मानव मूल्य की परिभाषा ,मूल्य शब्द का अर्थ
FAQ
1 - मूल्य शब्द का
अर्थ बतायेंगें ।
2- मानव मूल्य की
अवधारणा को भली भाँति समझायेंगें ।
3 - त्याग, सेवा व धर्म के आचरण को
परिभाषित करेंगें ।
4- मूल्य जीवन में
इस प्रकार आचरित होते हैं,
ऐसे आदर्शों के
आचरण को बताएगें ।
5 – मानव जीवन में
मूल्यों की अनिवार्यता पर विस्तार से प्रकाश डालेंगें ।
मानव मूल्य की परिभाषा
- जिस समाज में केवल पैसे की प्रधानता को ही जीवन का सबकुछ माना जा रहा हो, ऐसे समाज में मूल्य शब्द का प्रयोग पहले तो इन अर्थों में हो रहा है, जैसे 'दाम', 'कीमत', 'भाव' आदि आदि । यह सब किसी वस्तु की लेन-देन में ही प्रयुक्त होते हैं, जिनका आचरण से कोई संबंध ही नहीं है। तब बात यह उठती है कि वह कौन सी चीज है जिसे मानव मूल्य कहा जाय । इसके लिए हम कहेंगे कि जिनके सहारे मनुष्य का पूरा जीवन पवित्र होकर सजता सँवरता है, ऐसे 'आचरणीय सूत्र' ही मानव- मूल्य" हो सकते हैं । जिनके भीतर धर्म का आचरण, सही बोलना, परोपकार करना, दानशील होना, सेवा करना, त्यागी होना, शान्त रहना, अहिंसक होना, सहानुभूति की भावना आदि अनेक आचरणीय सूत्र आते हैं । इन्हीं मूल्यों की उत्कृष्टता का वर्णन हमारे संपूर्ण धर्म ग्रन्थों में हुआ है । प्रातः काल में आँख खोलने से लेकर लम्बी जीवन यात्रा में इन मानव मूल्यों को अपनाने की अनिवार्यता का वर्णन वेद से लेकर काव्य साहित्य तक में किया गया है । मूल्यों के बारे में ऐसा किसी एक ही स्थान पर कुछ भी नहीं कहा गया है, जिसे पढकर कोई मूल्यों का ज्ञाता हो जाय। अथवा सभी मूल्यों का वर्णन करने में सक्षम हो जाय । मोती चुनने की बात है, सागर में गोता लगायें और आचरणीय सूत्रों चुनकर इकट्ठा करें इनका मनन करें, फिर इन्हें जीयें । इसी स्थिति में मूल्य जाने जा सकते हैं, अपनाये भी जा सकते हैं इनके अभाव में जीवन सारहीन होगा, बंजर भूमि के समान होगा ।
मूल्य शब्द का अर्थ -
अर्थ : पहले तो यह जानिए कि मूल्य शब्द बनता कैसे है -
- पाणिनि की धातु हैं √मूल् प्रतिष्ठाायाम् । इसमें जब मूल शब्द के बाद यत् प्रत्यय लगाते है, तब मूल्य बनता है । इससे शब्द बनता है मूलति, जिसका अर्थ होगा प्रतिस्थापयति । अर्थात् जो भी हमारे जीवन की प्रतिष्ठा है या जिन आचरणों से हमारा जीवन प्रतिष्ठित होता है, उन्हें हम जीकर प्रतिस्थापित करते हैं, तो वे ही मूल्य कहलाते हैं, इसके पहले मूल रहता है.
मानव मूल्य ही जीवन मूल्य है, हमें कहीं भी पशु मूल्य' जैसे शब्द नहीं मिलते । जो मानव जीवन में आचरणों की महत्ता जानेगा, वही जीवन मूल्य जानेगा समझने के लिए एक उदाहरण देखिए -
मनुष्य और पशु में अन्तर क्या है ?
आहार निद्रा भय मैथुनं च
सामान्यमेतत् पशुभिः नराणां
ज्ञानम् नराणां अधिकम् विशेषः
ज्ञानेन शून्यः पशुभिः समानः ।।
यह भरतीय परम्परा का एक सुभाषित श्लोक है । आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चारों सामान्य रूप से मनुष्य तथा पशु दोनों में पाये जाते हैं, केवल ज्ञान ही मनुष्य के पास अधिक है जो इसे पशु से अलग करता है । इसके अर्थ से ज्ञात होता है कि मानव जीवन में ज्ञान का कितना महत्व है।
यहाॅ यह विचार आवश्यक है - क्या पशुओं में ज्ञान नहीं होता ? हम तो कहेंगे कि पशु भी ज्ञानी होते हैं ।
श्री दुर्गा सप्तशती के इन वचनों को देखिए-
ज्ञानमस्ति समस्तस्य जन्तोर्विषयगोचरे ॥ ४७ ॥
विषयश्च महाभाग याति चैवं पृथक् पृथक्
दिवान्धाः प्राणिनः केचिद्रात्रावन्धास्तथापरे || ४८ ॥
केचिद्दिवा तथा रात्रौ प्राणिनस्तुल्यदृष्टयः
ज्ञानिनो मनुजाः सत्यं किं तु ते नहि केवलम् ॥४६॥
यतो हि ज्ञानिनः सर्वे पशुपक्षिमृगादयः
ज्ञानं च तन्मनुष्याणां यत्तेषां मृगपक्षिणाम् ॥५०॥
मनष्याणां च यत्तेषां तुल्यमन्यत्तथोभयोः
ज्ञानेऽपि सति पश्यैतान् पतङ्गाञ्छावचञ्चुषु ॥ ५१ ॥
।। श्री दुर्गा सप्त शती प्रथम अध्याय ||
आशय यह है कि विषय के मार्ग में जाने का ज्ञान सभी को होता
है, सभी के लिए विषय
भी अलग- अलग हैं। कोई दिन में नहीं देखता तो कोई रात में नहीं देखता । कुछ तो दिन
और रात दोनों में बराबर देखते हैं । यह भी ठीक है कि मनुष्य समझदार होते हैं
किन्तु केवल वे ही ऐसे नहीं होते, उनके साथ-साथ पशु-पक्षी मृग आदि भी समझदार होते हैं-
उपर के श्लोकों में यह बताया गया है कि स्वयं भूख लगी रहनें पर भी पशु पक्षी, मोह वश अन्न के दानें डाल देते हैं, क्या वे इसके बदले सोचकर ऐसा करते हैं ? नहीं । किन्तु मनुष्य लोभ में आकर - 'लोभात्प्रत्युपकाराय प्रति उपकार की भावना से अपनी सन्तानों के साथ ऐसा करता है । अतः प्रति उपकार की भावना से की गयी सहायता परोपकार नहीं है ।
- किसी अपरिचित के संकट में सहायता करके उसे उबारना ही परोपकार है । जब प्रति उपकार की भावना होगी तब लोभ पहले ही खड़ा मिलेगा। ऐसे आचरण को परोपकार नहीं कहेगें स्पष्ट है कि बिना आचरित हुए मूल को मूल्य नहीं कहा जा सकता ।
- अर्थात् जिन आचारों से हम अपने को समाज के साथ व्यवस्थित कर पाते हैं, जिन व्यवहारों के कारण केवल समाज का मंगल अपेक्षित हो वे मानव मूल्य कहलाएंगे । मानव की गरिमा ही मानव मूल्य हैं संसार की सभी उपलब्धियां मानव के लिए हैं, मानव उनके लिए नहीं जब मानव उनके लिए है, तब वे मूल हैं किन्तु जब वे मानव के लिए हों तब वे मूल्य हैं मूल्य के लिए ज्ञान होना तो आवश्यक है, किन्तु आचरण के अभाव में किसी भी ज्ञान के द्वारा उचित व्यावहार की कल्पना नहीं की जा सकती । मूल्य ही मानव जीवन को सार्थक बना सकते हैं । मानव जीवन को सार्थक बनाने के लिए ज्ञान ही मूल्यों के रूप में होता है अतः स्पष्ट है कि 'ज्ञान पर आधारित आचरणात्मक तत्वों का समाहार मूल्य है.
पशु जन्म को दुर्लभ नहीं कहा गया केवल मनुष्यय जन्म ही दुर्लभ माना गया है, मनुष्य का जीवन ही मूल्यों को प्रतिस्थापित कर सकता है । आदि शंकराचार्य का कथन देखिए-
दुर्लभं त्रयमेवैतद्दैवानुग्रहहेतुकम् ।
मनुष्यत्वं
मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः ॥
इस संसार में नितान्त दुर्लभ तीन विषय है - मनुष्य योनि में जन्म, मुक्ति की उत्कट अभिलाषा तथा महान सन्तों की कृपा एवं संगति ।