विदुर, शुक्र एवं चाणक्य के अनुसार मानव मूल्य
नीतिग्रन्थों में मूल्य ( विदुर, शुक्र एवं चाणक्य) |
- नीति शब्द संस्कृत के नी धातु से क्तिन् प्रत्यय जोड़कर बना है। अनुचित मार्ग से उचित मार्ग पर ले जाने की क्रिया को नीति कहते हैं। किसी भी मार्ग अथवा कर्म को अनुचित कहने के दो आधार हैं। एक अनुचित वह होता है- जो जिसके लिए विहित नहीं है उसके द्वारा किया जाना उदाहरणार्थ पुलिस द्वारा किया जाने वाला कार्य सामान्य जनता के लिए विहित नहीं है। दूसरे प्रकार का अनुचित वह है जो सभी के लिए निषिद्ध है। जैसे चोरी, हत्या इत्यादि मनुष्यों द्वारा अनुचित मार्ग पर चलने के दो कारण होते हैं अज्ञान और आसक्ति । सज्जन एवं दुर्जन व्यक्ति दोनों ही कुमार्ग का अवलम्बन कर सकते हैं। परन्तु दोनों के अवलम्बन का आधार भिन्न हो सकता है। सज्जन व्यक्ति अज्ञानवश एवं दुर्जन व्यक्ति आसक्तिवश कुमार्ग अपनाता है । नीतिशास्त्र में वर्णित मूल्य मानव की संवेदनाओं की कसौटी है।
विदुर के अनुसार नीति मूल्य -
- महाभारत में महात्मा विदुर ने व्यक्तिगत आचरण में कुछ मूल्यों के समावेश को अनिवार्य माना है। उनके अनुसार 'सत्य' ही एकमात्र सोपान है जिसके द्वारा श्रेष्ठ जीवन जीया जा सकता है। सत्य से ही धर्म की रक्षा होती है। सत्येन रक्ष्यते धर्मः ।' मनुष्य को सत्य का त्याग कभी नहीं करना चाहिए। सत्य को धर्म माना गया है। सत्य के साथ-साथ व्यक्ति में क्षमा का गुण भी होना चाहिए । क्षमा करने वाले को दुर्बल समझ लिया जाता है, जबकि क्षमा बहुत बड़ा बल है। क्षमा असमर्थ मनुष्यों का गुण तथा समर्थ मनुष्यों का आभूषण है। क्षमा से सभी प्रयोजन सिद्ध हो सकते हैं।
विद्यैका परमा तृप्तिरहिंसैका सुखावहा ।
केवल धर्म ही कल्याण का
मार्ग है, क्षमा ही शान्ति
का सर्वश्रेष्ठ उपाय है, विद्या ही परम
सन्तोष देने वाली है। एकमात्र अहिंसा ही सुखदायी है । इसलिए मनुष्य को सत्य, दान, कर्मण्यता, अनसूया, क्षमा तथा धैर्य आदि
गुणों का त्याग नहीं करना चाहिए। जो मनुष्य बुद्धि, कुलीनता, इन्द्रिय संयम, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, मितभाशी, दान तथा कृतज्ञता आदि मूल्यों का पालन करता है। वह व्यक्ति
समाज में यश और प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। जो मनुष्य विपत्ति में भी धैर्य धारण
करता है तथा कर्म करता रहता है और सभी दुःखों को सह लेता है । उसके शत्रु अवश्य
पराजित होते हैं। मनुष्य को दम्भ, मोह,
मात्सर्य, पापकर्म, राजद्रोह, पिशुनता (चुगलखोरी) आदि
से दूर रहना चाहिए, उसे कभी भी
दुर्जनों से विवाद नहीं करना चाहिए तथा धर्म, अर्थ एवं काम का संग्रह क्रोध या भावावेश में नहीं करना
चाहिए लेकिन परिश्रमपूर्वक सच्चे मार्ग से किया जाने वाला कार्य यदि असफल भी हो
जाये तो मनुष्य को ग्लानि नहीं करनी चाहिए । महात्मा विदुर की उद्घोषणा है कि
सदाचरण एवं मूल्याधारित जीवन जीने वाला निम्न वर्ण में पैदा होकर भी उच्च वर्ण
वाले व्यक्ति से श्रेष्ठ है -
न कुलं वृत्तहीनस्य प्रमाणमिति में मतिः ।
अन्तेष्वपि हि जातानां
वृत्तमेव विशिष्यते ।। महाभारत 34149
- जिसका चरित्र नष्ट हो जाता है वह शीघ्र ही विनाश को प्राप्त करता है। जीवन सुखी रहने के लिए इन्द्रियों को वश में रखना परम अनिवार्य है। मनुष्य का शरीर रथ है, बुद्धि सारथी है तथा इन्द्रियाँ उसके घोड़े हैं। इनको वश में रखने वाला मनुष्य, घोड़ों पर नियन्त्रण रखने वाले सारथी की भाँति सुखी रहता है और नियन्त्रण न रखने वाला मनुष्य वैसे ही नष्ट हो जाता है जैसे मूर्ख सारथी को घोड़े मार्ग से गिराकर मार डालते हैं।
नीयन्ते प्राप्यन्ते लभ्यन्ते धर्मानुसारेण अभीष्टानि कार्याणि यया सा नीतिः
अर्थात् जिसके द्वारा
धर्मानुसार अभीष्ट प्रयोजनों की प्राप्ति की जाती है, वह नीति है ।
परोपकारी, सत्यवादी, मृदु जितेन्द्रिय आदि गुणों से युक्त पुरुष उत्तम पुरुष कहा गया है। अप्रिय और हितकारी बचन बोलने वाले और सुनने वाले दोनो दुर्लभ हैं.
अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः
मनुष्य को चारों
पुरुषार्थो का पालन समयानुसार करना चाहिए। अर्थ की सिद्धि चाहने वाले को पहले धर्म
का आचरण करना चाहिए।
शुक्र के अनुसार मानव मूल्य ( शुक्रनीति)
- शुक्रनीति के रचयिता शुक्राचार्य ने भी पुरुषार्थों को महत्त्वपूर्ण मूल्य स्वीकार किया है तथा यथा सम्भव उसको प्राप्त करने का निर्देश दिया है। सामान्य व्यक्ति इनके विरोध से बचते हुए, मध्यमार्गी होकर सभी कार्यों में इनका अनुसरण करें।
- राजा हो अथवा साधारण नागरिक सभी को धर्मानुसार आचरण करना चाहिए।
- शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्गो को स्वस्थ रखना चाहिए, सुगन्ध इत्यादि के साथ महौषधियों को धारण करते हुए उज्ज्वल वेश बनाना चाहिए। श्रेष्ठ जीवन जीने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को शरीर के मल-मूत्रादि वेग को रोक कर कोई कार्य नहीं करना चाहिए। दुष्टों की संगति से दूर रहना चाहिए तथा मित्रों से प्रेमपूर्वक व्यवहार करना चाहिए। अन्यथा काम (अवैध रीति से मैथुन), पैशुन्य (चुगलखोरी), निष्ठुर भाषण, झूठ व्यवहार, अशिष्टता, नास्तिकता आदि दुष्कर्मों का शरीर वाणी एवं मन से त्याग कर देना चाहिए। निर्धनों की सहायता एवं समस्त प्राणियों के साथ समान व्यवहार करना तथा शत्रु के साथ भी उपकार करना चाहिए।
- अन्य किसी का उत्कर्ष देखकर ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए। व्यक्ति को अहंकारशून्य, प्रसन्न वदन (मुख), मधुरभाषी होना चाहिए । शुक्राचार्य ने नैतिक मूल्यों के साथ- साथ जीवनमूल्यों पर भी बल दिया है। जैसे स्वच्छतापूर्वक रहना चाहिए। शारीरिक अङ्गों को तोड़ना, मरोड़ना नहीं चाहिए। कठिन आसन में अधिक देर तक नहीं बैठना चाहिए। अत्यधिक थकान होने से पूर्व ही मन शरीर एवं वाणी के कार्य रोक देने चाहिए। देर तक ऊकडू नहीं बैठना चाहिए। सूर्य को निरन्तर नहीं देखना चाहिए। सिर पर बोझ नहीं उठाना चाहिए। मनुष्य को प्रतिदिन अपने अच्छे एवं बुरे कार्यों का आकलन करना चाहिए। इससे वह अपने बुरे कर्मों का त्याग तथा अच्छे कर्मों को स्वीकार करके सुखी रहता है। सेवा परम धर्म है इसलिए माता-पिता, गुरु, राजा, देवता, अग्नि, तपस्वी एवं ज्ञानवृद्ध लोगों की श्रद्धापूर्वक सेवा करनी चाहिए। पूर्ण अभ्युदय की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को कार्यकुशल होना चाहिए। चरित्रवान् होने के साथ-साथ ही अन्य व्यक्तियों की पूर्ण बातों को सुनकर और समझकर कार्य करना चाहिए। मर्मभेदी, अश्लील तथा कटु बचन का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
चाणक्य के अनुसार मानव मूल्य
आचार्य चाणक्य के अनुसार धर्म एवं अर्थ दोनों पुरुषार्थों का अत्यधिक महत्त्व है। धनोपार्जन के साथ दानशीलता भी आवश्यक है। यह दान श्रेष्ठ लोगों को दिया जाना चाहिए। जिसप्रकार समुद्र का खारा जल मेघों के मुख में जाकर मधुर हो जाता है और पृथ्वी पर जड़ चेतन सभी को जीवन प्रदान करता है, उसी प्रकार गुणवान् व्यक्तियों को दिया गया धन श्रेष्ठ कार्यों में व्यय होता है। चाणक्य ने विद्याप्राप्ति को अनिवार्य माना है। विद्याविहीन व्यक्ति सुन्दर और कुलीन होते हुए भी टेशू के फूल के समान शोभारहित है। विद्या कामधेनु के समान सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाली है। प्रवास में माता के समान हितकारिणी है। अतः विद्या को गुप्तधन कहा जाता है।
कामधेनुगुणा विद्या यकालेफलदायिनी ।
प्रवासे मातृसदृशी विद्या
गुप्तंधनंस्मृतम् ।।
- जो माता-पिता अपने बच्चों को शिक्षा प्रदान नहीं करते वे साक्षात शत्रु के समान हैं। इसलिए विद्यार्थी को सुख का परित्याग करके विद्या ग्रहण करनी चाहिए और जो सुख की कामना करते हैं उन्हें विद्या प्राप्ति की इच्छा नहीं करनी चाहिए।
- विद्यार्थियों को काम, क्रोध, लोभ, स्वाद, श्रृङ्गार, मनोरंजन, अतिनिद्रा एवं चापलूसी इत्यादि से दूर रहना चाहिए । पृथ्वी पर सत्य से बड़ा कोई मूल्य नहीं है । सत्य से ही पृथ्वी टिकी है, सूर्य प्रकाशित होता है, वायु प्रवाहित होता है। सबके मूल में सत्य ही है। जीवन में सर्वदा श्रेष्ठ लोगों की संगति करनी चाहिए । परोपकार की भावना रखनी चाहिए । सत्य ही मनुष्य की माता, ज्ञान पिता, धर्म भ्राता, दया भगिनी, शान्ति भार्या, क्षमा पुत्र के समान सच्चे बन्धु बान्धव हैं। व्यक्ति को अपने धन विद्या, कुल इत्यादि पर अभिमान नहीं करना चाहिए। धर्म में तत्परता, मुख में मधुरता, दान में उत्साह, मित्रों के साथ निष्कपटता, गुरु के प्रति विनम्रता, अन्तःकरण में उदारता, आचरण में प्रवित्रता, गुणों में रुचि, शास्त्रों में विज्ञता तथा परमात्मा में भक्ति इत्यादि मूल्यों को धारण करने वाले मनुष्य ही श्रेष्ट कहे जाते हैं।