आदिकाल में गद्य साहित्य ,आदिकाल के प्रमुख गद्य साहित्य
आदिकाल में गद्य साहित्य
आदिकाल में काव्य रचना के साथ-साथ गद्य रचना की दिशा में भी कुछ स्फुट प्रयास लक्षित होते हैं। 'राउलबेल' (चम्पू), 'उक्ति-व्यक्ति प्रकरण' और 'वर्णरत्नाकर' इस संदर्भ में उल्लेखनीय रचनाएँ हैं।
1 राउलबेल
रोडा कृत राउलबेल एक शिलांकित कृति है जिसका पाठ बम्बई के प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय से उपलब्ध कर प्रकाशित कराया गया है। विद्वानों ने इसका रचनाकाल दसवीं शताब्दी माना हैं। यह गद्य-पद्य मिश्रित चम्पू काव्य की प्राचीनतम हिंदी कृति है।
इसकी रचना 'राउल' नायिका के नख-शिख वर्णन के प्रसंग में हुई है। आरम्भ में कवि ने राउल के सौंदर्य का वर्णन पद्य में किया है और फिर गद्य का प्रयोग किया गया है। राउल बेल' से हिंदी में नख - शिख वर्णन की श्रंगार परम्परा आरंभ होती है। कवि ने विषय-वर्णन बड़ी तन्मयता से किया हैं। नायिका राउल का भंगार आकर्षण से भरा हुआ है। वह सहज रूप में जितनी सुन्दर है, उतनी ही सहज - सुन्दर उसकी सज्जा भी है। इस सौन्दर्य के अनुकूल ही उसकी भावदशा है। रोडा ने उपमा, उत्प्रेक्षा अलंकारों का प्रयोग करके रूप-वर्णन को प्रभावशाली बना दिया हैं। इसकी भाषा में हिंदी की सात बोलियों के शब्द मिलते हैं। जिसमें राजस्थानी प्रधान है।
2 उक्ति-व्यक्ति प्रकरण
दामोद शर्मा इस कृति के रचियता है। वह महाराजा गोबिन्द चन्द्र के सभा पंडित थे। गोबिन्द चन्द्र का शासनकाल 1154 ई० माना गया है। डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार "उक्ति-व्यक्ति प्रकरण एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण व्याकरण ग्रंथ है। इसमें बनारस और आस-पास के प्रदेशों की संस्कृति और भाषा आदि का अच्छा प्रभाव पड़ता है और उस युग के काव्य रूपों के संबंध में भी थोड़ी-बहुत जानकारी होती है।
इस ग्रंथ की भाषा का एक उदाहरण इस प्रकार है-
"वैद पढब, स्मति अभ्यासिब, पुराण दंखण, धर्म करब । "
इससे गद्य और पद्य दोनों शैलियों की हिंदी भाषा में तत्सम् शब्दावली के प्रयोग की बढ़ती हुई प्रवत्ति का पता चलता है।
3 वर्ण रत्नाकर
इस कृति के रचनाकार ज्योतिरीश्वर ठाकुर हैं। डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी के मतानुसार इसकी रचना चौदहवीं शताब्दी में हुई होगी। इसकी भाषा में कवित्व, अलंकार तथा शब्दों की तत्समता की प्रवत्तियाँ मिलती है। गद्य में नायिका
का वर्णन करते हुए ज्योतिरीश्वर लिखते हैं-
"पुनु कयिसनि नायिका । कामदेवक नगर अइसन शरीर निष्कलंक
चाँद अइसन मुह । कंदल खंजीरीर अइसन लोचन ।
यमुना के तरंग अइसन भुजइ । "
इन पंक्तियों से 'वर्ण रत्नाकर एक शब्दकोश सा प्रतीत होता है, किन्तु सौन्दर्य ग्रहिणी प्रतिभा भी साथ ही साथ स्पष्ट प्रभाव दिखा रही है। हिंदी गद्य के विकास में 'राउलवेल' के पश्चात 'वर्ण रत्नाकर' का योगदान भी कम नहीं कहा जा सकता। इन कृतियों के अतिरिक्त और भी रचनाएँ इस समय में लिखी गई होंगी, लेकिन किसी कारणवश वे उपलब्ध नहीं हो सकी। ये कृतियाँ गद्य-धारा के प्रवाह की अखंडता को कायम रख सकी हैं।
आदिकालीन साहित्य का जनजीवन जिन अनुभूतियों से प्रकट हुआ था, उनमें पर्याप्त विविधता थी। समाज की विभिन्न स्थितियों पर दष्टिपात करके सहज जीवन का मार्ग सुलझाने से लेकर हठयोग की साधना तक आदिकाल में मुक्तक काव्य रूप का जो विस्तार हुआ, निश्चय ही उसका पर्याप्त ऐतिहासिक महत्त्व है।
प्राकृत और अपभ्रंश से लेकर 'राउलबेल' तक भंगार की जो परम्परा आयी थी, वह भक्तिकाल को प्रभावित करती हुई रीतिकाल तक चली आयी।
इस समय में एक साथ धार्मिक मनोवत्तियों का सात्त्विक चित्रण मिलता है, श्रंगार की सहज सरसता दिखाई देती है, वीररस के दश्य भी मिलते हैं तथा ऐसे चित्र सामने आते हैं, जिनसे एक स्वतंत्र जाति के अहंकार का पूरा बिंब उसकी समस्त टूटन के साथ उभरता है।
आदिकालीन साहित्य में छंद-प्रयोग की विविधता देखी गई है। डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने छंद की दष्टि से कुछ सीमाएँ बनायी हैं। उन्होंने श्लोक को लोकिक संस्कृत का गाथा को प्राकृत तथा दोहा को अपभ्रंश का मुख्य छंद स्वीकार किया है।