आधुनिक पाश्चात्य दर्शन (Modern western philosophy in Hindi)
आधुनिक पाश्चात्य दर्शन
1 बेनेडिक्ट स्पिनोजा ( 1632 - 1677 ईस्वी)
- सत्रवहीं सदी के स्पिनोजा अपनी बात चौथी- पाँचवीं सदी के ऑगस्टीन से ही प्रारम्भ करते हैं कि ब्रह्मज्ञान ही मनुष्य का सर्वोच्च शुभ और सदाचार (highest good and virtue ) है । परन्तु वे यहाँ एक नयी बात जोड़ते हैं कि सत्ता चाहे व्यक्ति की हो या वस्तु की, उसके केन्द्र में एक अदम्य जिजीविषा होती है। इसलिए सदाचार और शक्ति अभिन्न हैं। शारीरिक, मानसिक या अन्य किसी तरह की शक्ति को जो क्षीण करते हैं, वे दुराचार हैं; जो शक्ति की वृद्धि करते हैं, वे सदाचार हैं। दैन्य और शोक शक्ति क्षीण करते हैं, आनन्द और प्रसन्नता उसकी वृद्धि करते हैं। वासना शक्ति नहीं, कमजोरी है, दासता है।
- व्यक्ति की तलाश उस वस्तु या कर्म की होती है जो उसके लिए उपयोगी हो परन्तु आत्मा के लिए केवल वही उपयोगी है जो ज्ञान की प्राप्ति में सहायक हो । ज्ञान की खोज में ही सच्चा आनन्द है परमसत्ता के साक्षात्कार की अनुभूति ही आनन्द है ।
- विवेकी व्यक्ति जो सब के लिए शुभ है, केवल उसी की चाह रखता है। इसीलिए वह सदैव ईमानदार, विश्वासपात्र और आदरणीय होता है। इसीलिए शत्रु के प्रति भी प्रेम रखना नेकनीयती है। घृणा, क्रोध, प्रतिशोध, ईर्ष्या और तिरस्कार पापाचार हैं।
2 जॉन लॉक (1632 - 1704 ईस्वी)
- अंग्रेज दार्शनिक जॉन लॉक स्पिनोजा के समकालीन हैं। जिस तरह जिजीविषा स्पिनोजा के चिन्तन के केन्द्र में है, उसी तरह सुख और दुख की अनुभूति लॉक के चिन्तन का आधार है। जो सुखदायी है, वह शुभ हैय जो दुख दे, वह अशुभ है। सुख-दुख ही नैतिकता के शिक्षक हैं।
3 इमैनुअल कान्ट ( 1724 - 1804 ईस्वी)
- आधुनिक काल के विचारकों में जर्मन दार्शनिक इमैनुअल कान्ट को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। वे रूसो के इस मत से सहमत दिखते हैं कि शुभ संकल्प के अतिरिक्त न इस संसार में, न संसार के परे कुछ भी पूर्णरूपेण शुभ है। परन्तु वे आगे कहते हैं कि संकल्प वही शुभ है जिसके मूल में धर्म और अपने शुद्ध उत्तरदायित्वों के प्रति आदरभाव हो । सर्वोच्च शुभ में सदाचार और सुख की एक साथ उपस्थिति होती है । जिस सदाचार में सुख न हो, वह उच्चतम स्थिति नहीं हो सकती। धर्म के प्रति आदरभाव नैतिकता का मूल है। जो धर्म (moral law) से नियन्त्रित है, वह मुक्त है। संस्कारविहीन व्यक्ति इच्छा और वासना के संसार में फुटबॉल की तरह ठोकर खाता भटकता है। वासनाएं स्वार्थी सन्तुष्टि का भाव हैं । धर्म ही वासनाओं पर नियन्त्रण कर सकता है। धर्म का आचरण धर्म के लिए होता है, किसी उद्देश्य-प्राप्ति के लिए नहीं.
4 योहन गॉटलीब फिश्ट ( 1724–1804 ईस्वी)
- जर्मन आदर्शवाद के पुरोधा फिश्ट ने कर्तव्यपरायणता को अपने दर्शन का केन्द्र बनाया। उन्होंने कहा कि मनुष्य का कर्म कर्तव्य पालन, सचेत होकर स्वेच्छा से सर्वोच्च शुभ का प्राप्ति तथा अन्तर्दृष्टि को सार्वभौमिक धर्मतत्व पर केन्द्रित रखना है। मनुष्य को अपनी नैसर्गिक अवस्था का अतिक्रमण करते हुए उर्ध्वगामी गति प्राप्त करने के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। शुभ का संकल्प बिना व्यवहरित हुए बोध की अवस्था को नहीं प्राप्त हो सकता । सत्य, आस्तेय, अपरिग्रह, अहिंसा जैसे शुभ संकल्प के व्यवहार में अन्दर बाहर की तमाम अधोगामी प्रवृत्तियों से जूझना पड़ता है। इसलिए फिश्ट का मानना है कि धर्म का मार्ग अनवरत संघर्ष का पथ है ।
- फिश्ट कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्र रूप से अपने स्वधर्म के अनुरूप अपना कार्यक्षेत्र चुनना चाहिए। परन्तु उचित चयन कर पाने की क्षमता के लिए सही शिक्षा अनिवार्य है। सही शिक्षा ही अन्तश्चेतना जाग्रत कर सकती है। बिन गुरु होंहि न ज्ञान । बिना अन्तःकरण के प्रकाशित हुए कर्तव्यबोध सम्भव नहीं है। फिश्ट का मानना था कि अन्तश्चेतना की वाणी ही ईश्वर की वाणी है ।
- फिश्ट ने लिखा "मुझे सम्पूर्णता में अपने कार्यक्षेत्र का बोध नहीं हैय मुझे क्या होना चाहिए, और मैं क्या होऊँगा, यह मेरी बुद्धि के परे हैय परन्तु मुझे हर क्षण बोध रहता है कि मुझे जीवन में अनिवार्य रूप से क्या करना चाहिए मुझे अनिवार्य रूप से अपना विवेक और बुद्धि विकसित करना है, ज्ञान प्राप्त करना है, ताकि मुझे अपने कर्तव्य के वृहत्तर क्षेत्र का बोध हो सके । शरीर और आत्मा सहित मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व कर्तव्य पालन के ही निमित्त है। "
5 आर्थर शॉपनहावर (1788 - 1860 ईस्वी)
- एक अन्य प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक शॉपनहावर का चिन्तन है कि सहानुभूति एवं करुणा धर्म और नैतिकता का मूल हैं। मानव जाति की सम्पूर्ण दुष्टता उसके आत्मकेन्द्रित जीवन के कारण है। किसी भी कार्य के कल्याणकारी होने के लिए उसकी उद्भूति सहानुभूति से होनी चाहिए यदि स्वयं के कल्याण के लिए कार्य जाय तो उसका नैतिक मूल्य शून्य से अधिक कुछ नहीं है। वहीं दूसरों के अहित के लिए किया गया कार्य पूर्णरूपेण पापकर्म है।
- चूँकि आत्मकेन्द्रित संकल्प ही हमारे सभी पाप और दुखों का मूल है, इसलिए आत्मकेन्द्रित इच्छाओं का दमन करते हुए संकल्पशक्ति को जड़ से उखाड़ कर ही मनुष्य सुख और शान्ति पा सकता है। इस आत्मकेन्द्रित संकल्पशक्ति से मुक्ति के कई मार्ग हैं। कला और दर्शन के परमतत्वों के चिन्तन-मनन में आत्मकेन्द्रित अवस्था से मुक्ति है, परन्तु यह स्थायी नहीं है। जीवन के सार स्वरूप संसार की दुष्टता, इच्छाओं की अर्थहीनता, तथा वैयक्तिक अस्तित्व का भ्रम आदि का चिन्तन-मनन भी कुछ हद तक आत्मकेन्द्रियता से छुटकारा दिला सकता है। यदि इस तरह के चिन्तन-मनन के साथ यह बोध भी हो कि सभी प्राणियों में एक ही परमसत्ता का वास है 'यो माम् पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति, सृष्टि का सम्पूर्ण प्राकट्य उसी परमसत्ता का प्राकट्य है, तो हृदय में सभी प्राणियों के लिए सहानुभूति और करुणा का भाव उदय होता है, फिर सभी के दुख अपने दुख लगते हैं। परन्तु यह मुक्ति भी स्थायी नहीं है।
- शॉपनहावर कहते हैं कि ईसाई तपस्वियों तथा बौद्ध सन्यासियों की भाँति संकल्पशक्ति को जड़ से ही समाप्त कर स्थायी मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।
- मूल्य ह्रास के कारण एवं निदान को पाश्चात्य दृष्टि से समझने के लिए हमने डिमॉक्रिटस से लेकर शॉपनहावर तक बारह दार्शनिकों के विचारों का अध्ययन किया। संक्षेप में देखा जाय तो सभी एक ही बात कहते हैं कि बुद्धि, विवेक और ज्ञान के अभाव में ही पापकर्मों की उत्पत्ति होती है। स्वार्थी मन भी उसी अज्ञान का परिणाम है। निदान के दो मार्ग सुझाये गये हैं एक तो ज्ञान का मार्ग है, और दूसरा प्रेम, भक्ति एवं - ईश्वरीय कृपा का पथ है।