वैराग्य या तितिक्षावादी दर्शन
वैराग्य या तितिक्षावादी दर्शन ( Stoicism ) ( ईसा पूर्व तीसरी सदी से तीसरी सदी ईस्वी तक )
- अरस्तू के बाद यानि तीसरी सदी ईसा पूर्व से लगभग तीसरी सदी तक जिस दार्शनिक विचारधारा का प्रभुत्व पश्चिम में रहा, वह तितिक्षावादी दर्शन या स्टोइसिज्म ( Stoicism) के नाम से प्रसिद्ध है। इस परम्परा के अन्तिम महत्वपूर्ण दार्शनिक रोम के सम्राट मार्कस ओरीलियस थे, जिनकी पुस्तक 'मेडिटेशन्स' आज भी किसी अच्छी पुस्तक की दुकान में मिल जाती है। बिना चेहरे पर शिकन लाए सुख-दुख सभी कुछ सह लेना ही तितिक्षा है। तितिक्षा की साधना केवल पश्चिम तक सीमित नहीं है। भारत में भी साधु-सन्तों, वैरागियों और तपस्वियों की लम्बी परम्परा है जिसमें तितिक्षा उनकी साधना के केन्द्र में रही है। हाँ, पश्चिम के तितिक्षावादी दर्शन का एक अपना वैशिष्ट्य है.
- स्टोइक्स या तितिक्षावादी ग्रीक और रोमन दार्शनिकों की आधारभूत मान्यता है कि सम्पूर्ण सृष्टि में एक सामञ्जस्यपूर्ण एकत्व है। सृष्टि में अर्थवत्ता है, उसका प्रयोजन हैय वह अर्थहीन नहीं है। सृष्टि के विधान की पृष्ठभूमि में चौत्यपुरुष ईश्वर की सत्ता है । मनुष्य ईश्वरीय अग्नि की चिंगारी हैय उसका सृष्टि के साथ वही सम्बन्ध है जो बूँद और समुद्र के मध्य है। इसीलिए मनुष्य के लिए आवश्यक है कि वह सृष्टि की गति के साथ तादात्म्य स्थापित करे। यह तभी सम्भव है जब अन्तरात्मा में सामञ्जस्य की शान्ति हो । ऐसी अवस्था की प्राप्ति केवल विवेक द्वारा हो सकती है। सदाचार या श्रेय का मार्ग ही मनुष्य का श्रेष्ठतम शुभ कर्म (Virtue ) है, यही श्रेष्ठतम सुख है, आनन्द है।
- स्टोइक्स भी प्राचीन ग्रीक दर्शन की भाँति मानते हैं कि कोई भी व्यक्ति पापमार्गी होनें की इच्छा नहीं करता । वह पापमार्गी होता है विवेकहीन निर्णयों के कारण । भ्रमित मन, झूठ का संसार और अनेकानेक वासनाएं उसे इस मार्ग पर अभिप्रेरित करती हैं। ऐसी अभिप्रेरणा के मूल में मुख्य रूप से चार तीव्र वासनाएं (passions) हैं इन्द्रियजन्य सुख, इच्छा, शोक और भय । वर्तमान के शुभाकांक्षी दिग्भ्रमित मन में इन्द्रियजन्य सुखों की चाह उठती हैय भविष्य का शुभाकांक्षी मन इच्छाओं का मायाजाल रचता है; वर्तमान के अशुभ से ग्रसित दिग्भ्रमित मन में शोक पैदा होता हैय तथा भविष्य के अशुभ की कल्पना से विवेकहीन मनुष्य भयग्रस्त हो जाता है। हमारे तमाम कष्टों और पापों के पीछे यही चार अनेकानेक रूपों में विद्यमान हैं। इन्हें कम ही नहीं, जड़ से ही खत्म करना जीवन की साधना है। और इसके लिए अदम्य साहस तथा संयम आवश्यक है।