मानव स्वरूप की अवधारणा |Human values ​​and Ethics in Hindi

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मानव स्वरूप की अवधारणा

मानव स्वरूप की अवधारणा

 

मानव स्वरूप की अवधारणा 

  • पशुओं की तुलना में मनुष्य का स्वयं एवं अपने वातावरण के ऊपर एक प्रकार का चेतन नियन्त्रण होता है। जहाँ पशु अपने वातावरण के प्रति निष्क्रिय रूप में, उसके एक अंश के रूप में सचेत रहता है, वहीं मनुष्य अपने बाह्य एवं आन्तरिक सम्पूर्ण वातावरण के प्रति सचेत रहता है। मानव चेतना का विषय (Object ) है तथा मनुष्य स्वयं उस विषय का अध्येता या विषयी (Subject) है। पशु अपनी क्रिया के साथ अभिन्न होता हैं, क्योंकि वह स्वयं को उससे अलग नहीं कर पाता। इसके विपरीत मनुष्य में अपने जीवन की क्रिया को अपनी इच्छाशक्ति एवं चेतना से प्रभावित करने की क्षमता है।

 

1 मानव स्वरूप की परिभाषा :

 

  • मानव स्वरूप की कोई एक एवं सरल परिभाषा नही दी जा सकती है। दर्शन शास्त्र के इतिहास से ज्ञात होता है कि विभिन्न देश एवं काल में मनुष्य को समझने का प्रयास हुआ है। कभी मनुष्य को देवता के रूप में समझा गया तो कभी उसे पशुओं की ही वृहत् श्रृंखला की विकसित प्रजाति के रूप में समझा गया। इन्हीं दोनों दृष्टियों के द्वन्द्व के द्वारा मनुष्य एवं उसके वातावरण के मध्य सम्बन्ध को विश्लेषित किया जा सकता है।


  • मनुष्य की बुद्धि की यह सामर्थ्य है कि वह देश एवं काल की सीमाओं का अतिक्रमण कर उस स्थिति से ऊपर उठकर सोच सकता है। मनुष्य की इस क्षमता में ही देवत्व के बीज देखे गये हैं। जैसा कि हम पहले बता चुके है कि पशु अपनी क्रिया से अपने को अलग नहीं कर पाता क्योंकि वह मात्र 'चेतन' होता है जबकि मनुष्य 'आत्म-चेतन' होने के कारण 'स्वयं' एवं 'स्वयं की क्रिया' में भेद कर सकता है। मनुष्य का यह 'स्वयं', 'मैं' क्या है? इसे ही प्रायः 'आत्मा' की संज्ञा देते हुए वास्तविक मनुष्य के रूप में समझा गया, जिसमें अपनी परिस्थितियों को नियंत्रित करने की क्षमता है। लेकिन इस स्वतंत्र, स्वायत्त 'आत्मा' की सत्ता पर आधुनिक युग के अनेक चिंतकों ने आपत्ति की है। इनकी दृष्टि में 'मनुष्य' के स्वरूप के निर्धारण में सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक कारकों का योगदान होता है। दूसरे शब्दों में मनुष्य के पास कोई पूर्व निर्धारित, देश एवं काल से परे स्वरूप नहीं होता है। वह 'आत्मा' जिसे मनुष्य का वास्तविक स्वरूप समझा जाता रहा है उस पर अनेक दिशाओं से प्रहार हुए हैं, और यह विश्वास कि मनुष्य एक अभौतिक, शाश्वत आत्मा है, पिछली कुछ शताब्दियों से खण्डित होने लगा है। आधुनिक चिन्तन में ऐसा प्रतीत होने लगा है कि 'मनुष्य' के 'मैं' के निर्माण में बहुत से वाह्य कारकों का योगदान होता है और मनुष्य का स्वरूप वाह्य कारकों से निर्मितएवं उस पर निर्भर होता है।

 

  • उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मनुष्य प्रारम्भ से ही यह जानने को उत्सुक रहा है कि वह कौन है? उसका स्वरूप क्या है? यह सही है कि ऐसा प्रश्न मनुष्य ही पूछ सकता है क्योंकि वह आत्म-चेतन सत्ता है। उसकी चेतना न केवल वाह्य, भौतिक, आनुभविक जगत को प्रतिबिम्बित करती है बल्कि अन्दर मुड़ कर वहउसे भी जानना चाहती है जिससे सब जानना सम्भव होता है।

 

2 मानव स्वरूप को जानने की आवश्यकता :

 

मानव स्वरूप का विश्लेषण इसलिए आवश्यक है क्योंकि मानव स्वरूप की हमारी समझ हमारे राजनीतिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक व्यवहार को प्रभावित करती है। मनुष्य एक शरीर है अर्थात् मनुष्य की एक भौतिक सत्ता है। इसी के साथ यह भी एक तथ्य है कि हम एक आत्म-चेतन सत्ता भी हैं। आत्म-चेतन होने के कारण मनुष्य अपनी भौतिक सत्ता का अतिक्रमण भी कर सकता है सीमित से हम असीमित की तरफ यात्रा कर सकते हैं। इस तथ्य के आलोक में :

 

(अ) मानव स्वरूप का विश्लेषण

  • यदि हम स्वयं को भौतिक सत्ता के रूप में समझे तो निश्चित ही हमारा व्यवहार इस सत्ता के दायरे तक ही सीमित रहेगा। हमारा समस्त क्रिया-कलाप ऐसा होगा जिससे हमारे शरीर को अधिकाधिक सुख प्राप्त हो, इन्द्रियों की संतुष्टि हमारा परम ध्येय होगा। जो शरीर को, इन्द्रियो को प्रीतिकर लगे वही हमारे लिए 'मूल्य' होगा, साध्य होगा। प्रीतिकर ही श्रेष्ठ के रूप में स्थापित होगा।

 

  • मानव शरीर को ही मानव स्वरूप का केन्द्र मानने वाले चिंतकों की दृष्टि में मनुष्य सदैव सुख की ही कामना एवं खोज करता है, अर्थात् मनुष्य के समस्त प्रत्येक कर्म सुख प्राप्ति के हेतु से ही प्रेरित होते है। मनुष्य के प्रत्येक कर्म के पीछे अधिकतम सुख प्राप्त करने की ही इच्छा निहित होती है। इस दृष्टि से मनुष्य को सुख प्रदान करने वाला कर्म ही 'शुभ', 'वांछनीय' एवं श्रेयस है तथा दुख देने वाले कर्म 'अशुभ', त्याज्य हैं। ऐसे सभी विचारों को अपरिष्कृत तथा स्थूल सुखवाद भी कहा जाता है, क्योंकि इस विचार के अनुसार बौद्धिक या मानसिक सुख की तुलना में शारीरिक सुख ही महत्वपूर्ण है। इतना ही नहीं इन विचारकों की दृष्टि में मनुष्य को न केवल अधिक से अधिक सुख प्राप्त करना चाहिए बल्कि सुदूरवर्ती, अनिश्चित भविष्य के सुख की अपेक्षा तात्कालिक, निश्चित, वर्तमान सुख को ही वरीयता देनी चाहिए।

 

(ब) मानव स्वरूप का विश्लेषण

  • उपर्युक्त के विपरीत यदि हम स्वयं को 'आत्म-चेतन' सत्ता के रूप में स्वीकार करते है तो निश्चित ही हम शरीर, इन्द्रियों से ऊपर उठकर चीजों को देखेंगे। हम उसे जानने को बाध्य होगें जो सभी के लिए कल्याणकारी, श्रेयस्कर हो । मानव स्वरूप को समझने में मानवीय एवं पशु संवेदनशीलता के अन्तर की हमउपेक्षा नहीं कर सकते है। पशु भी वस्तुओं से भौतिक स्तर पर प्रभावित होता है। उसमें भी इन्द्रिय संवेदन होते है और उनकी प्रतीतियों के भी वही आधार होते हैं जो मनुष्य के होते हैं, लेकिन मनुष्य के आत्म-चेतन होने के कारण इन प्रतीतियों के स्वरूप में मौलिक अन्तर आ जाता है। इसीलिए मात्र भौतिक प्रतिक्रियाओं के आधार मानव स्वरूप को समझने का प्रयास पूर्णतया अनुचित सिद्ध होगा। यह सही है कि भौतिक एवं दैहिक प्रक्रियाएँ भी जीवित मनुष्य की ही होती हैं और इनकी भी उपेक्षा मनुष्य को समझने में नहीं की जा सकती है। पुरानी कहावत भी है कि "बुमुक्षितम् किम् न करोति पापम्" अर्थात भूखा व्यक्ति कौन सा पाप नहीं कर सकता है, अर्थात् भूखा व्यक्ति कोई भी पाप कर सकता है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। इसी के साथ यह भी हमें दिखाई देता है कि कोई भी व्यक्ति अपनी संतान, अपने प्रिय के लिए किसी भी सीमा तक कोई भी कष्ट खुशी-खुशी सहन करता है। यह तथ्य इस बात का प्रमाण भी है कि मनुष्य अपने 'स्व' से किन्हीं परिस्थितियों में ऊपर उठकर भी ऐसे कार्य सम्पादित करता है जिसकी हम तब अपेक्षा नहीं कर सकते यदि मनुष्य को पूरी तरह इन्द्रियों, भौतिक सत्ता तक ही पशु के समान सीमित मान लिया जाय । इसलिए मनुष्य को यदि समझना है तो हमें उसे मात्र दैहिक, भौतिक सत्ता तक विघटित करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। इतना ही नही यदि हम ऐसा करते है तो मनुष्य एवं पशु के मध्य अन्तर ही पूर्णतया विलुप्त हो जायेगा।

 

  • मनुष्य आत्म-चेतन सत्ता है इसीलिए वह 'प्रेयस' के स्थान पर 'श्रेयस' को वरीयता देता है, उसे मूल्य के रूप में स्थापित करता है। 'प्रेयस' क्षण विशेष में प्रिय एवं सुखकारी होता है इसलिए हम उसकी कामना करते हैं। प्रेयस' ऐन्द्रिक स्तर पर सुखकारी होने के कारण प्रियहोता है, जबकि 'श्रेयस' हमारे संकल्प से सम्बन्धित है, उसका स्रोत हमारी आत्म- चेतन' बुद्धि है, हमारी सोचने समझने की क्षमता है जिसके स्पर्श से वस्तुएँ, भौतिक सत्ताएँ 'श्रेयस' का रूप ग्रहण करती है और हमारे लिए ग्राहय एवं बाध्यकारी हो जाती है और हम उनकी प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील होते हैं। स्पष्ट है कि 'श्रेयस' की स्वीकृति का धरातल ऐंद्रिक न हो बौद्धिक होता है।

 

  • स्पष्ट है कि यदि हम मनुष्य को मात्र एक दैहिक, भौतिक सत्ता मानेंगे तो हमसुखवाद का समर्थन करेंगे और प्रेयस' को ही 'मूल्य' के रूप में प्रतिष्ठित करेंगे, लेकिन यदि हम मनुष्य को आत्म-चेतन सत्ता के रूप में स्वीकार करेंगे, तो एक ऐसा व्यक्तित्व परिलक्षित होगा जो मात्र सुखों के लिए ही नहीं जीता बल्कि कामनाओं का अतिक्रमण करते हुए, उनसे मुक्त होते हुए पूर्ण स्वतंत्रता का जीवन जीना चाहता है। ऐसा व्यक्ति 'श्रेयस' को मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित करता है और इन्द्रियजन्य भावनाओं से नियंत्रित न हो 'बुद्धि' से नियंत्रित होता है, और इसी में उसके जीवन की सार्थकता होती है और ऐसे ही व्यक्ति का जीवन हमारे समक्ष एक उदाहरण के रूप में होता है। उसके जीवन को हम निरपेक्ष मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित कर सकते है । 

 

मानव स्वरूप की अवधारणा प्रत्ययवादी दृष्टिकोण

 

  • अभी तक आपने जाना कि मनुष्य के पास शरीर तो है ही, साथ ही साथ उसके पास यह भी क्षमता है कि वह शरीर की सीमाओं का अतिक्रमण भी कर ले, क्योंकि वह एक आत्म चेतन सत्ता है। जिन विचारकों ने मनुष्य के चेतन पक्ष पर बल दिया और इसे ही मनुष्य की विवेचना हेतु एकमात्र तत्त्व माना उन्हें हम प्रत्ययवादी विचारको की श्रेणी में रख सकते हैं। दार्शनिक स्तर पर प्रत्ययवाद वह विचारधारा है जो 'चेतना' को स्वतंत्र मानती है तथा जड़ पदार्थ को इस पर निर्भर मानती है।'

 

  • स्वाभाविक है कि प्रत्ययवाद मनुष्य के स्वभाव की विवेचना हेतु 'चेतना' या सामान्य रूप से 'आत्मा' को केन्द्र में रख कर विचार करेगी। इस दृष्टि से मनुष्य मूलतः एक 'आत्मा' है जो चेतन एवं स्वयं प्रकाशवान हैं, जिसके प्रकाश से ही समस्त जगत आलोकित होता है। प्रत्ययवादी विचारकों के अनुसार आत्मा ही मनुष्य के स्वभाव का आधार है, इसे जानकर ही मनुष्य के वास्तविक स्वरूप को समझा जा सकता है। 'आत्मा' को अनुभूत किए बिना कोई भी न तो स्वयं को जान सकता है और न ही सृष्टि के आधार को जान सकता है। मनुष्य को जानने का प्रत्ययवादी विचार केवल भारतीय चिंतन में ही नहीं दिखाई देता बल्कि पाश्चात्य चिंतन में भी इसकी विस्तृत चर्चा दिखाई देती हैं। प्लेटो, अरस्तू एक्विनास, डेकार्ट, स्पिनोजा, लाइबनिज, बर्कले, कांट, हीगल, ब्रेडले आदि दार्शनिकों के विचार भी इसी श्रेणी में रखे जा सकते है। मनुष्य को समझने हेतु प्लेटों के प्रत्ययों की अवधारणा, डेकार्ट के कथन "मैं सोचता हूँ इसलिए मैं हूँ" आदि को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है।

 

  • भारतीय एवं पाश्चात्य विचार में मनुष्य को समझने के प्रत्ययवादी आयाम की विस्तृत चर्चा द्वितीय एवं तृतीय ईकाई में की जायेगी।

 

मानव स्वरूप की अवधारणा : वस्तुवादी व्याख्या

 

  • इसके पूर्व हमनें मनुष्य को समझने के प्रत्ययवादी दृष्टि को जानने का प्रयास किया। अब हम मनुष्य को जानने के वस्तुवादी दृष्टिको समझने का प्रयास करेंगे। 'वस्तुवाद' वह दृष्टि है जो भौतिक पदार्थ को स्वतंत्र मानती है और इसके संदर्भ में ही चेतना सहित शेष सभी को व्याख्यायित करती है। वस्तुवादी सोच मनुष्य को जानने समझने हेतु उसके शरीर को केन्द्र में रखकर विवेचना करती है। मानव प्रकृति को समझने के लिए हमें प्रकृति को भी जानना होगा क्योंकि प्रकृति के साथ ही मानव प्रकृति को जटिलता के आधार पर समझा जा सकता है जटिलता एक सार्वभौम प्राकृतिक घटना है एवं मानव प्रकृति में भी इसकी अभिव्यक्ति व्याप्त है। 


इसके कारण मानव प्रकृति में निम्नलिखित लक्षणों को हम देख सकते हैं:-

 

  • मानव स्वरूप के निर्माण में शरीर के विभिन्न अंगों में परस्पर समन्वय की भूमिका दिखाई देती है, दूसरे शब्दों में मानव स्वरूप बहुआयामी है इसका कोई एक सार तत्त्व नही है बल्कि इसका निर्माण विभिन्न तत्त्वों के सहयोग से होता है।

 

  • मानव स्वरूप के निर्माण के प्रत्येक अंग परस्पर निर्भर हैं इसलिए उन्हें एक-दूसरे से अलग करके नही देखा जा सकता है। मानव स्वरूप का न्यूनीकरण भी नही किया जा सकता, दूसरे शब्दों में इसे न तो किसी मूल सार तक न्यून किया जा सकता है न ही इसको इसे बनाने वाले भागों के योग के रूप में समझा जा सकता है।

 

  • मानव स्वरूप की प्रकृति अपने में अत्यन्त जटिल है इसलिए इसे न तो आसानी से समझा जा सकता है और न ही इसके बारे में पहले से कोई भविष्यवाणी की जा सकती है क्योंकि इसे वैज्ञानिक तथ्यों के समान किसी कारण कार्य सम्बन्ध के आधार पर व्याख्यापित नही किया जा सकता है। मानव स्वरूप अनेक तत्त्वों की अन्तर्क्रिया से निर्मित जटिल पूर्णत्व है। 


मानव स्वरूप को निर्मित करने वाले प्रमुख तत्त्व है :


मानवीय भावनाएँ, क्षमता, सामर्थ्य एवं आठ मूल आयाम ( अ ) प्रगतिशील प्रकृति, (ब) सामाजिक प्रकृति, (स) सुखवादी प्रकृति, (द) काम की प्रकृति, (ङ) आर्थिक प्रकृति, (च) आत्म-संरक्षण की प्रकृति, (छ) प्रतियोगिता की प्रकृति (ज) और एक व्यक्तित्व ।

 

  • मानव स्वरूप के उपर्युक्त आठों आयाम न केवल मौलिक हैं, बल्कि सार्वभौमिक भी हैं। सभी लोगों के ऊपर यह आयाम लागू होते है इसीलिए यह सार्वभौमिक कहे जा सकते है । देश काल एवं संस्कृति से परे प्रत्येक व्यक्ति के स्वरूप में इन्हीं आयामों का योगदान दिखाई देता है, इसीलिए इन्हें आधारभूत या मौलिक भी कहा गया है। इन्हीं के अन्तर्गत मानव स्वरूप को सहजता से समझा जा सकता है।

 

उपर्युक्त आठों आयाम के आधार पर वस्तुवादी दृष्टि से हम मानव स्वरूप को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट कर सकते हैं :-

 

  • प्रत्येक व्यक्ति का यह प्रयास होता है कि उसे कम से कम प्रयास में अधिक से अधिक लाभ प्राप्त हो । मनुष्य की आर्थिक प्रकृति इसी को स्पष्ट करती है। 

  • उपर्युक्त से जुड़ा यह भी एक तथ्य है कि हम सभी सुख को तो चाहते है लेकिन दुःख, कष्ट को नही चाहते है। मनुष्य की सुखवादी प्रकृति इसी को व्यक्त करती है।

  • सुखवादी प्रकृति की ही अभिव्यंजना व्यक्ति की 'काम प्रकृति' में दिखाई देती है। 'काम' शरीर की एक अत्यन्त सहज एवं प्राकृतिक आवश्यकता है जिसे समझना मानव स्वरूप को समझने में सहायक हो सकता है। इसी आयाम की विवेचना फ्रायड के विचारों में मिलती है। 

  • कोई भी व्यक्ति अपने वातावरण से किस ढंग से व्यवहार करता है एवं उसमें किस तरह समायोजित होता है, इसी से उसके व्यक्तित्व का आंकलन किया जा सकता है। 

  • अपने 'स्व' को संरक्षित करना ही आत्म-संरक्षण की प्रकृति हैं। 
  • अपने प्रतियोगी स्वरूप के कारण ही व्यक्ति स्वाभाविक एवं सार्थक रूप से लाभप्रद संसाधनों पर नियंत्रण स्थापित करता है। 
  • व्यक्ति की सामाजिक प्रकृति, सामाजिक संगठन का निर्माण करने एवं उसके सदस्य होने की प्राकृतिक आवश्यकता का द्योतक है।
  • व्यक्ति की निरन्तर विकसित होने की प्रकृति उसकी ज्ञानात्मक विकास की प्राकृतिक सामर्थ्य को प्रकट करती है। 

इतना ही नही हम यह भी देखते है कि प्रेम, अहंकार, अपराध या लज्जा जैसी मानवीय भावनाएं अपेक्षाकृत आधारभूत भावनाओं जैसे भय, हर्ष या क्रोध की ही मानवीय, जटिल मानसिकता की ही भिन्न अभिव्यक्तियाँ है.

 

  • भाषा एवं तर्क की हमारी क्षमता परम्परा से प्राप्त एवं अर्जित कुशलता हैं। 
  • दूसरों की भावनाओं को समझने एवं अनुभूत करने की क्षमता, सृजनात्मकता या नैतिक विकास की भी मनुष्य की मानवीय परम्परा से प्राप्त सम्भावनाएँ है, जिन्हें हम विकसित कर सकते हैं।

 

  • वस्तुवादी दृष्टि से मानव स्वभाव को विकास की लम्बी प्रक्रिया का परिणाम माना गया हैं और इसे मनुष्य के विकसित केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र के आधार पर समझने का प्रयास हो रहा है। हमारे तंत्रिका तंत्र के विकास की जड़े अत्यन्त प्राचीन है जिसके सूत्र इन्द्रियों की अनुभूति रखने वाले प्रथम प्राणियों से होकर आधुनिक मनुष्य के मस्तिष्क तक खोजे जा सकते है। यह प्रक्रिया अभी भी जारी है। मानव स्वभाव का विकास प्राणियों के तंत्रिका तंत्र के विकास से हुआ है। समस्त विकास के समान तंत्रिकाओं का विकास भी निम्न स्तर की जटिलताओं से उच्च स्तर की जटिलताओं में होता है। इनमें एक क्रमानुसार संरचना निर्मित होती है; जहाँ उच्च स्तरीय जटिल प्रक्रियाएँ निम्न स्तरीय प्रक्रियाओं के अधीन होती है। मनुष्य में आर्थिक स्वभाव, सुखवादी स्वभाव, काम की प्रकृति एवं व्यक्तित्व, जीन संरक्षण की प्रकृति निम्नस्तरीय विकास के द्योतक है। इसके विपरीत सामाजिक प्रकृति, प्रतियोगी प्रकृति, आत्म स्वाभिमानयुक्त आत्म-संरक्षण का स्वभाव उच्च स्तरीय जटिलता को व्यक्त करते है तथा यह पूर्ववर्ती निम्न स्तरीय जटिलताओं के अधीन रहते है। 

  • मानव स्वरूप की वस्तुवादी व्याख्या के केन्द्र में मनुष्य के विकास की पूरी कहानी छिपी है कि किस प्रकार मनुष्य अपने उद्भव की आदिम अवस्था से होते हुए आधुनिक जटिल मनुष्य तक पहुँचा है। प्रारम्भिक मनुष्य अपने स्वभाव में शरीर की आवश्यकताओं तक ही सीमित था तथा मनुष्य और जानवर में बहुत अन्तर नही था क्योंकि मनुष्य के पास भी उस समय कोई भाषा नही थी जिसमें वह अपने को, अपनी भावनाओं, इच्छाओं को व्यक्त कर सके। जानवर के समान ही वह शारीरिक भाव-भंगिमाओं के द्वारा ही अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में समर्थ था विकास की प्रक्रिया के फलस्वरूप मनुष्य न केवल प्रकृति में परिवर्तन करने में सफल हुआ बल्कि स्वयं की प्रकृति में भी अपेक्षित विकास एवं परिवर्तन करने में सफल हुआ। वस्तुवादी विचारधारा मानव प्रकृति के विभिन्न आयामों को मनुष्य के भौतिक स्वरूप एवं उसकी भौतिक परिस्थितियों के आधार पर समझने एवं व्याख्यापित करने का प्रयास करती है। इस विचारधारा के अनुसार मनुष्य को किसी अतीन्द्रिय, अनुभवातीत सत्ता के सन्दर्भ में समझने का प्रयास न केवल त्रुटिपूर्ण है बल्कि इससे मनुष्य को सही ढंग से समझा भी नहीं गया है।

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