अस्तित्ववाद में मूल्य की अवधारणा | Concept of value in existentialism

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अस्तित्ववाद में मूल्य की अवधारणा (Concept of value in existentialism)

अस्तित्ववाद में मूल्य की अवधारणा | Concept of value in existentialism

अस्तित्ववाद में मूल्य की अवधारणा

 

अस्तित्ववाद के अनुसार मानव स्वरूप की विवेचना "अस्तित्व सार का पूर्वगामी है" सिद्धान्त के आधार पर की गयी है एवं वस्तुओं से इसके मौलिक अंतर को स्पष्ट किया गया है। वस्तुयें जहाँ ढ़ली- ढ़लाई सत्ता होती है जिनका सार तत्त्व - विशेषतायें आदि पहले से ज्ञात होती हैवही मनुष्य पहले होता है फिर सत्तावान व्यक्ति के रूप में जब वह निर्णय लेता हैकार्य करता हैचुनाव करता है तो उसी के द्वारा उसके सार तत्त्व ( स्वभावविशेषता) का निर्माण होता है । यदि मनुष्य का सार तत्त्व भी वस्तुओं के समान पहले से ज्ञात होता तो वह भी वस्तु के समान ही एक सत्ता होता और तब मनुष्य में किसी भी प्रकार की स्वतंत्रतामौलिकतारचनात्मकता एवं कल्पनाशीलता की कोई सम्भावना नही रह जाती।

 

अस्तित्ववाद मनुष्य को वस्तुओं से मूलतः पृथक मानता है और मनुष्य की व्याख्या हेतु सर्वथा नये सूत्र की खोज करता है और मानव जीवन को समझने के लिए "सभी सार तत्त्ववादी व्याख्याओं का निषेध करता है और विकल्प के रूप में अस्तित्ववादी व्याख्या प्रस्तावित करता है। अस्तित्ववाद के अनुसार अभी तक दार्शनिक चिंतकों ने मनुष्य को समझने के लिए सार तत्त्ववादी व्याख्याओं का ही सहारा लिया है चाहे वे प्रत्ययवादी चिंतक हो या वस्तुवादी। दोनों ही यह मानते है कि मनुष्य का सार तत्त्व पहले से ज्ञात है-चेतना या जड़ वस्तु के रूप में

 

प्रत्ययवादी चिंतक विशेष रूप से हीगल यह मानते है कि मनुष्य निरपेक्ष सत्ता के विकास का एक चरण हैअर्थात् मनुष्य की सत्ता इस निरपेक्ष चित्त की सत्ता का साझीदार है। मनुष्य एवं निरपेक्ष सत्ता का सार तत्त्व एक हैमनुष्य को यदि स्वयं को जाननासमझना है तो ऐसा वह निरपेक्ष सत्ता के नियमों का अनुसरण करके ही कर सकता है। मनुष्य के खास अपने जीवन को परिभाषित करने की कोई छूट नही है क्योंकि वह निरपेक्ष सत्ता से बंधी सत्ता है।

 

इसी तरह भौतिकवादी दर्शनों में भी मनुष्य की विशिष्टता के लिए कोई स्थान नही है क्योंकि इस दर्शन के अनुसार सम्पूर्ण विश्व एक मशीनी व्यवस्था हैंप्रकृति का संचालन एक विशाल मशीन के रूप में होता है तथा सब कुछ एक मशीनी व्यवस्था द्वारा संचालित होता है। मनुष्य भी इसी मशीनी व्यवस्था का एक अंग है और उस पर भी यही व्यवस्था लागू होती है। मनुष्य भी उतना ही कर सकता है जितना इस व्यवस्था में उसके लिए पहले से सुनिश्चित है। यहाँ भी प्रत्ययवाद के ही समान मनुष्य का परिभाषित स्वरूप है जहाँ सब कुछ पूर्व निर्धारित होता है। सार्त्र यह मानते है कि सारतत्त्ववादी व्याख्याओं में मनुष्य को उसकी विशिष्टता में समझने का कोई प्रयास नही हुआ है। मनुष्य की सत्ता को किसी सार्वभौम सिद्धान्त में विलीन कर दिया जाता है। मनुष्य की स्वतंत्रता का अपहरण करके उसे वस्तु के रूप में स्थापित कर दिया जाता है। इसीलिए सार्त्र इनका निषेध करते हुए अस्तित्ववाद का प्रतिपादन करते है और मनुष्य को अपने सारतत्त्व एवं जीवन के लिए उत्तरदायी मानते है क्योंकि इसी से उसकी गरिमा सुनिश्चित हो सकती है।

 

6.5 सारांश

 

उपर्युक्त विश्लेषण को संक्षेप में निम्नलिखित ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता

 

'मूल्यशब्द किसी भौतिक वस्तु या मानसिक अवस्था के उस गुण का बोध कराता है जिसके द्वारा मनुष्य की किसी आवश्यकताकामना या इच्छा की तृप्ति होती है। मूल्यों का अस्तित्व मानवीय आवश्यकताओं एवं इच्छाओं की पूर्ति पर निर्भर हैदूसरे • शब्दों में मूल्यों का प्रश्न अनिवार्य रूप में मानव स्वरूप की अवधारणा से जुड़ा प्रश्न है।

 

मानव स्वरूप सम्बन्धी विभिन्न विचार धाराएँ हमें दिखाई देती है (जिसकी विस्तृत विवेचना प्रथम खण्ड के विभिन्न इकाईयों में हुयी हैं) इसलिए मूल्य सम्बन्धी विभिन्न विचार नीतिशास्त्र में दिखायी देते है ।

 

नीतिशास्त्र मानवीय व्यवहार का अध्ययन मूल्यों की दृष्टि से करता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए नीतिशास्त्री मानवीय व्यवहार के अध्यययन एवं विश्लेषण से एक ऐसे वस्तुनिष्ठ सिद्धान्त तक पहुँचना चाहता है जिसके अनुसार चलने से समाज में सामंजस्य एवं समरसता का भाव कायम रहें

 

6.6 पारिभाषिक शब्द

 

मूल्य

 

किसी भौतिक वस्तु अथवा मानसिक अवस्था के उस गुण को 'मूल्यकी संज्ञा दी जाती जिसके द्वारा मनुष्य की किसी आवश्यकताकामना या इच्छा की पूर्ति होती है।

 

नीतिशास्त्र

 

ज्ञान का वह अनुशासन जो हमें यह बताता है कि हम किन नियमोंसिद्धान्तों या आदर्शों के आधार पर किसी कर्म को उचित या अनुचित एवं किसी व्यक्ति तथा उसके चरित्र को शुभ या अशुभ अच्छा या बुरा कह सकते है । नियामक नीतिशास्त्र

 

जब हम केवल नियमोंसिद्धान्तों या आदर्शो का वर्णन ही नही करते है बल्कि उन नियमोंसिद्धान्तों या आदर्शों की कसौटी के आधार पर व्यक्ति के किसी आचरण को उचित-अनुचितशुभ-अशुभ के रूप में मूल्यांकन भी करते हैं तो इस नैतिक चिन्तन को नियामक नीतिशास्त्र की संज्ञा दी जाती है।

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