भारतीय दृष्टि में मूल्य ह्रास - कारण एवं निदान
भारतीय दृष्टि में मूल्य अथवा धर्म
- मूल्य की संकल्पना मूल रूप से पश्चिम की अवधारणा वैल्यू (Value) का हिन्दी अनुवाद है। इस अवधारणा में मानव समाज के प्रत्येक सम्बन्ध को आदान-प्रदान की क्रिया के रूप में देखा जाता है । और जब पूरा व्यवहार ही आदान-प्रदान का हो, तो हर वस्तु, हर क्रिया का एक निश्चित मूल्य निर्धारित होता है। नौकरी में हर पद का अलग मूल्य है, अलग तनख़्वाह है। दहेज प्रथा में इसी तनख्वाह के अनुपात में दूल्हों का मूल्य तय किया जाता है। इसी प्रकार अंग्रेज़ी और गणित का ट्यूशन महँगा है, जब कि कई विषयों में काफी सस्ते दरों पर ट्यूशन उपलब्ध हैं। क्या आपने सोचा ऐसा क्यों है? अंग्रेजी और कम्प्यूटर जानने वालों को आसानी से नौकरी मिल जाती है, जब कि कई अन्य विषयों के विद्यार्थी वर्षों तक बेरोज़गार भटकते हैं। क्या मूल्यवान है और क्या नहीं, इसका निर्धारण तो बहुत कुछ समाज की आवश्यकतायें करती हैं। कभी डॉक्टरी की पढ़ाई महँगी होती है, तो कभी इन्जीनियरिंग की कभी होटल मैनेजमेण्ट का भाव बढ़ जाता है, तो कभी एमबीए का.
- ऊपर दिए गये वर्णन में आप देखेंगे कि ये सभी के सभी मूल्य समाज और कालखण्ड द्वारा निर्मित किए गये हैं। परन्तु मूल्य निर्धारण का एक और पहलू है, जब व्यक्ति अपने कालखण्ड की पृष्ठभूमि पर स्वयं के लिए अपने मूल्य निर्धारित करता है। अक्सर देखा गया है कि हर व्यक्ति के मन की एक केन्द्रीभूत इच्छा होती है, और कुछ के मन में अनेक इच्छाओं का एक समुच्चय होता है। अधिकांश मन की केन्द्रीभूत इच्छा 'बड़ा आदमी' बनने की होती है, परन्तु 'बड़ा आदमी की परिभाषा सब की अलग-अलग है । किसी के लिए धनवान व्यक्ति 'बड़ा आदमी' है, किसी के लिए ऊँचे पद पर बैठा सत्ताधारी व्यक्ति 'बड़ा आदमी' है, तो कुछेक के लिए चिन्तक, विचारक, मत-प्रचारक 'बड़े आदमी' हैं। बस यही 'बड़ा आदमी बनने के लिए जो साधन हैं, वही हमारे लिए सबसे मूल्यवान पदार्थ या क्रिया हो जाते हैं। किसी के लिए धन-सम्पत्ति, किसी के लिए पद-प्रतिष्ठा, तो किसी के लिए दान-पुण्य, समाजसेवा या विद्यार्जन सर्वोच्च मूल्य बन जाते हैं। इन्हीं मूल्यवान वस्तुओं की प्राप्ति के लिए या अपने मूल्यों को दृढ़ता से प्रतिस्थापित करने के लिए हम अपना पूरा जीवन न्यौछावर कर देते हैं। इस प्राप्ति की यात्रा में हम अपने लिए एक व्यक्तित्व गढ़ते हैं, जिसके पीछे ज्योतिष शास्त्र की मानें तो हमारी कुण्डली के ग्रहों का चक्र है, आधुनिक मनीषियों की सुनें तो हमारे जन्म का सामाजिक परिवेष और झंझावातों से निर्मित हमारी मनोवैज्ञानिक अवस्था है। इसी व्यक्तित्व, इसी केन्द्रीभूत इच्छा में हमारे मूल्यों का जगत रचा-बसा है। फिर क्या फर्क पड़ता है कि ये मूल्य हमने अपने पिताजी से लिए, या गाँधी- गौतम - विवेकानन्द या फ्रायड - मार्क्स-डार्विन से अपने मूल्यों के असली रचयिता हम स्वयं हैं, कोई दूसरा नहीं।
- मूल्य निर्धारण की एक तीसरी विधा है, जिसकी पृष्ठभूमि में पण्डितए विचारकों, एवं समाज सुधारकों की एक आदर्श समाज की परिकल्पना है। समाज के हर वर्ग में व्याप्त, यह ऐसे मिस्त्री लोग हैं जो हमेशा हाथ में रिन्च लिए मशीन ठीक करने में लगे रहते हैं। मशीन की गड़बड़ी या सामाजिक कुरीतियों को दूर करने में इनका प्रशंसनीय योगदान है। परन्तु मशीन के अगले संशोधित संस्करण के लिए प्रायः इनके विचार सदियों से घिसे-पिटे होते हैं- यथा, सदा सत्य बोलो, जीवों पर दया करो, अपने कार्य- राष्ट्र- समाज के प्रति ईमानदार बनो, बुराई से लड़ो, भ्रष्टाचार से लड़ो, अशिक्षा से लड़ो, गरीबी से लड़ो आदि आदि । इस प्रकार की नैतिक या मूल्यपरक शिक्षा कितनी प्रभावशाली रही है, स्वयं समाज की स्थिति इसका ज्वलन्त उदाहरण है।
- फिर रास्ता क्या है? रास्ता है, परन्तु हम रास्ते से भटक चुके हैं। वैल्यूज़ और मूल्य एवं नैतिकता - पश्चिमी सभ्यता की नींव के पत्थर हैं, और वे वहाँ इथिक्स अत्यन्त कारगर हैं। परन्तु जो एक व्यक्ति की औषधि है, वही दूसरे के लिए विष हो सकती है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति की नींव पश्चिम से भिन्न है। इसकी नींव के पत्थर अलग हैं। 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत' यहाँ धर्म की ग्लानि का चिन्तन है। हमें अपनी बुनियाद की एक बार फिर से पड़ताल करनी होगी, तभी रास्ता मिलेगा।
धर्म और उसका स्वरूप धर्म क्या है
- बचपन से हम सुनते आये हैं कि धर्म पर ही चलने में कल्याण है, धर्म से विमुख होने में पतन है परन्तु धर्म क्या है, इसकी कोई सन्तोषजनक व्याख्या नहीं मिलती। यह तो सर्वविदित है कि भगवद्गीता भारतीय चिन्तन और संस्कृति के केन्द्र में है, और गीता जिसका उपांग है, उस महाभारत को धर्मग्रन्थ कहा गया है। महाभारत में वनपर्व में यक्ष - युधिष्ठिर सम्वाद की एक कथा आती है, जिसके बारे में हम सब नें सुना और पढ़ा है। आप जानते हैं कि यक्ष कोई और नहीं, युधिष्ठिर के पिता स्वयं धर्मराज हैं। इस कथा का वैशिष्ट्य यह है कि धर्म और धर्मपुत्र के सम्वाद के केन्द्र में जो विषयवस्तु है, वह भी धर्म ही है। धर्म की व्याख्या के लिए इससे सुन्दर कोई और उपाख्यान नहीं हो सकता।
- किसी एक गुरू या महापुरुष जैसे कृष्ण, यीषु या पैगम्बर मुहम्मद साहिब के बताये गये रास्ते पर चलने को पन्थ कहते हैं, जिसे आजकल धर्म कहा जाने लगा है। युधिष्ठिर से प्रश्न पूछा गया है कि पन्थ क्या है - कः पन्थाः । यानि कि कौन सा मार्ग, किसका बताया गया मार्ग सही या श्रेष्ठ है? युधिष्ठिर का दिया गया उत्तर अत्यन्त प्रसिद्ध है, फिर भी यह उत्तर काफी कुछ गोलमोल लगता है, बिल्कुल स्पष्ट तो कतई नहीं कहा जा सकता। उत्तर है-
तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैकोॠषिर्यस्य मतं प्रमाणम्
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः ।।
- किसका मार्ग श्रेष्ठ है बुद्ध का या कृष्ण का? युधिष्ठिर कहते हैं कि एक तो - इसे तर्क द्वारा स्थापित नहीं किया जा सकता, दूसरे तमाम श्रुतियां अलग अलग बात कहती हैं, तीसरा कोई भी एक ऋषि नहीं है जिसके मत को प्रमाण माना जा सकता है, और चौथे धर्म का असली तत्व तो इतना गुप्त है जैसे कि वह किसी गुफा में छुप के बैठा हो। इन परिस्थितियों में युधिष्ठिर बस इतना ही सुझा सकते हैं कि जिस रास्ते पर महापुरुष चलते आये हैं, वही अनुकरणीय मार्ग है, वही पन्थ है। महाभारत काल में महापुरुष या महात्मा की शास्त्रीय व्याख्या है कि ये वे पुरुष हैं जो महत् आत्मा में अवस्थित हैं। हमारे काल के महापुरुष जिनके नाम पर शहर, जिलों या विश्वविद्यालयों के नाम रखे जाते हैं, वे इस श्रेणी में नहीं आते हैं।
- प्राचीन संस्कृत साहित्य में जितने भी धर्म विषयक सुभाषित पद मिलते हैं, उनमें धर्म के लक्षण बताये गये हैं, या धर्म प्राप्ति के साधन, लेकिन धर्म क्या है, इसकी कोई चर्चा नही है। फिर जब स्वयं धर्मराज और धर्मपुत्र युधिष्ठिर तथा महाभारत जैसा धर्मग्रन्थ भी इस विषय पर मौन हों, तो आवश्यक हो जाता है कि इस मौन का अर्थ तलाशा जाय। दरअसल धर्म जैसी अनेक सत्ताएं हैं जैसे प्रेम, सत्य, करुणा - जिन्हें व्याख्यायित नहीं किया जा सकता, और यदि व्याख्यायित करने का प्रयास किया जाता है तो सारी व्याख्याएं अत्यन्त सीमित, अपर्याप्त और लगभग अर्थहीन सी प्रतीत होती हैं। इसीलिए जो जानते हैं, वे मौन हैं।
चाहे सत्य हो या धर्म, परमसत्ता के विषय में भारतीय दर्शन की संकल्पना रही है कि वह एक साथ निराकार एवं साकार है।
"स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम"-
- वह शुक्रम् (तेजस्वी), अकायम् (निराकार), अव्रणम् (दोषरहित), अस्नाविरम् (स्नायुतन्त्र या संरचना विहीन), शुद्धम् अपापविद्धम् (पाप से अछूता ) है। मूलतः वह अरूपा है, परन्तु आवश्यक होने पर अनेकानेक रूप धारण करता है। ऐसा ही अरूपा प्रेम माँ के मौन, उसकी आँखों और उसकी भृकुटी से टपकता है, पर पूछो तो वह भी नहीं बता पाती कि यह प्रेम है क्या ।
- आगे चलकर धर्मराज बताते हैं कि दस गुणों से मिलकर उनका शरीर बना है। ये दस गुण हैं यश, सत्य, दम, शौच, सरलता, लज्जा, अचञ्चलता, दान, तप और ब्रह्मचर्य।
"यशः सत्यं दमः शौचमार्जवं हीरचापलम् ।
दानं तपो ब्रह्मचर्यमित्येतास्तनवो मम ।। "
- यानि जब व्यक्ति में इनदस गुणों का प्रकट्य हो, तो समझना चाहिए कि वहाँ धर्म की उपस्थिति है। यहाँ आवश्यक हो जाता है कि आप इन गुणों को थोड़ा विस्तार से समझ लें। लेकिन इसके पहले दार्शनिक चिन्तन के एक और पहलू को जानना होगा नेति नेति, वह यह नहीं है, वह वह नहीं है। परम तत्व के जिन गुणों की हम अक्सर चर्चा करते हैं, अगर उसकी उपस्थिति हमारे भीतर नहीं है, तो उसे हम कैसे जान सकते हैं? उपाय है। जो गुण हमारे भीतर विद्यमान नहीं है, उसके विपरीत जो अवगुण हैं, वे तो प्रायः हमारे भीतर और आसपास प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। तो हमें पहले इन विधर्मी तत्वों की सत्ता को नेति नेति द्वारा नकारना होगा, ताकि असल तत्व के प्राकट्य की सम्भावना बन सके। हमें यह तो नहीं मालूम कि सत्य क्या है, प्रेम क्या है, दया क्या है; पर हम अच्छी तरह जानते हैं कि झूठ, नफरत और क्रोध किसे कहते हैं। इसीलिए हमें कई बार अ लगाकर शब्द गढ़ने पड़ते हैं जैसे अहिंसा, पता नहीं अहिंसा क्या है, लेकिन हिंसा हम जानते हैं, और इसी हिंसा के बोध से अहिंसा की कल्पना कर सकते हैं। धर्म के गुणों को समझने के लिए हमें कई बार इसी नेति नेति की पद्धति का इस्तेमाल करना पड़ेगा।
- धर्म के शरीर का पहला तत्व है, यश । धर्मनिष्ठ व्यक्ति का यशस्वी होना उसका लक्षण है, उपलब्धि नहीं । यश शाश्वत है, अमृत है, धर्मनिष्ठ काया की दीप्ति है। उसे न तो राजा और उसके अस्त्र, न तो प्रजा और उसकी निन्दा कभी छू सकते हैं। यश इस लोक का नहीं है, इसलिए यह लोक उसे प्रभावित नहीं करता। प्रश्न है कि क्या क्रिकेट के अमुक खिलाड़ी को अगर भारत रत्न मिल जाय तो हम उसे यशस्वी कह सकते हैं? क्या किसी भी खेल की कोई सत्ता हो सकती है? और जब उसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, तो वह असत है। और असत का यश कैसे हो सकता है? राजा की सत्ता है, क्योंकि वह प्रजा की रक्षा, उसके पालन-पोषण के लिए है। वह धर्मनिष्ठ हो सकता है, इसलिए यशस्वी भी। परन्तु वह धर्मनिष्ठ नहीं हो, तो नोबेल और भारतरत्न के तमगे उसे यश की प्राप्ति नहीं करा सकते। कुछ ऐसे ही प्रश्न पूछने होंगे, उनके उत्तर ढूढ़ने होंगे, तभी तो आप यक्षप्रश्नों की अनुभूति के निकट पहुँचेंगे।
- सत्य जानने के लिए झूठ को देखना होगा। झूठ भ्रम है, मिथ्या है, असत है; फिर चाहे वह अखबार का झूठ हो, या राजनेता का या हमारी स्वयं की कपोलकल्पना का, उससे कुछ भी नहीं प्राप्त होने का वह तो चूरन का नोट है, उसका चलन सिर्फ बच्चों के खेल में है, उसके बाहर नहीं । अन्दर बाहर के अनगिनत झूठों को नकारना ही सत्य के मार्ग पर चलना है।
- दमन रावण का है, महिषासुर का है; अपने अन्दर और बाहर राक्षसी प्रवृत्तियों का है। और यह या तो राम कर सकते हैं या दुर्गा । तो हमें राम को पूजना होगा, दुर्गा को पूजना होगा, उन्हें धारण करना होगा। "धारयते इति धर्मः"। जिसे हम धारण करें, या जो हमें धारण करे, वही धर्म है। राक्षस को तो हम धारण कर सकते हैं, लेकिन राक्षस हमें धारण नहीं कर सकता। क्यों? इसलिए राक्षसी धर्म जैसी कोई चीज नहीं होती, वह केवल व्याकरण का पद है। धर्म में ही आतंकी महिषासुर का दमन है, धर्म में ही दमन की शक्ति निहित है।
- शौच पवित्रता है। गन्दगी बाहर ही नहीं, अन्दर भी है। मैल मन का है। स्वच्छ भारत सिर्फ झाडू लगाने से नहीं बनेगा। इसीलिए प्रधानमन्त्री जी को नोटबन्दी करनी पड़ी। यह जो भ्रष्ट आचरण है, भ्रष्टाचार है, उससे मुक्ति ही शौच है, पवित्रता है।
- आर्जव सरलता है, अवक्र होना है सीधा, न कि टेढ़ामेढ़ा, गोलमोल, - घुमावदार । गाँधी सरल हैं एक धोती, एक लाठी और उनकी दिव्य मुस्कान। सरल - होना बहुत कठिन है। सोच में, वाणी में, आचरण में जो सरल है, वह हर जगह सरल है। कठिन होना, दुरूह होना, बहुत आसान है। हर व्यक्ति कठिन है, दुरूह है। समझ में नहीं आता कि जो व्यक्ति हमारे बगल में बैठा है, वह क्या करना चाहता है, कहाँ जाना चाहता है, क्या पाना चाहता है। एक तरफ गाँधी की धोती है; दूसरी तरफ उसकी टोपी, अचकन, गुलूबन्द, रूमाल, इत्र और जाने क्या क्या धर्मनिष्ठ आर्जव है, सरल है; धर्मभ्रष्ट कठिन है, दुरूह है, जलेबी की तरह उलझा हुआ।
- किसी शायर ने कहा है, "मुझमें जो कुछ अच्छा है सब उसका है। मेरा जितना चर्चा है सब उसका है।।" अगर मेरी बुद्धि, विवेक, शरीर, सब कुछ उसका दिया हुआ है, तो मैं तो उधार के कपड़े पहने घूम रहा हूँ। और उधार के कपड़े पहनने में लज्जा तो आती ही है। बस धर्मनिष्ठ को यही बोध है, इसलिए वह विनीत है। मूर्ख अहंकारी को लगता है, मैनें मेहनत करके सब कुछ अर्जित किया है बल, बुद्धि, पद, प्रतिष्ठा, सब मेरा कमाया हुआ है। यही भेद है ज्ञान और अज्ञान में।
- अचापल्य या अचञ्चलता चञ्चलता का अभाव है। धर्मनिष्ठ व्यक्ति में श्रद्धा और विश्वास बसते हैं, इसलिए उसका मन इधर उधर नहीं भटकता या तो यह विश्वास हो कि ईश्वर इस सृष्टि का नियन्ता है, वह प्रेममय है, कण-कण के परम कल्याण हेतु ही उसकी लीला है। या फिर यह कि सृष्टि की समग्रता में सामन्जस्य की गति है, उसकी अनन्त रूपमयी संरचना के रग-रग में एक अद्भुत ज्ञान क्रियाशील है । तब आप इस विश्वास के साथ जी सकते हैं कि जो कुछ भी बाहर या भीतर घटित हो रहा है, वह सत्य है, शिव है, सुन्दर है । मन की कुछ ऐसी ही अवस्था में मन की चञ्चलता के शान्त होने की सम्भावना है।
- दान का गुण सर्वहुतः यज्ञ का प्रतिफल है। मन, बुद्धि शरीर तथा धन आदि सभी भौतिक पदार्थ जब ईश्वर के लिए या समग्र सृष्टि के कल्याण के लिए समर्पित हों, तभी शुद्ध दान की क्रिया घटित होती है। दान करना प्रकृति का स्वभाव है। जल, वायु, अग्नि, आकाश, सभी सम्पूर्ण सृष्टि के उपभोग के लिए हैं। वृक्ष का फल स्वयं वृक्ष नही खाता, बल्कि सभी प्राणियों के पालन हेतु यह उसका दान है। जो कुछ भी हमारे आपके पास वह इस सृष्टि का है, सृष्टि के लिए है। इसीलिए देना हमारा नैसर्गिक धर्म है।
- तप का अर्थ है ऊष्मा, जैसे कि "उसका शरीर तप रहा है- शरीर गर्म है, बुखार है। ऊर्जा से ऊष्मा उत्पन्न होती है। यानि कि ऊर्जा को संरक्षित करना, उसका क्षरण न होने देना, तपस्या है। मन, वचन और शरीर तीनों से हम अनेक अर्थहीन क्रियाओं में दिनरात अपनी ऊर्जा का क्षरण करते रहते हैं। एक एक करके इन तमाम अर्थहीन क्रियाओं जैसे कि, गप मारना, टीवी देखना, फेसबुक करना, चुगली करना, - झगड़ा करना, व्यर्थ की चिन्ता करना, आदि आदि का त्याग करना ही तपस्या है।
- ब्रह्मचर्य का प्रचलित अर्थ कौमार्य या इन्द्रियनिग्रह बहुत सीमित है। ब्रह्म, - - हम सब जानते हैं, अनिर्वचनीय परमसत्ता को उसकी समग्रता में कहते हैं । चर्या का अर्थ है, १. सैर करना, घूमना फिरना २. मार्ग, चाल (जैसे कि "राहुचर्या") ३. व्यवहार, आचरण-विधि ४. अभ्यास, अनुष्ठान (जैसे कि "तपश्चर्या " ) । इस प्रकार ब्रह्म में अनेकानेक प्रकार से विचरण करना ही व्यापक अर्थों में ब्रह्मचर्य है ।
- आइए, अब तक पढ़े पाठ को दोहराने के लिए, धर्मकाया रूपी इन दस गुणों से युक्त धर्मशील व्यक्ति का पुनरावलोकन करें । धर्मशील व्यक्ति यशस्वी एवं सत्यनिष्ठ होता है। वह राक्षसी प्रवृत्तियों और दुराचारियों के दमन में समर्थ होता है। उसका स्वभाव सरल, विनीत और स्थिर प्रकृति का होगा । वह अन्दर - बाहर से पूर्णरूपेण पवित्र होगा तथा व्यवहार से दान, तप और ब्रह्मचर्य में निमग्न होगा। भारतीय दृष्टिकोण से ऐसा ही व्यक्तित्व मानवमूल्यों से परिपूर्ण समझा जायेगा। महाभारत के महाराज युधिष्ठिर में यही व्यक्तित्व पूरी तरह परिलक्षित है।