वर्णाश्रम व्यवस्था, वर्ण शब्द, वर्ण-व्यवस्था की व्युत्पत्ति
वर्णाश्रम व्यवस्था
- वर्ण शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के 'वृञ्' वरणे धातु से हुई है, जिसका अर्थ है 'चुनना' या 'वरण करना' । सम्भवतः 'वर्ण' से तात्पर्य 'वृत्ति' या किसी विशेष व्यवसाय के चुनने से है। समाज शास्त्रीय भाषा में 'वर्ण' का अर्थ 'वर्ग' से है, जो अपने चुने हुए विशिष्ट व्यवसाय से आबद्ध है।
- वर्ण-व्यवस्था के उत्पत्ति से सम्बन्धित दैवी सिद्धान्त के अनुसार विराट् पुरुष के अगों से चारो वर्णों की उत्पत्ति हुई है। मुख से ब्राह्मण, बाहुओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य तथा पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए। वास्तव में यह श्रम विभाजन का रूपात्मक वर्णन है। वर्ण का अर्थ रंग भी होता है। आर्य श्वेत वर्ण के और आर्येतर कृष्ण वर्ण के थे । रंग के आधार पर आर्य एवं अनार्य अथवा शूद्र दो ही वर्ण थे पुनः आर्यों में ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य तीन वर्ण हो गये इसके पीछे क्या सिद्धान्त था यह स्पष्ट नहीं है। गुणों के आधार पर वर्ण-व्यवस्था के अनुसार सत्वगुण की प्रधानता वाले वर्ण ब्राह्मण हैं, जिनमें रजोगुण की प्रधानता है वे क्षत्रिय हैं और जिनमें रजस् और तमस् की प्रधानता होती है वो वैश्य हैं। केवल तमस् गुण की प्रधानता वाले शूद्रवर्ण हैं। वर्ण-व्यवस्था के विकास में उपर्युक्त मतो का योगदान रहा होगा। वर्ण विभाजन पहले व्यक्तिगत एवं मुक्त था । वर्ण- परिवर्तन सरल और सम्भव था, जो बाद में धीर-धीरे जटिल होता गया । पुराणों में भी कर्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है तथा यह माना गया है कि पूर्व जन्म के कर्मों के परिणामस्वरूप ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र उत्पन्न हुए।
1 ब्राह्मण
- समाज में ब्राह्मण का स्थान सर्वोच्च था । विराट् पुरुष के मुख से उत्पन्न होने के कारण उसकी विशिष्टता स्वयं सिद्ध थी। मुख्य रूप से उसके छः कर्म थे वेद - पढ़ना, वेद पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना और दान लेना। अपनी तपश्चर्या और साधना से वह समाज के लोगों को सन्मार्ग और सद्भाव का मार्गदर्शन कराता था। अपने सदाचरण और सच्चरित्रता से वह नैतिकता की स्थापना करता था तथा समाज में सत्य, अहिंसा, शौच और सदाचारिता का वातावरण निर्मित करता था। पुरोहित के रूप में वह राजा को विभिन्न प्रकार की सलाह देता था । युद्धभूमि में राजा और सेनापति के अतिरिक्त राजपुरोहित भी होता था, जो अपने राजा की विजय के निमित्त देव स्तुति करता था तथा यज्ञ सम्पन्न करता था। चारो वर्णों में दान प्राप्त करने वाला वही एकमात्र सुपात्र था, जिसने अपने बौद्धिक और आध्यात्मिक ज्ञान के बल पर यह विशेष स्थिति प्राप्त की थी। मनुष्य कभी-कभी विपरीत परिस्थितियों के कारण स्वधर्म का पालन न कर सकने के कारण अपना जीवन यापन नहीं कर सकता था। ऐसे संकट और विपत्ति के समय में उसके लिए वर्णेतर कर्म की व्यवस्था की गयी थी। ब्राह्मण के लिए भी ऐसा विधान था। वह अध्यापन करने, यज्ञ सम्पन्न कराने और दान प्राप्त करने से अपना और अपने परिवार का पालन कर सकने में असमर्थ होता था तो क्षत्रिय और वैश्य के कर्म भी अपना सकता था।
2 क्षत्रिय
- देश और समाज की रक्षा क्षत्रिय ही करते थे। उनका कार्य प्रायः युद्ध - पराक्रम और शौर्य प्रदर्शित करना था, इसलिए ऐसे वीर और पराक्रमी वर्ग को क्षत्रिय' कहा गया। क्षत्रियों का मुख्य गुण शौर्य, शासन और सैन्य संचालन था । ब्राह्मणों के समान ही क्षत्रियों को अध्ययन-अध्यापन का अधिकार था, किन्तु यज्ञ कराने का अधिकार नहीं था । कौटिल्य के अनुसार क्षत्रिय का प्रमुख कर्म अध्ययन करना, यज्ञ करना, शस्त्र ग्रहण करना और भूतरक्षण करना था । मनु ने क्षत्रिय के लिए व्यवस्था दी है कि वह प्रजा की रक्षा करे, दान दे, यज्ञ करे, वेद पढ़े और विषयों में आसक्त न हो। राज-व्यवस्था के स्वामी के रूप में क्षत्रिय को समाज में उच्चस्तरीय प्रतिष्ठा प्राप्त थी। सांसारिक दृष्टि से वह सर्वाधिक शक्तिशाली वर्ग था। समाज में कुछ ऐसे कार्य थे, जो क्षत्रियों के लिए वर्जित थे । वेद पढ़ाने, यज्ञ कराने और दान लेने का अधिकार केवल ब्राह्मणों का था । प्राचीन युग के अनेक क्षत्रिय शासकों ने पढ़ाने का भी कार्य किया था। हिन्दू धर्मशास्त्रकारों ने क्षत्रियों के लिए यह व्यवस्था दी थी कि संकट काल में वे अपने से नीचे वर्ण के कर्म अपना सकते थे। कभी-कभी ऐसी स्थिति होती थी कि व्यक्ति जब अपने वर्ग के कर्म करते हुए भी अपने परिवार का पोषण कर सकने में असमर्थ होता था, तब वह अपनी आजीविका चलाने के लिए दूसरे वर्ण के कार्य करता था। पारिवारिक संकट की स्थिति में क्षत्रिय व्यापार और वाणिज्य भी कर सकता था। वह व्यापार करते समय सभी प्रकार के रस, तिल, नमक, पत्थर और मनुष्य का क्रय-विक्रय नहीं कर सकता था।
3 वैश्य
- अर्थ – सम्बन्धी नीतियों का सारा संचालन वैश्य वर्ग करता था । अध्ययन, यजन और दान उसका परम कर्त्तव्य था । पाणिनि ने वैश्य के लिए 'अर्थ' शब्द का प्रयोग किया है। कौटिल्य के अनुसार उसका प्रधान कर्म अध्ययन करना, यज्ञ करना और दान देना था। कालान्तर में वैश्य ने अध्ययन त्यागकर अपने को पूर्णरूप से व्यापार और वाणिज्य में लगाया। गौतम धर्मसूत्र में कहा गया है कि अध्ययन, यजन, दानादि के कर्मों को त्यागकर वैश्य कृषि, वाणिज्य, पशुपालन और कुसीद जैसे धनार्जन के कार्यों में तल्लीन हो गये। महाभारत में भी कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य वैश्यों के स्वाभाविक कर्म माने गये हैं। कौटिल्य ने भी अध्ययन, यजन, दान, कृषि, पशुपालन और वाणिज्य वैश्यों का कर्म बताया है। महाभारत के अनुसार वैश्यों का प्रमुख ध्येय धनार्जन करना था। मनु के अनुसार पशुओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, व्यापार करना, ब्याज लेना और कृषि करना वैश्यों के कर्म थे । ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों की तरह वैश्यों को भी आपत्तिकाल में दूसरे वर्ण का कर्म करने की छूट प्राप्त थी युद्ध-कर्म और सैनिक–वृत्ति मुख्यतः क्षत्रियों का कर्म था, किन्तु धर्मशास्त्रकारों द्वारा यह व्यवस्था दी गई थी कि गौ, ब्राह्मण और वर्ण की रक्षा के लिए वैश्य भी शस्त्र ग्रहण कर सकता था।
4 शूद्र
- चारो वर्णों में यह चतुर्थ वर्ण था । विराट् पुरुष के पैर से इसकी उत्पत्ति मानी गयी थी। सावयव कल्पना के आधार पर यह समाज का अविभाज्य अङ्ग था। स्मृतियों के अनुसार प्रथम तीन वर्णों की सेवा करना ही इनका कार्य एवं आजीविका थी। इनका एक मात्र आश्रम गार्हस्थ्य था । धर्मशास्त्रों में जिन षट्कर्मो का विधान किया गया है - पठन-पाठन, यजनयाजन, दान - प्रतिग्रह आदि उनमें से शूद्र को वैदिक मन्त्रों को छोड़कर अन्य विद्या के पठन मन्त्रों से रहित यजन और दान देने का अधिकार प्राप्त था। सेवा इनका विशेष कार्य था। इस प्रकार शूद्र स्वतन्त्र श्रमिक थे, जो किसी भी वर्ण का व्यक्ति हो सकता था। मनु के पूर्व सूत्रकालीन समाज में शूद्रों की दशा अत्यन्त संकुचित और दयनीय थी। वे अनार्य और दास के सम्मिलत रूप थे महाकाव्य काल में उनकी दशा में कुछ सुधार हुआ। समाज में उनका आदर और सत्कार आरम्भ हो चुका था । महाभारत से ज्ञात होता है कि युधिष्ठिर ने अपने राजसूय यज्ञ में शूद्र प्रतिनिधियों को भी आमन्त्रित किया था । वाणिज्य - व्यापार उद्योग और पशुकर्म करने के लिए उन्हें अनुमति मिल गयी थी। यज्ञ सम्पन्न करने के लिए भी उन्हें स्वीकृति मिल गयी थी । उन्हें काष्ठशिल्प, धातुशिल्प, भांडशिल्प, चित्रकला आदि कर्मों का सम्पादन करने की अनुज्ञा दी गयी। जो विभिन्न शिल्पों से सम्बद्ध होकर समाज में प्रतिष्ठित था । उनके पेशे और शिल्प कालान्तर में आनुवांशिक हो गये । उस युग में ऐसी शिल्पप्रधान अनेक जातियाँ बन गयी थीं तथा तन्तुवाय (बुनकर ), तक्षक (बढई) कम्मार ( कर्मार या लोहार ), दन्तकार, कुम्भकार (कुम्हार) आदि विभिन्न व्यवसाय के अनुसार अनेक वर्ग भी बन गये थे। पुराणों में शूद्रों को दान देने तथा इन्द्रिय - निग्रह के साथ मोक्ष-प्राप्ति का भी उल्लेख किया गया है। पतित ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य से विशुद्ध मन और मस्तिष्क वाला शूद्र श्रेष्ठ था । अगर सेवा-वृत्ति से उनकी जीविका नहीं चल पाती थी तो व्यापार, पशुपालन और विभिन्न उद्योग-धन्धे अपनाने का निर्देश था ।