मानव स्वरूप : भारतीय दृष्टि |Human Form : Indian Vision

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मानव स्वरूप : भारतीय दृष्टि

मानव स्वरूप : भारतीय दृष्टि |Human Form : Indian Vision

 मानव स्वरूप : भारतीय दृष्टि (Human Form : Indian Vision)

भारतीय दृष्टि के अन्तर्गत हम सर्वप्रथम वेद एवं उपनिषदों में व्यक्त मानव स्वरूप की विवेचना निम्नलिखित रूप से करने का प्रयास करेंगे-

 

1 वेद के अनुसार मानव स्वरूप : 

  • 'वेद' न केवल भारत बल्कि सम्पूर्ण विश्व साहित्य के सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। 'वेद' का अर्थ 'ज्ञान' है जिसे ऋषियों ने तपस्या के द्वारा अभय ज्योति के रूप में साक्षात्कार किया था और उसे मंत्र रूप में शब्दों के माध्यम से व्यक्त किया था । वेद श्रुति है और अपने अलिखित रूप में ही वे लम्बे समय तक गुरू-शिष्य परम्परा द्वारा सुरक्षित रहे हैं। शब्द इसके वास्तविक स्वरूप का निर्णय करने में असमर्थ है फिर भी शब्द ही मनुष्य को उपलब्ध एकमात्र साधन है जिससे वह अपनी आन्तरिक अनुभूतियों को व्यक्त कर सकता है।

 

  • स्थूल दृष्टि से 'वेद' चार हैं, यथा ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद । परन्तु तत्त्वतः वेद एक ही है, वेद ज्ञान स्वरूप है । यह परा - वाक् या पश्यन्ति वाक्- स्वरूप है। ऋषियों ने 'आत्मा' - स्वयं के स्वरूप को जानने हेतु तपस्या की जिसके फलस्वरूप उन्हें एक - 'तेजोमय स्वरूप' का दर्शन हुआ, उसी 'तेजोमय स्वरूप की ऋषियों ने स्तुति की । उसी स्तुति की अव्यक्त अवस्था 'परावाक्' तथा व्यक्त अवस्था 'पश्यन्तिवाक्', इससे स्थूल अवस्था 'मध्यमा वाक तथा स्थूलतम अवस्था जिसे हम सब बोलते है बैखरी वाक्' के नाम से प्रसिद्ध है। 

  • इसी क्रम में जैसे-जैसे ऋषियों की अनुभूतियों में गहराई आती गयी वे उस एक सर्व शक्तिमान चेतन को जानने को उत्सुक होने लगे जिससे जड़ रूप अन्तःकरण, प्राण, वाणी आदि कर्मेन्द्रिय और चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियों को अपना-अपना कार्य करने की शक्ति प्राप्त होती है। 

  • भारतीय दृष्टि 'बाहर से अन्दर जाने की है, वह तथ्यों को समझने हेतु जिन प्रत्ययों का सहारा लेता है वे अमूर्त होते है तथा तथ्यों को अर्थ प्रदान करते है । वैदिक ऋषियों की दृष्टि में मनुष्य अपनी कर्मेन्द्रियों द्वारा जगत से सम्बन्ध स्थापित करता है तथा ज्ञानेन्द्रियों द्वारा उसे समझना चाहता है लेकिन जिस शक्ति से कर्मेन्द्रियाँ एवं ज्ञानेन्द्रियाँ अपना-अपना कार्य करने में समर्थ होती है उसे ऋषि ने 'ब्रह्म' की संज्ञा से अभिहित किया है लेकिन 'ब्रह्म' की कोई स्पष्ट व्याख्या या विवेचना सम्भव नही है क्योंकि जो भी व्याख्या हम करेंगे वह बुद्धि द्वारा ही होगी और बुद्धि उस स्रोत को स्वयं नहीं जान सकती जहाँ से उसे 'जानने की शक्ति प्राप्त होती है।

 

2 उपनिषदों के अनुसार मानव स्वरूप : 

मनुष्य को समझने हेतु जिस 'आत्म तत्त्व' का विकास संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों एवं आरण्यकों में हुआ उसकी पूर्ण निष्पत्ति उपनिषदों में दिखाई देती है। आत्मा शब्द का मूल अर्थ 'प्राण वायु' है जिसे बाद में भावना, मन के अर्थ में भी प्रयुक्त किया जाने लगा। शंकराचार्य आत्मा को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि आत्मा वह है जो सभी में व्याप्त है, जो विषयि है, ज्ञाता है, अनुभवकर्ता है एवं विषय को प्रकाशित करता है और वह अनश्वर है, सदा एक समान रहता है

 

( क ) 

  • छांदोग्य उपनिषद में प्रजापति एवं इन्द्र के बीच वार्तालाप का उल्लेख है जिसमें मानव स्वरूप का उद्घाटन भली-भाँति हुआ है। कथा के अनुसार देवताओं एवं राक्षसों ने क्रमशः इन्द्र एवं विरोचन को प्रजापति ब्रह्मा जी के पास यह जानने को भेजा कि 'हम कौन हैं?' अर्थात् मानव को किस प्रकार समझा जाय प्रजापति ने उन्हें बत्तीस वर्ष कठोर तपस्या का निर्देश दिया जिससे वे इस ज्ञान के अधिकारी हो सके, अर्ह हो सके।

 

बत्तीस वर्ष तपस्या के बाद दोनों प्रजापति के पास जाते है और प्रजापति कहते हैं कि :


(अ) "तुम वह हो जो दूसरों की आंखों में, स्थिर जल एवं स्वच्छ दर्पण में दिखायी देता है।"

 

  • इन्द्र एवं विरोचन दोनों ने स्वाभाविक रूप से इस उपदेश के अनुसार स्वयं को दूसरों की आंखों में, स्थिर जल एवं स्वच्छ दर्पण में देखा होगा और उन्हें मात्र अपना शरीर दिखाई पड़ा होगा दूसरे शब्दों में मैं मेरा शरीर, ऐसा बोध हुआ होगा। विरोचन इस निष्कर्ष = से पूरी तरह संतुष्ट हो गया लेकिन इन्द्र के मन में उपर्युक्त निष्कर्ष के प्रति शंका हुई कि कैसे 'मैं' का तादात्म्य शरीर से किया जा सकता है क्योंकि शरीर के सुन्दर होने पर क्या 'मैं' भी सुन्दर होगा? क्या शरीर के विकृत होने पर 'मैं' भी विकृत होगा? क्या शरीर के नष्ट हो जाने पर मैं भी नष्ट हो जायेगा? शरीर जन्म लेता है, युवा होता है, बूढ़ा होता है? इन्द्र इस निष्कर्ष पर पहुॅचे कि मैं मेरा शरीर नही माना जा सकता है।" = अपनी शंकाओं के साथ वे प्रजापति के पास पुनः जाते हैं और प्रजापति फिर एक वाक्य में उत्तर देते है कि

 

(ब) तुम वह हो जो स्वप्न देखता है और जो स्वप्न में स्वतंत्र रूप से विचरण करता है अर्थात् स्वप्नकर्ता के रूप में तुम हो।' दूसरे शब्दों में "मैं = स्वप्नकर्त्ता ।" इन्द्र इस तादात्म्य से भी संतुष्ट नही हुए। यह ठीक है कि इस अवस्था में जो 'मैं' अर्थात् स्वप्नकर्त्ता है वह शारीरिक कमियों से अप्रभवित रहता है लेकिन फिर भी स्वप्नकर्त्ता स्वप्न की स्थिति में भयभीत भी होता है, रोता भी है, चिल्लाता भी है। स्वप्न का शारीरिक प्रभाव निश्चित ही होता है। इसलिए "इसे भी 'मैं' के रूप में स्वीकार नही किया जा सकता है।" इन्द्र एक बार फिर प्रजापति के पास अपनी शंकाओं के साथ जाते है और प्रजापति पुनः एक वाक्य में उत्तर देते हुए कहते है कि-

 

(स) तुम, वह हो जो स्वप्नरहित प्रगाढ़ निद्रा का आनन्द लेता है।' दूसरे शब्दों में मैं स्वप्नरहित प्रगाढ़ निद्रा का अनुभवकर्ता" स्पष्ट है यह स्थिति उपर्युक्त दोनों = स्थितियों से बेहतर है। हम जब प्रगाढ़ निद्रा से जगते है तो हमें इसीलिए से एक नवीन जीवन्तता का अनुभव होता है, हम स्वयं को तरोताजा अनुभव करते है । यह स्थिति एक तरह से अमूर्तता की अवस्था है, जहाँ अनुभव करने, जानने एवं सुख प्राप्त करने के लिए कोई विषय नहीं है। यहाँ विषयी पूरी तरह से 'अचेतन' अवस्था में प्रतीत होता है क्योंकि वह न तो कुछ जानता है, न अनुभव करता है और न ही इच्छा करता वह एक तरह 'शून्य', अभाव की स्थिति में है। लेकिन इस अवस्था में भी जगने पर हमें यह बोध होता है कि हमने गहरी नींद लिया है अर्थात् प्रगाढ़निद्रा में भी, जहाँ विषय एवं विषयि का द्वैत विलुप्त हो जाता है, किसी को यह बोध बना रहता है कि उसने गहरी नींद लिया है।

 

इन्द्र अपनी शंकाओं को एक बार फिर प्रजापति के समक्ष रखते है और वे अपने योग्य शिष्य पर अत्यन्त प्रसन्न होते है और वह उपदेश देते है जो मानव स्वरूप की सबसे श्रेष्ठ विवेचना के रूप में हमारे समक्ष आती है। प्रजापति कहते है कि-

 

"शरीर आत्मा ( मानव स्वरूप) नहीं है यद्यपि उसका अस्तित्व आत्मा के लिए ही है। स्वप्नावस्था के अनुभव भी आत्मा नही है, फिर भी वे आत्मा के लिए ही सार्थक है।

 

इतना ही नहीं आत्मा को सुषुप्ति के अमूर्त आकारिक सिद्धान्त के रूप में भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है। हमारी आँखे (अर्थात् समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ), शरीर, मानसिक अवस्थाएँ, इन्द्रिय प्रदत्तों एवं चेतना का प्रवाह सभी कुछ आत्मा हेतु साधन एवं विषय है। आत्मा ही जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति की अवस्था का आधार एवं अधिष्ठान है फिर वह इन सभी का अतिक्रमण करता है। आत्मा सार्वभौम, अर्न्तवर्ती होते हुए भी अतिक्रामी है। सम्पूर्ण चराचर जगत इसी में निहित है, गति करता है एवं जीवन पाता है। यह अनश्वर, स्वयं प्रकाश, स्वयं – सिद्ध एवं संदेहों तथा निषेधों से परे है क्योंकि यही वह सिद्धान्त है जिससे समस्त संदेह, निषेध एवं विचार सम्भव होते है। यही वह अन्तिम विषयि है जो कभी विषय नही होता और जिसे समस्त ज्ञान की पूर्ववर्ती शर्त के रूप में अनिवार्यतः स्वीकार करना होगा ।"

 

(ख) 

मानव स्वरूप के बारे में जो संकेत एवं अन्तर्दृष्टि छांदोग्य उपनिषद में दिखाई देती है कुछ वैसा ही भिन्न रूप में माण्डूक्य उपनिषद में भी मिलता है, जिसे 


संक्षेप में निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है-

 

  • जाग्रतावस्था में व्यक्ति स्वयं 'मैं' की पहचान वस्तु जगत की अनूभूतियों के परिप्रेक्ष्य में करता है, यहाँ इसे वाह्य जगत की चेतना होती है जिसे विश्व की संज्ञा दी गयी है। इस आयाम में व्यक्ति ऐंद्रिक अनुभूतियों का भोक्ता होता है, स्वयं को वह ऐसे व्यक्ति के रूप में जानता है जिसका सर्वाधिक परिचय अपने शरीर - इंद्रियों एवं उनकी अनुभूतियों से होता है। इस स्तर पर व्यक्ति न केवल अधिकाधिक ऐंद्रिक अनुभूतियों की तरफ इस आशा से भागता है कि वह स्वयं को जान सके बल्कि भौतिक सुख-संपदा को भी इसलिए संचित करने की ओर अग्रसर होता है जिससे वह अन्यों को अपने 'स्व' का बोध करा सके।

 

  • स्वप्नावस्था में 'व्यक्ति', 'मै' को 'सूक्ष्म वस्तु' की अनुभूति होती है। उसे आंतरिक जगत की चेतना होती है, वह स्वयं काल्पनिक वस्तुओं का सृजन करती है तथा इस अवस्था को 'तेजस' कहा जाता है। यह स्थिति प्रथम स्थिति से श्रेष्ठ है क्योंकि यहाँ व्यक्ति स्वप्न का लेखक, अभिनेता, निर्माता एवं निर्देशक सभी कुछ होता है। इस स्थिति में उसे स्वप्न के स्वरूप के अनुसार हर्ष, विषाद, भय, आदि की शारीरिक स्तर पर अनूभूतियाँ भी होती है। लेकिन स्वप्नावस्था की समाप्ति के बाद सब कुछ पुनः यथावत् हो जाता है।

 

  • सुषुप्ति अर्थात् स्वप्न रहित निद्रा की अवस्था में न तो स्थूल और न ही सूक्ष्म, किसी भी प्रकार के पदार्थ का अस्तित्व नहीं रहता है, परिणामस्वरूप कोई विषयि भी नहीं रह जाता है। इस अवस्था विषय-विषय के द्वंद्व का अतिक्रमण हो जाता है। इसीलिए इस अवस्था को 'प्रज्ञा' की संज्ञा दी जाती है। इस आयाम में पीड़ा का अभाव होता है, न ही कोई इच्छा रहती है और न ही स्वप्न रहते हैं। यह अवस्था सर्वोच्च आनन्द के छाया की है क्योंकि हमें सकारात्मक आनन्द की अनुभूति नहीं होती है। इस स्थिति में यह सही है कि दुःख नही होता, पीड़ा नही होती तथा विषयि एवं विषय का द्वैत भी नहीं रहता लेकिन इस अवस्था से बाहर आने पर व्यक्ति को एक तरह की ताजगी, नयेपन की अनुभूति भले ही होती है, लेकिन व्यक्ति में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं होता । यह अवस्था इन्द्र एवं प्रजापति के संवाद की तीसरी स्थिति के समान है। इन्द्र की इस अवस्था - सुषुप्ति के प्रति संदेह भी इसीलिए हुआ क्योंकि इस स्थिति में व्यक्ति एक अमूर्त, शून्य की अवस्था में रहता है जिसकी तुलना 'मृत्यु' से भी हो सकती है।

 

  • अनुभूतिगत समस्त निषेधों के बाद भी इस अवस्था के बाहर आने पर इस बात की अनुभूति व्यक्ति को रहती है कि उसे गहरी, स्फूर्तिदायक निद्रा आयी अर्थात् 'कोई तो था जो इस स्थिति से परे था', भले ही उसे जाग्रत एवं स्वप्न की अवस्था के समान कोई अनुभूति न हो रही हो।

 

( ग ) 

  • 'रथ' की उपमा की सहायता से कठोपनिषद मानव स्वरूप को उद्घाटित करता है। इस दृष्टान्त के अनुसार वस्तुएँ मार्ग के समान है, शरीर रथ है, इन्द्रियाँ घोड़े के समान हैं, मन लगाम है, बुद्धि सारथी हैं, अहम् भोक्ता है, लेकिन वास्तव में जो 'व्यक्ति' उस रथ पर आरूढ़ है वही इस प्रक्रिया का स्वामी है, उसी के हेतु मार्ग, रथ, घोड़े, लगाम, सारथी आदि है। इसी दृष्टान्त के सहारे मानव के वास्तविक स्वरूप को समझना चाहिए - शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि तथा सम्पूर्ण जगत 'मनुष्य' के संदर्भ में ही सार्थक है, उसी के हेतु है। शरीर इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि तथा सम्पूर्ण जगत के आधार पर मनुष्य के स्वरूप को नहीं समझा जा सकता है बल्कि मनुष्य के नाते ही शरीर, शरीर है, इन्द्रियाँ, इन्द्रियाँ है। मन, बुद्धि तथा सम्पूर्ण जगत, मन, बुद्धि तथा सम्पूर्ण जगत का अस्तित्व प्राप्त करता है।

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