे जीव में कहते है। आत्मा, जीव का आधारभूत चैतन्य है। सामान्यतः आत्मा में भोक्तृत्व एवं कर्तृत्व का अभाव होता है लेकिन उपाधियों के कारण ( शरीर धारण करने के कारण) वह कर्त्ता एवं भोक्ता प्रतीत होती है। वस्तुतः आत्मा स्वयं प्रकाश, नित्य शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है। वह पाप-पुण्य से परे है तथा न तो कर्मफल को और न ही दुःख, सुख भोगता है। वह आनन्द स्वरूप है।
- अद्वैत वेदान्त के आत्मा सम्बन्धी विचार से स्पष्ट है कि वह भी मानव स्वरूप को प्रत्ययवादी दृष्टि से समझना चाहता है इस दृष्टि से जब तक मनुष्य को आत्म साक्षात्कार नही हो जाता है तब तक वह अपने स्वरूप को नहीं जान पाता है। सत्, चित्त, आनन्द स्वरूप को अनुभूत करने पर ही मनुष्य स्वयं से परिचित होता है, मनुष्य के सभी कर्म सुख प्राप्त के हेतु होते है और सुख दो प्रकार के होते है; अनन्त सुख या आनन्द तथा सीमित या ऐंद्रिक सुख। मनुष्य जब लौकिक पदार्थो का उपभोग करता है तो उसे सीमित या ऐंद्रिक सुख प्राप्त होता है जिसे 'प्रेयस' की कोटि में रखा जाता है। यह सुख वस्तुतः अनन्तसुख या आनन्द का अपूर्ण रूप या प्रतिबिम्ब मात्र होता है। मनुष्य इसी आनन्द सुख की प्राप्ति हेतु भ्रमवश अज्ञानता के कारण ऐंद्रिक सुख के पीछे भागता रहता है जैसे मृग के अन्दर से ही कस्तूरी की गंध निकलती है लेकिन वह इस गंध को खोजने बाहर दौड़ता रहता है, वह उस गंध को न पाकर बेचैन रहता है। ठीक वैसी ही स्थिति मनुष्य की है।
- इन्द्रियों से प्राप्त सुख वस्तुतः आनन्द की छाया है लेकिन मनुष्य स्वभावतः आनन्द प्राप्त करना चाहता इसलिए वह अधिक से अधिक बाहर भागता है जिससे उसमें आनन्द मिल सके, लेकिन वह उसे वाह्य जगत, इन्द्रियानुभव में नही मिलता इसलिए उसके अन्दर एक तरह की बेचैनी, छटपटाहट उत्पन्न होती है। इस बेचैनी, छटपटाहट का कारण मनुष्य का अपने स्वरूप से परिचित न होना है जिससे उसके समस्त प्रयास विपरीत दिशा में मुड़ जाते हैं । चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब नदी के स्थिर जल में बनता है लेकिन यदि हम उस चन्द्रमा को पाने के लिए नदी में उतर जाय तो चन्द्रमा तो मिलता नहीं बल्कि उसका जो भी प्रतिबिम्ब वह दिखाई दे रहा था वह भी लुप्त हो जाता है। जितना ही हम नदी में प्रतिबिम्बत चन्द्रमा को पाने हेतु नदी की तरफ जायेंगे, उतनी ही असफलता एवं निराशा हमें मिलेगी। वास्तविक चन्द्रमा को पाने हेतु हमें 'उल्टी यात्रा' करनी पड़ेगी। ठीक वैसे ही आनन्द की खोज, स्वयं को जानने हेतु जितना ही हम बाहर, जगत, इन्द्रियों की तरफ जायेंगे उतना ही हम न केवल स्वयं को नही जान पायेंगे बल्कि जो थोड़ा बहुत 'सुख' हमें बाहर मिल सकता था, उससे भी वंचित रह जायेंगे।
- दुःख का मूल द्वैत है जिसकी कोई औषधि नही हैं क्योंकि मूलतः हम एवं अस्तित्व दो नही है इसलिए किसी भी औषधि की आवश्यकता नही है। हम वियुक्त अलग-अलग नहीं है इसलिए जोड़ने के समस्त प्रयास से टूटन न होने पर भी टूटन का अहसास होता है। हम जुड़े है इसे केवल अनुभव करना है क्योंकि हम अस्तित्व से वियुक्त, अलग हो भी कैसे सकते है? हममें से न तो कोई परतंत्र है और न ही स्वतंत्र बल्कि वस्तुतः हम सबमे परस्पर-तंत्रता' है।
- 'परस्पर तंत्रता' शब्द ही मानव स्वभाव एवं अस्तित्व का वास्तविक बोध कराने में सक्षम है।