मूसा के दस धर्मादेश (Ten Commandments of Moses)
मूसा के दस धर्मादेश
- मूसा के दस धर्मादेशों को पाश्चात्य संस्कृति का आधार स्तम्भ कहा जा सकता है। मूसा (Moses) को यहूदी, इस्लाम और ईसाई धर्मों में एक प्रमुख नबी या ईश्वरीय सन्देशवाहक माना गया है। वे यहूदी धर्म के संस्थापक और इस्लाम धर्म के पैगम्बर माने जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि उनका जन्म ईसा से 1500 वर्ष पूर्व हुआ था । इसलिए उनका कालखण्ड ग्रीक दार्शनिको से भी एक हजार वर्ष पूर्व का है। मूसा के दस धर्मादेश' या 'दस फरमान का वर्णन कुरान और बाइबल दोनों में मिलता है। मूसा को यह धर्मादेश सीधे साक्षात ईश्वर से प्राप्त हुए थे, ऐसी मान्यता है। यह धर्मादेश पाश्चात्य संस्कृति की मूल संरचना में शताब्दियों से व्याप्त रहा है। इसलिए पाश्चात्य विचारों को भलीभाँति समझने के लिए इन धर्मादेशों की चर्चा अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
- किसी भी दार्शनिक विचार को जब संकुचित अर्थ में, या घोर अज्ञान की दृष्टि से देखा जाता है, तो अनावश्यक अर्थहीन मतभेद सामने आते हैं । किन्तु यदि हम "एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति" के आलोक में इसी विचार को उसके वृहत्तर अर्थ में देखें, तो हमें सत्य के शाश्वत स्वरूप का दर्शन प्राप्त होता है। इसलिए हम यहाँ दार्शनिक दृष्टि से इन धर्मादेशों को समझने का प्रयास करेंगे।
- परमेश्वर ने मूसा से कहा- "मैं तुम्हारा परमेश्वर यहोवा हूँ, जिसने तुझे मिस्र देश के दासत्व से मुक्ति दिलायी है । "
प्रथम आदेश:
"तुम मुझे छोड़कर किसी अन्य को ईश्वर नहीं मानोगे।"
- परमेश्वर एक ही है। वह दो नहीं हो सकता। कोई यदि कहे कि मनुष्य का ईश्वर घोड़ा के ईश्वर से भिन्न है, तो यह बात बिल्कुल मूर्खतापूर्ण सिद्ध होती है। परमेश्वर के अतिरिक्त कुछ अन्य अभीष्ट नहीं हो सकता परन्तु व्यावहारिक जगत में हम देखते हैं कि लोगों के अनेकानेक उपास्य हैं कोई किसी विचारधारा का उपासक है, तो कोई धन-सम्पदा, सफलता और प्रसिद्धि का कोई अन्य अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए राजा या मन्त्री की उपासना में ही अपना जीवन समर्पित कर देता है। इसी अज्ञानमार्गी धारा - जिसमें यह भ्रामक प्रतीति होती है कि डॉक्टर या न्यायाधीश हमारी जान बचा सकता है, राजा हमें वैभव प्रदान कर सकता है के प्रति यह आदेश हमें सचेत करता है। कुछ ऐसी ही बात भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः । १८.६६ ।।" मूसा के माध्यम से बताये गये ईश्वर के इस आदेश को हमें गम्भीरता से लेना चाहिए, क्योंकि हमारे चारो तरफ फैले अज्ञानमार्गी धारा के प्रवर्तक चीख चीख कर कहते हैं कि मूसा या कृष्ण की शिक्षा व्यावहारिक नहीं है, उसे अमल में नहीं लाया जा सकता ।
द्वितीय आदेश:
"तुम न तो कोई प्रतिमा बनाओगे, न ही किसी प्रतिमा की उपासना करोगे।
'बुद्धेः परतस्तु सः' (गीता ३.४२) ।
जो बुद्धि के परे है, बुद्धि या मन उसकी कल्पना कैसे कर सकता है? प्लेटो ने इसी आधार पर सिद्धान्त दिया कि सारा का सारा साहित्य झूठ है, क्योंकि वह किसी नकल की नकल है, असल नहीं है। नकल की उपासना तो दूर, नकल का संसार ही नहीं गढ़ोगे, यही इस आदेश का अर्थ है।
तृतीय आदेश:
"तुम अपने परमेश्वर का नाम व्यर्थ में नहीं लोगे ।"
- ईश्वर की आराधना मुक्ति के लिए है, ज्ञान के लिए है, नौकरी पाने के लिए के नहीं अर्थ स्पष्ट है।
चतुर्थ आदेश:
"तुम विश्रामदिन ( सप्ताह का सातवाँ दिन, रविवार) की पवित्रता सदैव स्मरण रखोगे ।"
- संसार की भागदौड़ मायानगरी में विचरण है। सप्ताह में एक दिन तो उससे छुट्टी चाहिए, ताकि पता चल सके कि इस तथाकथित व्यावहारिक जगत के आगे भी कुछ है, देहान्त के आगे भी यात्रा है।
पञ्चम आदेश:
"तुम अपने माता-पिता का आदर करोगे।"
श्रवण कुमार के देश में इसे व्याख्यायित करने की आवश्यकता नहीं है।
षष्ठ आदेश:
"तुम हत्या नहीं करोगे "
युधिष्ठिर से जैन मुनियों और गाँधी तक अहिंसा का उपदेश हमारे सामने है। परन्तु मानव समाज ने पिछले दो हजार वर्षों में दो हजार युद्ध लड़े हैं । 3500 वर्ष पहले ईश्वर का यह आदेश प्राप्त हुआ था, परन्तु हमें आज तक सुनायी नहीं पड़ा है। मानवता के हजारों वर्षों के इतिहास में इससे बड़ा मूल्य ह्रास कोई और नहीं है। डिमॉक्रिटस से लेकर शॉपनहावर तक सब के सब यही समझने समझाने में लगे हैं कि ऐसा क्यों होता है।
सप्तम आदेश :
तुम परस्त्रीगमन (या परपुरुषगमन) नहीं करोगे।"
पापमार्गी होने के लिए सेक्स से सुलभ कोई अन्य रास्ता नहीं है । यहाँ यदि संयम प्राप्त कर लिया, तो अन्य परिस्थितियों में आसानी से संयम बरता जा सकता है।
अष्टम आदेश:
"तुम चोरी नहीं करोगे।"
भारत में इसे आस्तेय का सिद्धान्त कहा गया है। चोरी असन्तोष और ईश्वर के प्रति अश्रद्धा का द्योतक है। हम देखते हैं कि कोई जानवर चोरी नहीं करता । जहाँ प्रकृ ति के साथ तादात्म्य का जीवन है, वहाँ चोरी का विचार नहीं है। चोरी चतुर लोग करते हैंय चोरी के लिए चतुर होना चाहिए। चोरी का सम्बन्ध गरीबी से नहीं है । बड़े बड़े लोग बड़ी बड़ी चोरी करते हैं। हजारों करोड़ रूपयों के घोटालों से अखबार भरा पड़ा है। यह सब वही लोग हैं जिनके लिए मूसा या कृष्ण व्यावहारिक नहीं हैं। ब्रह्मचर्य की तरह आस्तेय संयम की एक और कड़ी है।
नवम आदेश :
"तुम किसी के विरुद्ध झूठी गवाही नहीं दोगे।"
संयम की एक अन्य कड़ी सत्यवादिता है । यह आदेश हमें उसी दिशा में प्रेरित करता है।
दशम आदेश :
" तू किसी के घर का लालच नहीं करोगे या न ही किसी की स्त्री का लालच करोगे, और न ही किसी के दास - दासी, या जानवर, या अन्य किसी वस्तु का लालच करोगे ।"
- ईशोपनिषद् के पहले मन्त्र में कहा गया है 'मा गृधः कस्य स्विद् धनम् । डिमॉक्रिटस से लेकर शॉपनहावर तक सभी ने समझाया है कि मनुष्य के लिए आत्मबोध, आत्मसाक्षात्कार, स्वयं के मूलस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना एकमात्र अभीष्ट उद्देश्य है । लेकिन जब हमारा सारा समय पड़ोसी की औरत, उसका गाड़ी- बंगला, उसके नौकर-चाकर, उसकी पद-प्रतिष्ठा, यही सब देखने में बीतेगा, तो यह आत्मसाक्षात्कार कब करेंगे? मरने के बाद?
मूसा के दस धर्मादेशों के माध्यम से ईश्वर ने मानवता को नैतिक जीवन जीने का एक अत्यन्त सुलभ पाठ दिया है। इसे व्यवहार में लाना ही साधना है। यह इतना सरल है कि कम से कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी इसे आसानी से समझ सकता है । यह दस आदेश इतने संक्षिप्त हैं कि उन्हें आसानी से याद रखा जा सकता है। इन्हें समझने के लिए किसी आचार्य की टीका की आवश्यकता नहीं है।