मानव मूल्य का स्वरूप (Form of Human Values in Hindi)
मानव मूल्य का स्वरूप
मूल्य के रूप तो अनेक हैं किन्तुं स्वरूप तात्विक है परिवर्तित होते रहना रूप का स्वभाव है । परिवेश के अनुसार, मान्यताओं के अनुसार मूल्यों के रूप भिन्न-भिन्न देखे जाते हैं, किन्तु सभी मूल्य, अपनी स्थितियों में उसी प्रकार रहते हैं । पहले यहाँ पर मूल्यों के प्रकार के विषय में चर्चा कर लेते हैं, फिर उनके स्वारूप का अध्ययन करेंगे । प्रमुख रूप से मूल्य इस प्रकार हैं-
1. शैक्षिक संस्कारों के निहितार्थ में जीना या धर्म पालन
2. सेवा
3. श्रद्धा
4. करूणा
5. परोपकार
6. त्याग
1 शैक्षिक संस्कारों के निहितार्थ में जीना या धर्म पालन
वेदों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत, भागवत, भगवद्गीता आदि में मूल्यों के आचरण अनेक स्थानों पर बताये गये हैं, जिसमें हमारे जीवन को सार्थक बनाने के सभी उपक्रमों का उल्लेख विस्तार से है । इन मानव मूल्यों का उल्लेख संक्षेप में इस प्रकार है यथा सत्य बोलना, हिंसा न करना, दयालु होना, उचित-अनुचित का विवेक, एकान्त में स्त्रियों के साथ न रहना, चाहे अपनी माता ही क्यों न हो । गुरु अथवा शिक्षक के प्रति समर्पण, गुरू के अनुकरणीय आचारों का अनुगमन करना, प्रकृति की रक्षा करना, लोभ से दूर होना, वासना के वशीभूत होकर अनाचार में लिप्त न होना । प्राप्त ज्ञान का दान करने में संकोच न करना, ये सब मूल्य हैं जो छात्र अपने जीवन में उपर्युक्त आचरणों के सहारे समाज में रहता है, उसे कभी अपयश नहीं मिलता । उसका जीवन पवित्रता से भरा होता है । सत्य का यदि पालन न हो तब भी उसकी सत्ता तो रहेगी, अहिंसा भी उसी प्रकार है व्यक्ति के मन की उदारता ही दया का स्वरूप है एकान्त में स्त्रियों के साथ न रहना ही जितेन्द्रिय बनने में सहायक है । गुरु अथवा शिक्षक के प्रति समर्पण ही आगामी गुरूता का स्वरूप है । प्रकृति की रक्षा करना ही अपने अस्तित्व के बोध को दर्शाता है लोभ से दूर होना ही समत्व है । अतः यही हमारे शैक्षिक संस्कारों के निहितार्थ में जीना है, यदि इन्हें जीयेंगे तो आपका जीना ही मूल्य कहलायेगा.
2 सेवा
हमारी संस्कृति में मानव सेवा को ही ईश्वर सेवा मानने की विशिष्टता निहित है। महाभागवत में वर्णित एक आख्यान से ज्ञात होता है कि महाराजा रन्तिदेव ने महाविष्णु के प्रकट होने पर उनसे मोक्ष न माँगकर जनता की सेवा करने की शक्ति प्रदान करने का वरदान माँगा था ।
सेवा मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है जो अन्य प्राणियों से श्रेष्ठतम बनाता है। सेवा मानवता की अद्भुत जीवन रेखा है। सेवाधर्म परम गहन होने से योगियों के लिए अगम है। विवेक, बुद्धि, काल और समय का विचार करके सेवाधर्म का निर्वहन होता है। सेवा के समान कोई तप और यज्ञ नहीं है। हनुमान जी सेवा और आत्मसमर्पण के प्रतीक हैं । तुलसीदास जी कहते हैं कि-
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना ।
सेवा धरमु कठिन जगु जाना ।
भारतीय चिंतन में सेवा जीवन शैली का एक विशिष्ट अंग है। सामाजिक सेवा कीर्ति बढ़ाती है सेवा परमात्म तत्व, वरदान, यज्ञ, तप और त्याग है। सेवा परमतत्व सिद्ध होती है। सेवा का वास तप के मूल में है । सेवाधर्म में स्वार्थ ईर्ष्या के कारण विरोध आता है। सेवा का भाव परिवार और मां की गोद से उपजता है। यह सबसे बड़ा संस्कार होता है। सेवा करने की तत्परता महानता का लक्षण है। दूसरों के लिए निःस्वार्थ भाव से किया गया कार्य सेवा है। सेवा का अर्थ है देने के अलावा न लेने का संकल्प | सेवा व्रत सदाचरण का प्रतीक है। सेवा का श्रेष्ठतम रूप माता-पिता, आचार्य और अतिथि की सेवा करना है। सेवा का संस्कार महान बनाता है। सेवाव्रती तेजस्वी, कर्मनिष्ठ, उन्नत एवं विलक्षण होते हैं। निष्काम सेवा जीवन को चमकाती है । मानवता की सेवा ईश्वर की पूजा है। सेवा में ही जीवन है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि त्याग और सेवा भारत के दो आदर्श हैं। इन दिशाओं में उसकी गति को तीव्र कीजिए शेष अपने आप ठीक हो जायेगा । वही जीवित हैं, जो दूसरों की सेवा के लिए जीते हैं । समाज सेवा विराट की सेवा है सेवाधर्म की पावन मंदाकिनी सबका मंगल करती है । यह लोक साधना का सहज संचरण है। माता-पिता की सेवा से बढ़कर कोई तप नहीं है । सेवा मानवीय गुण है निष्काम सेवा का फल आनंद है-
3 श्रद्धा
धर्म के आचरण से पहले श्रद्धा का स्थान है, रामचरितमानस में -
श्रद्धा बिना धरम नहि होई, ऐसी चौपाई आती है । सभी मूल्यों का आचरण धर्म का आचरण है ।
धर्म' शब्द मात्र 'कर्तव्य पालन' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। महाभारत के वन पर्व में एक शूद्र धर्मव्याध का आख्यान उल्लिखित है, जो मांस विक्रय का पेशा करता था, परन्तु उसने ब्राह्मण कौशिक को उपदेश देकर यह सिद्ध किया कि संसार में स्वधर्माचरण से श्रेष्ठतम तथ्य अन्य कुछ नहीं है, जिसका आचरण ही मानव के लिये परमोत्कृष्ट धर्म है।'
जन्म संस्कार मात्रेण धर्म मार्ग प्रवर्तकः
उपदेशम् कौशिकाय धर्मव्याधो भवत्तदा ।
श्रीमद्रामायण में माता कौशल्या श्रीरामचन्द्र से अपने धर्म का आचरण करने का उपदेश देते हुए कहती है-
यं पालयसि धर्म त्वं धृत्या च नियमेन च
स वै राघव शार्दूला धर्मम्त्वामभिरक्षतु
भाव यह है कि 'हे राम ! तुम जिस धर्म का आचरण करोगे, वही तुम्हारी रक्षा करेगा धर्माचरण को भारत में अत्यंत प्रभावपूर्ण माना गया है महाभारत के वन पर्व में यक्ष जब युधिष्टिर से अनेक प्रश्न पूछकर संतुष्ट होता है, तो वह कहता है कि 'हे युधिष्टिर ! बुद्धिजीवियों ने स्पष्टतः कहा है कि इस संसार में स्वधर्माचरण से बढकर अन्य कोई तपस्या नहीं है, जिसका आचरण कर तुमने उसके महत्व को सिद्ध कर दिया है। उपर के बताये गये सभी आचरण श्रद्धा के बिना सम्भव नहीं हैं । जैसे -
तपस्वधर्म वर्तित्वम् इति प्रोक्तम् बुधैस्सदा
तस्मात्तदेव कर्तव्यम् यदा धर्मेण द्वापरे ।
4 करूणा
मनुष्य को जीवन कठोरता में निवास नहीं करता है बल्कि मानव व्यवहार में करुणा का सबसे बड़ा स्थान है। पशुओं में भी करूणा पाई जाती है। करुणा से पहले मनुष्य आचरण की किसी कोटि में नहीं आता है। वस्तुतः शोक में करूणा रहती है किन्तु दूसरे के दुख को देखकर दुखी होने पर यह प्रकट होती है। रघुवंश महाकाव्य का अजविलाप इसका बहुत बड़ा उदाहरण है। राम कथा में दशरथ का विलाप भी इसी प्रकार है। यहाँ आप करुणा को इस प्रकार समझें-
- पुत्र के वियोग में पिता को मृत्युतुल्य कष्ट होना करूणा नहीं है बल्कि पुत्र के दुख से दुखी होना करूणा है। इसकी प्रथम अवस्था शोक ही है। भारतीय परम्परा के सभी ग्रन्थों में ईश्वर को करूणानिधान कहा गया है। वहाँ वियोग में करूणा नहीं होती, संजोग में होती है। आर्त व्यक्ति अपने शोक को मिटाने के लिए जब किसी की शरण में जाता है अथवा किसी को व्याकुल होकर पुकारता है तो इस स्थिति को देखकर जिसका भी हृदय उसी प्रकार शोकाकुल हो जाये उसी में करूणा मानी जायेगी।
- करूणा बुद्धावतार का बहुत बड़ा संदेश है। बुद्ध को करूणा की मूर्ति कहा गया है क्योंकि उनका समस्त उपदेश दुखों से छुटकारा पाने के लिए किया गया है। भागवत् के दशम् स्कन्ध के पूर्वार्ध में द्वितीय अध्याय के वर्णन में कृष्ण के देवकी के गर्भ में आने पर ब्रह्मा, शिव और नारद आदि ऋषियों की स्तुति में बताया गया है कि संसार एक वृक्ष है, इसके दो ही फल हैं सुख और दुख । जब दुख संसार का फल है तो बिना करूणा के मानव जीवन कैसे चलेगा अतः एक दूसरे के दुखों से परिचित होना और उन्हें दूर करने में पूर्ण भावनात्मक सहभागी होना ही कारूणिक मनुष्य का लक्षण है।
5 परोपकार
जीवन एवं शरीर की प्राप्ति मानव सेवा के लिये है, न कि भोग हेतु । इस संदर्भ में प्रकृति ही हमारा प्रथम गुरु है, यथा-
परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः
परोपकाराय वहन्ति नद्यः
परोपकाराय दुहन्ति गावः
परोपकारार्थमिदम् शरीरम् ।
उक्त श्लोक से हमें अपने कर्तव्य का बोध स्वयमेव हो जाता है । परोपकार का अर्थ है दूसरों की भलाई करना । कोई व्यक्ति जीविकोपार्जन के लिए अनेक उद्यम करते हुए यदि दूसरे व्यक्तियों और जीवधारियों की भलाई के लिए कुछ प्रयत्न करता है तो ऐसे प्रयत्न परोपकार की श्रेणी में आते परोपकार के समान कोई धर्म नहीं है मन, वचन और कर्म से परोपकार की भावना से कार्य करने वाले व्यक्ति संत की श्रेणी में आते हैं । ऐसे सत्पुरुष जो बिना किसी स्वार्थ के दूसरों पर उपकार करते है वे देवकोटि के अंतर्गत कहे जा सकते है परोपकार ऐसा कृत्य है जिसके द्वारा शत्रु भी मित्र बन जाता है । यदि शत्रु पर विपत्ति के समय उपकार किया जाए तो वह भी उपकृत होकर सच्चा मित्र बन जाता है। भौतिक जगत का प्रत्येक पदार्थ ही नहीं, बल्कि पशु पक्षी भी मनुष्य के उपकार में सदैव लगे रहते है यही नहीं सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, फल, फूल आदि मानव कल्याण में लगे रहते हैं । इनसे मानव को न केवल दूसरे मनुष्यों बल्कि पशु-पक्षियों के प्रति भी उपकार करने की प्रेरणा मिलती है असहाय लोगों, रोगियों और विकलांगों की सेवा परोपकार के अंतर्गत आने वाले मुख्य कार्य हैं ।
सच्चा परोपकारी वही व्यक्ति है जो प्रतिफल की भावना न रखते हुए परोपकार करता है गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है कि शुभ कर्म करने वालों का न यहां, न परलोक में विनाश होता है। शुभ कर्म करने वाला दुर्गति को प्राप्त नहीं होता है। चाणक्य के अनुसार जिन सज्जनों के हृदय में परोपकार की भावना जागृत रहती है, उनकी आपत्तियां दूर हो जाती है और पग-पग पर उन्हे संपत्ति और यश की प्राप्त होती है। तुलसीदास ने परोपकार के विषय में लिखा है-
परहित सरिस धरम नहिं भाई।
परपीड़ा सम नहिं अधमाई ॥
- दूसरे शब्दों में, परोपकार के समान कोई धर्म नहीं है । विज्ञान ने आज इतनी उन्नति कर ली है कि मरने के बाद भी हमारी नेत्र ज्योति और अन्य कई अंग किसी अन्य व्यक्ति के जीवन को बचाने का काम कर सकते हैं। इनका जीवन रहते ही दान कर देना महान उपकार है । परोपकार के द्वारा ईश्वर की समीपता प्राप्त होती है। इस प्रकार यह ईश्वर प्राप्ति का एक सोपान भी है ।
- परोपकार शब्द 'पर + उपकार इन दो शब्दों के योग से बना है । जिसका अर्थ है निःस्वार्थ भाव से दूसरों की सहायता करना । अपनी शरण में आए मित्र, शत्रु, कीट-पतंग, देशी-परदेशी, बालक- वृद्ध सभी के दुःखों का निवारण निष्काम भाव से करना परोपकार कहलाता है.
- प्रकृति का कण-कण हमें परोपकार की शिक्षा देता है नदियाँ परोपकार के लिए बहती है, वृक्ष धूप में रहकर हमें छाया देता है, सूर्य की किरणों से सम्पूर्ण संसार प्रकाशित होता है चन्द्रमा से शीतलता, समुद्र से वर्षा, पेड़ों से फल-फूल और सब्जियाँ, गायों से दूध, वायु से प्राण शक्ति मिलती है ।
- पशु तो अपना शरीर भी नरभक्षियों को खाने के लिए दे देता है । प्रकृति का यही त्यागमय वातावरण हमें निःस्वार्थ भाव से परोपकार करने की शिक्षा देता है । भारत के इतिहास और पुराण में परोपकार के ऐसे महापुरुषों के बहुत सारे उदाहरण हैं जिन्होंने परोपकार के लिए अपना सर्वस्व दे डाला.
- राजा रंतिदेव को चालीस दिन तक भूखे रहने के बाद जब भोजन मिला तो उन्होंने वह भोजन शरण में आए भूखे अतिथि को दे दिया। दधीचि ऋषि ने देवताओं की रक्षा के लिए अपनी अस्थियाँ दे डालीं । शिव ने समुद्र मंथन से निकले विष का पान किया, कर्ण ने कवच और कुण्डल याचक बने इन्द्र को दे डाले । राजा शिवि ने शरण में आए कबूतर के लिए अपने शरीर का मांस दे डाला । सिक्खों के गुरू गुरू नानक देव जी ने व्यापार के लिए दी गई सम्पत्ति से साधु सन्तों को भोजन कराके परोपकार का सच्चा आचरण किया ।
6 त्याग
मानव के लिये त्याग भावना अत्यंत सहज होनी चाहिये, जब हम अपनी आवश्यकतआओं की उपेक्षा कर किन्हीं जरूरतमन्दों का उपकार करते हैं, तो उसे ही त्याग भावना' कहा गया है। कठोपनिषद का स्पष्ट कथन है कि कर्म, संतान अथवा धन के माध्यम अमृतत्व की स्थिति को कदापि नहीं पाया जा सकता है, केवल त्याग के माध्यम ही इसे प्राप्त किया जा सकता है, यथा -
'न कर्मणा न प्रजया धनेन
त्यागेनैकेन अमृतत्व मानसुः ।
महाभारत में राजा शिबि का आख्यान वर्णित है, जिसने एक कपोत की रक्षा के लिये अपने शरीर को काटकर उन्होनें बाज को मांस दिया था ।
'त्यागेनैकेन ख्यातोभूत शिविस्सर्व महान् तथा
कपोत रक्षणार्धाय स्वशरीरमदात्तदा ।
दधीचि और कर्ण त्याग भावना के संदर्भ में उल्लेखनीय चरित्र हैं । दधीचि ने वृत्तासुर के संहार के लिये अपनी रीड़ की हड्डी को दान में दे दिया, जिससे वज्रायुध का निर्माण हुआ, तो दानी कर्ण ने अपने जन्मजात कवच और कुंडल दान में देकर अपनी त्याग भावना का परिचय दिया । मत्स्य पुराण में राजा बलि का आख्यान विस्तार में वर्णित है, जब राक्षस गुरु शुक्राचार्य को ज्ञात होता है कि राजा बलि ने वामन को तीन पग धरती दान देने का वचन दे दिया है, तो वह बलि को अपने वचन से मुकर जाने के कई तथ्य प्रस्तुत करता है, परन्तु बलि अपनी बात पर टिके रहते है । कविकुल गुरु कालिदास ने अपने महाकाव्य 'रघुवंशम' के पंचम सर्ग में महाराज रघु की प्रशंसा में कहा कि वरतन्तु के शिष्य कौत्स की इच्छापूर्ति के लिये चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्रायें दान में देकर अपनी वचनबद्धता निभाया ।