ज्ञानमार्ग भक्ति या प्रेम का भावमार्ग | मार्ग एक : ज्ञानमार्ग |मार्ग दो : भक्ति या प्रेम का भावमार्ग | Gyan Bhakti Prem Marg

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ज्ञानमार्ग भक्ति या प्रेम का भावमार्ग 

ज्ञानमार्ग भक्ति या प्रेम का भावमार्ग | मार्ग एक : ज्ञानमार्ग |मार्ग दो : भक्ति या प्रेम का भावमार्ग | Gyan Bhakti Prem Marg
 

मार्ग एक : ज्ञानमार्ग

  • भारतीय और पाश्चात्य दर्शन दोनों यहाँ एकमत हैं कि अज्ञान या दिग्भ्रमित संकल्पशक्ति से ही सभी चारित्रिक दोषों की उत्पत्ति होती हैऔर ज्ञान ही एकमात्र विकल्प है जिनसे उनका नाश हो सकता है। उदाहरण के लिएयदि सातवीं इकाई में भीष्म द्वारा बताए गये इन दोषों से निदान के उपायों को देखें तो हम पाते हैं कि तेरह में से दस दोषों का निदान ज्ञान में है। काम-वासना के निदान के लिए कहा गया - "यदा प्राज्ञो विरमते तदा सद्यः प्रणश्यतिअर्थात प्रज्ञावान या बुद्धिमान (वैसे प्रज्ञा और बुद्धि में बहुत भेद हैपरन्तु उतने सूक्ष्म में जाने की आवश्यकता नहीं है) के विरक्त होने से इसका निदान है । प्रज्ञा साधनी पड़ेगीज्ञान चाहिएअज्ञानी के लिए काम-वासना से छुटकारा नहीं है। डाहद्रोहशत्रुता का निदान है - तत्त्वज्ञानाच्च धीमताम्। तत्त्वज्ञान सृष्टि का मूलविषयक ज्ञान हैछोटा मोटा इतिहास भूगोल का ज्ञान नहीं। इसी तरह मोह एवं ईर्ष्या से मुक्ति प्रज्ञा में हैविधित्सा की तत्त्वज्ञान मेंशोकमदलोभनिन्दा एवं कृपणता का निदान उन्हें भलीभाँति समझ लेने में है।

 

  • यही पाश्चात्य परम्परा का मार्ग है। सुकरात कहते हैं कि हम अशुभ इसलिए चुनते हैं क्योंकि हमें शुभ का बोध नहीं है। प्लेटो का मानना है कि विवेकहीनता ही चोरीविश्वासघात और देशद्रोह के मूल में है। तितिक्षावादी मान्यता है कि इन्द्रियजन्य सुखों की लालसाइच्छाओंशोक और भय का कारण भ्रमित दृष्टि है। प्राचीन ग्रीक विचारकों के अनुसार विवेकज्ञान और सत्य का बोध ही हमें अधोगति से बचा सकता है । आधुनिक काल में जर्मन दार्शनिक शॉपनहावर लगभग वही बात दोहराते हैं जो ऊपर भीष्म की अन्तिम सीख है। वे कहते हैं कि संसार का छल-कपटदुष्टताइच्छाओं की अर्थहीनतावैयक्तिक अस्तित्व, 'मैंका भ्रम आदि का चिन्तन-मनन स्वार्थकेन्द्रित विद्रूप अधोगामी संकल्पों से छुटकारा दिला सकता है।

 

  • ज्ञान का मार्ग सत्य की खोज है। सत्य तक पहुँचने के लिए झूठ को असत् को नकारना होगा। प्लेटो कहते हैंजो शाश्वत हैवही सत्य हैइन्द्रियों के माध्यम से दृ ष्टिगोचर भौतिक जगत क्षणभंगुर हैनश्वर हैअसत् है। ग्रीक आचार्यों का मत है कि शाश्वत के ध्यान में ही अहर्निश निमग्न होने में मुक्ति हैआनन्द है यही मानव जीवन का श्रेष्ठतम कर्म है। नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय

 

  • हम यह नहीं कहते कि आप प्लेटोभीष्मशॉपनहावर या किसी अन्य की बात पर आँख मूँद कर विश्वास कर लें। लेकिन इस मार्ग पर एक कदम भी बढ़ाने के पहले विवेक की आँख थोड़ी थोड़ी तो खोलनी ही पड़ेगी। सत्य तो बहुत बाद मेंसुकरात - विवेकानन्द- गाँधी की पंक्ति में खड़े होने पर दिखेगामगर उसके पहले यदि फिल्मी संसार का झूठअखबार का झूठनेताओं का झूठ उद्योगपतियों और टीवी के बाबाओं का झूठ दिखना शुरू हो जाय तो समझिए यात्रा प्रारम्भ हो गयी है। और अगर नेताअभिनेताबाबासब सच लगते हैंतो अगले जन्म का इन्तजार कीजिएक्योंकि इस जन्म में कुछ नहीं होने वाला ।

 

2 मार्ग दो : भक्ति या प्रेम का भावमार्ग

 

  • ऊपर हमने देखा कि भीष्म के बताए गये तेरह दोषों में से दस का निदान ज्ञान में है। शेष तीन में से दो का निदान भाव में और एक का कर्म है क्रोध क्षमा से शान्त होता है। इसी तरह असूया या परदोषदर्शन तथा बुरायी करना करुणा से निवृत्त होती है। क्षमा और करुणा हृदय में वास करते हैंबुद्धि में नहीं। हृदय में एक और सत्ता का वास है 'ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति' (गीता १८.६१ ) । इसी सत्ता में क्षमा और करुणा का स्रोत है। क्षमा और करुणा मानवीय मूल्य नहींमनुष्य में देवत्व की उपस्थिति है। इसके लिए ईश्वर का आह्वान करना पड़ताऔर प्रेम ही यह आह्वान कर सकता है। इस विषय पर थोड़ा आगे हम फिर लौटेंगे। मात्सर्य या विद्वेष का भाव साधुओं की सेवा करने से दूर होता है। वैसे तो अनपढ़ ग्रामीण भारतवासी भी भलीभाँति समझता है कि साधु कौन हैंऔर सेवा क्या हैपरन्तु सेवा की सामर्थ्य हर व्यक्ति में नहीं होती। भीष्म इंगित कर रहे हैं कि दस ज्ञान पर दो भाव भारी हैंऔर इन बारहों से भारी सेवा का कर्म है। अकेले सेवा से मुक्ति सहित सब कुछ प्राप्त हो जाता है। हनुमानजी और सेवा पर्यायवाची हैं। इससे अधिक इसकी व्याख्या सम्भव नहीं है। क्षमाकरुणासेवातीनों के केन्द्र में प्रेम है। सिक्ख परम्परा की साधना के केन्द्र में भी सेवा ही है।

 

  • पाश्चात्य दर्शन में प्राचीन ग्रीस की ज्ञानमार्गी धारा के पश्चात सेन्ट ऑगस्टीन के प्रादुर्भाव के साथ एक नयी परम्परा का प्रारम्भ होता है। ऑगस्टीन ने ग्रीक दर्शन के आधार को ही नकारते हुए कहा कि जीवन का परम लक्ष्य ज्ञान की प्राप्ति नहींईश्वर से मिलन है। प्रेम ही इस मिलन का एकमात्र उपाय हैप्रेम ही श्रद्धा का मूल हैप्रेम में ही सभी आशाओं की शरणागति है परन्तु यह प्रेम केवल ईश्वर की कृपा से प्राप्त होता है।

 

  • ऑगस्टीन की परम्परा को आगे बढ़ाते हुएअक्वाइनस ने जोड़ा कि हमारे जो भी सद्गुण और सदाचार (virtues ) हैंवे सब एकमात्र ईश्वरीय कृपा से ही प्राप्त होते हैं। यही बात भारतीय भक्ति परम्परा में गोस्वामी तुलसीदास ने कही है 'अब मोहि भा - भरोस हनुमन्ता । बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ।।' अक्वाइनस कहते हैं कि साधनातपस्या और पुण्यकर्मों के सहारे ईश्वर मिलन नहीं हो सकताइस मिलन का एकलौता आधार प्रभु की कृपा ही है। जे. कृष्णमूर्ति ने एक बार सानन (स्विटजरलैन्ड) में अपनी शिष्य-मण्डली को तीन माह तक लगातार पाठ पढ़ाने के बाद अन्त में कहा  अब आपने अपने कमरे को बुहार कर साफ सुथरा कर लिया हैआपने सभी खिड़कियाँ और दरवाजे खोल दिये हैंऔर आप चुपचाप अपने अतिथि (परमप्रभु) के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे आ भी सकते हैंऔर नहीं भी आ सकते हैं।अतिथि का आगमन उनकी कृपा है। इस कृपा का न तो अनुमान लगाया जा सकता हैऔर न ही अतिथि से किसी अपेक्षा का भाव हो सकता है। बस इतना ही हमने उनके सहस्रों भक्तों से सुना है कि वे अत्यन्त कृपालु हैं।

 

उपसंहार : यक्ष प्रश्न 'जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः'

 

  • इस इकाईखण्ड या पाठ्यक्रम के अन्तिम पड़ाव पर हमें उसी यक्ष प्रश्न का सामना करना पड़ता हैजो कभी धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन ने किया था। पाश्चात्य परम्परा के अनुसारआदम और हव्वा की सन्तति होने के कारण हम उनके पहले मूलस्वरूप पापकर्म (The Original Sin) और उसके दण्ड के उत्तराधिकारी हैं। इस कथा को यदि भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो हममें से अधिकांश धृतराष्ट्र और दुर्योधन की ही मानस - सन्तति हैं। इसीलिए दुर्योधन का प्रश्न हमारे लिए आज भी प्रासंगिक हैऔर इसीलिए यह प्रश्न अनेकों विद्वत सभाओं में बार-बार उपस्थित होता है।

 

  • बचपन से हमें पढ़ाया गया कि गाँधी जी कहते थे सदा सत्य बोलोया पश्चिम में बच्चे बच्चे को मूसा का धर्मादेश रटा पड़ा है। लेकिन सुबह से शाम तक हम देखते हैं कि छोटे से बड़ाहर आदमी झूठ ही झूठ बोलने में लगा है। तो फिर सदा सत्य बोलोका पाठ पढ़ाने का पहले क्या फायदा हुआऔर एक बार फिर उसी पाठ को यहाँ इस पुस्तक में पढ़ाने से अब क्या फायदा होने वाला हैयही दुर्योधन का यक्ष - प्रश्न है।

 

  • दुर्योधनरुको! भीष्मद्रोणादि गुरुजनों की शिक्षा का ही परिणाम है कि तुम्हें आज भी यह प्रश्न याद हैतुम्हें आज भी यह बोध सालता है कि तुम धर्म का वह मार्ग जो सामने था उस पर नहीं चल सके। तुम कृष्ण के पास माँगने भी गये थेपरन्तु वह माँग बैठे जो अनुपयोगी था दोष शिक्षा का नहीं हैदोष तुम्हारी भूमि का है कि उसमें बबूल के सिवा कुछ और उगता ही नहीं है। पश्चिम भी यही तो कहता है कि ऐडम के पाप से हमारी भूमि ही दूषित हो चुकी हैइसका उद्धार केवल क्राइस्ट के रक्त से ही सम्भव है। क्राइस्ट का रक्त प्रभु के पुत्र की बलि हैपुरुषसूक्त के विराट पुरुष की बलि है। यह परमप्रभु की करुणाअनुकम्पा और कृपा है।

 

  • ऑगस्टीन ने इसीलिए ग्रीक परम्परा को नकारा कि केवल जानने सेकेवल ज्ञान से कुछ नहीं होने वाला पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय । ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय । सत्य के संसार में प्रवेश का मार्गप्रभु से मिलन की राह बुद्धि से नहींहृदय से होकर जाती है। इसलिए वहींहृदय मेंअहर्निशरात-दिनचौबीसों घण्टे प्रभु का ध्यान करना होगाउनका दरवाजा खटखटाना होगाउन्हें पुकारना होगा। और फिर जैसे कृष्णमूर्ति ने कहाउनकी प्रतीक्षा करनी होगी 'वे आ भी सकते हैंऔर नहीं भी आ सकते हैं।यही तो ऑगस्टीन और अक्वाइनस की कृ - विषयक दृष्टि है। हर युग मेंहर समाज मेंकरोड़ों लोगों को वह कृपा प्राप्त हुयी पा है। वह सभी कोऔर किसी को भीघोड़ा को भीप्राप्य है।

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