पाश्चात्य दर्शन (दृष्टि) से मानव स्वरूप
इस आर्टिकल का उद्देश्य पश्चिमी चिंतन में मानव स्वरूप की
विवेचना करना है। पश्चिम में दर्शन को 'फिलासफी' शब्द जिसका अर्थ 'ज्ञान का अनुराग' होता है, के द्वारा अभिहित किया जाता है। पश्चिमी चिंतन का प्रारम्भ
ग्रीक दर्शन से हुआ हैं इसलिए हम प्रमुख ग्रीक दार्शनिकों के अनुसार मानव स्वरूप
को समझने का प्रयास करेंगे। उसके बाद सीधे आधुनिक पाश्चात्य दर्शन के कतिपय
दार्शनिकों के मानव स्वरूप सम्बन्धी विचारों को जानने का प्रयास करेंगे।
पाश्चात्य दृष्टि से मानव स्वरूप :
हमने पिछली इकाईयों में यह स्पष्ट करने का प्रयास हुआ है कि
'दर्शन' एवं 'फिलासफी' मात्र दो शब्द नही हैं
बल्कि दो प्रकार की जीवन दृष्टियाँ है जिसने उनके चिंतन के प्रत्येक आयाम को
प्रभावित किया है । 'फिलासफी' जो पाश्चात्य दृष्टि का
द्योतक है वह जीवन एवं जगत को समझने हेतु अन्दर से बाहर' की यात्रा करता है ।
ग्रीक दर्शन में मानव स्वरूप की अवधारणा :
आधुनिक पाश्चात्य दर्शन एवं आधुनिक विज्ञान की नींव छठी शताब्दी ईसा पूर्व में ग्रीक में रखी गयी थी । सम्भवतः प्रथम दार्शनिकों ने विविधता से पूर्ण एवं परिवर्तनीय जगत के पीछे की वास्तविकता को जानने का प्रयास किया होगा और इस निष्कर्ष पर पहुँचे होंगे कि सब कुछ जल, वायु या अग्नि या इन तीनों के संयोग से निर्मित हुआ है दूसरे शब्दों में उन्होंने इन्हें उस तत्त्व के रूप में स्वीकार किया होगा जिससे इस चराचर सृष्टि का निर्माण हुआ है। स्पष्ट है कि वे जगत के उस स्वरूप से संतुष्ट नहीं थे और यह मानते थे कि जीवन एवं जगत का वास्तविक स्वरूप कुछ और है अर्थात् जीवन एवं जगत जिस रूप में हमें अनुभूत होता है, वस्तुतः अपने स्वरूप वह इससे भिन्न है। इसीलिए उन्होंने मनुष्य के उस स्वरूप को जानने का प्रयत्न किया जो उसके व्यावहारिक स्वरूप, भौतिक स्वरूप के पीछे छिपा है। मानव जीवन को सम्भव बनाने वाली 'आत्मा' को इसीलिए प्राण वायु या अग्नि के रूप में स्वीकार किया गया। इस स्वीकृति के बाद भी इन दार्शनिकों को "भौतिकवादी नही कहा जा सकता है, यद्यपि वे यही मानते थे कि जो भी भौतिक है, उसी की सत्ता होती है।
1. प्लेटो के अनुसार मानव स्वरूप की अवधारणा
प्लेटो ने सुकरात पूर्व दार्शनिकों के 'स्थिरता' एवं 'स्थायित्व' प्रत्ययों को समझने का
प्रयास किया, लेकिन वे इस बात
से भी भलीभाँति परिचित थे कि भौतिक वस्तुओं के परिवर्तनशील जगत में इसकी खोज नहीं
की जा सकती है। अपने पूर्ववर्ती भौतिकवादी दार्शनिकों के विचारों से सहमत न होते
हुए वे 'अन्य जगत' की विवेचना करने को विवश
हुए, जो उनके निर्णयों
हेतु कसौटी उपलब्ध करा सके क्योंकि इससे नैतिक एवं गणितीय प्रत्ययों को समझने में
विशेष रूप से सहायता मिल सकती थी । प्लेटो यह मानते थे कि हम दो छड़ियों को अन्य
जगत में अस्तित्ववान समानता के निरपेक्ष कसौटी के आधार पर एक ही लम्बाई का मानते
है। इसी तरह से नैतिक मानदण्ड भी आनुभविक जगत से परे जगत से प्राप्त होते है 1
- प्लेटो के अनुसार आत्मा ( मन ) के तीन अंश - (अ) 'बुद्धि (ब) शारीरिक प्रवृत्तियाँ तथा ( स ) संकल्प के द्वारा ही मानव स्वरूप को समझा जा सकता है। बुद्धि न केवल पूरे आत्मा का ध्यान रखती है अपितु शारीरिक प्रवृत्तियों एवं संकल्प को नियंत्रित करने का भी कार्य करती है। मनुष्य के पास बुद्धि की आवश्यकताओं के साथ-साथ भूख, प्यास एवं काम जैसी शारीरिक इच्छाएँ तथा क्रोध, प्रेम, महत्वाकांक्षा, हिंसा आदि जैसी भावनाएँ भी होती है। फीड्स में प्लेटो ने आत्मा के तीन अंशों की तुलना एक ऐसे चरित्र से की है, जो दो भिन्न प्रवृत्ति के घोड़ों को नियंत्रित करने का प्रयास करता है, इनमें से एक घोड़ा अपेक्षाकृत भला है और आसानी से मान जाने वाला है जबकि दूसरा चाबुक इत्यादि दिखाने पर भी आसानी से नियंत्रण में नही आता है। प्लेटो ने बुद्धि की तुलना एक ऐसे सारथी से किया है जिसे दोनों घोड़ों विशेषकर उसे जो शारीरिक आवश्यकताओं का प्रतिनिधित्व करता है, को नियंत्रण में रखने का दुष्कर कार्य करना है। प्लेटो का यह विश्वास था कि मानव स्वरूप को व्यक्त वाने तीनों अंशों में भले हम बुद्धि को शेष दोनों से श्रेष्ठ एवं ऊपर स्वीकार करें लेकिन शेष दोनों अंश भी मनुष्य के स्वरूप को समझने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते है। बुद्धि रूपी सारथी शारीरिक आवश्यकताओं एवं भावनाओं रूपी घोड़ों को खुला नही छोड़ सकता बल्कि इसे उन्हें निर्देशित करना चाहिए।
- वास्तव में बुद्धि को आत्मा के शेष दोनों अंशों से समन्वय एवं सामंजस्य स्थापित करने का कार्य करना चाहिए।
2 अरस्तू के अनुसार मानव स्वरूप की अवधारणा
- अरस्तू के समय की स्थितियाँ भी प्लेटो के ही समान थी । प्लेटो जगत की क्षणभंगुरता एवं परिवर्तनशीलता की समस्या से ग्रस्त थे अरस्तू ने इस समस्या के समाधान के लिए परिवर्तन के विषय और उस तरीके जिससे परिवर्तन के बाद भी वस्तु वही रहती है, में सावधानीपूर्वक अन्तर स्थापित किया। अरस्तू ने अपने व्यावहारिक दृष्टि के कारण इस बात का निषेध किया कि 'आकार', सत्ता के किसी उच्च आयाम में विद्यमान है। उन्होंने 'आकारों' को इसी जगत में अस्तित्ववान माना । सोने के विभिन्न आभूषणों का आकार उन्हीं आभूषणों में निहित होता है क्योंकि आकार वास्तव वह ढंग है जिससे किसी वस्तु को कोई संरचना प्राप्त होती है। सोने के किसी आभूषण का आकार उस आभूषण की सत्ता का उत्तरदायी होता है क्योंकि आकारों के बिना वह मात्र सोने का एक अनगढ़ टुकड़ा होगा, न कि आभूषण । यद्यपि उपादान के रूप में सोना स्वयं में पहले से ही किसी न किसी आकार से युक्त होता है। यही स्थिति प्रायः किसी भी भौतिक उपादान के लिए स्वीकार की जा सकती है लेकिन सिद्धान्तः हमें ऐसे मूल पदार्थ को स्वीकार करना पड़ेगा जो किसी भी प्रकार की संरचना से रहित है। अरस्तू के अनुसार हम जो कुछ भी प्रत्यक्ष करते है उसमें उपादान एवं आकार अनिवार्यतः सम्मिलित होते है।
3 एक्विनास के दर्शन में मानव स्वरूप की अवधारणा
- सच्चे ईसाई के रूप में एक्विनास को अरस्तू के समान यह स्वीकार करने में कठिनाई थी कि सृष्टि का कोई प्रारम्भ नही है । वे यह भी स्वीकार नही करते थे कि दर्शन शून्य से सृष्टि के उत्पत्ति की व्याख्या कर सकता है बल्कि उनके अनुसार इसे ईश्वरीय कृपा से ही समझा जा सकता है। इसीलिए उनके अनुसार ईश्वर ने ही सृष्टि की रचना की है। एक्विनास के अनुसार जगत एवं प्राणियों का प्रयोजन उनकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों एवं झुकावों से निर्धारित नही किया जा सकता है बल्कि इसे ईश्वर की इच्छा एवं कृपा के आधार पर ही जगत- विशेष रूप से मानवता के प्रयोजन को समझा जा सकता हैं। किसी भी सत्ता की प्रवृत्तियाँ एवं झुकाव अपने-आप में प्रासंगिक नही हैं क्योंकि यह ईश्वर प्रदत्त है इसलिए जगत ( एवं मनुष्य का भी) का मूल्यांकन ईश्वर द्वारा बनाए गये शाश्वत् निकषों के आधार पर ही हो सकता है। इस बिन्दु पर एक्विनास के विचार अरस्तू की अपेक्षा प्लेटो से प्रभावित दिखाई देते है ।
- एक्विनास के अनुसार प्रत्येक प्राणी के जीवन का लक्ष्य ईश्वर के दिव्य एवं अलौकिक स्वरूप को जानना है लेकिन यह व्यक्ति के वर्तमान जीवन में यह सम्भव नहीं है। एक्विनास यह मानते थे कि 'किसी भी वस्तु के स्वभाव का बोध उसकी क्रियाशीलता से ही होता है और मनुष्य की क्रियाशीलता का आधार उसकी बुद्धि है। बुद्धि ही वह बिन्दु है जो उसे न केवल अन्य प्राणियों से अलग करती है बल्कि इसी के द्वारा उसके स्वभाव का भी पता चलता है। 'बुद्धि' को अपनी परिपूर्णता ईश्वर के ज्ञान में प्राप्त होती हैं और तभी मनुष्य को आनन्द की प्राप्ति होती है। एक्विनास ईश्वर के ज्ञान एवं प्रेम में भेद नहीं करते है.