आदि कालीन प्रतिनिधि रचनाकार
आदि कालीन प्रतिनिधि रचनाकार
1 चन्दवरदाई
महाकवि चन्दवरदायी, वीरगाथा काल के प्रतिनिधि महाकवि हैं। चन्दवरदायी पथ्वीराज चौहान के सखा दरबारी कवि तथा सामन्त थे । ये भट्ट जाति में जगात गोत्र के थे। ऐसा कहा जाता है कि इनका जन्म भी पथ्वीराज की जन्म तिथि को हुआ ओर मत्यु भी पथ्वीराज की पुण्य तिथि के साथ हुई। चन्दवरदायी का जन्म लाहौर में जबकि पथ्वीराज को अपना दत्तक पुत्र बनाकर दिल्ली का राज्य भी पथ्वीराज को सौंप दिया तो उसी समय के आस-पास चन्दवरदायी भी दिल्ली आकर पथ्वीराज के सखा तथा राजकवि बन गए। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि चन्दवरदायी का समय (संवत् 1205-1149) के मध्य माना गया है।
चन्दवरदायी षडभाषा, व्याकरण, काव्य साहित्य, छन्द शास्त्र ज्योतिष, पुराण तथा नाटक आदि अनेक विधाओं में पारगंत थे। युद्ध में, आखेट में सभा में तथा यात्रा में पथ्वीराज के साथ ही रहते थे। जब शहाबुद्दीन गोरी पथ्वीराज को कैद करके गजनी ले गया तो कुछ दिनों पश्चात् चन्दवरदायी भी मुहम्मद गोरी के दरबार में पहुँचा तथा दिल्ली से जाते हुए अपने महाकाव्य को अपने पुत्र जल्हण के हाथ सौंप गया। कहते हैं चन्द्रवरदायी ने पथ्वीराज के साथ मिलकर शब्दभेदी बाण की कला में निपुण पथ्वीराज द्वारा गोरी को मरवाने की सफल योजना बनाई।
वीरगाथाकाल के सर्वश्रेष्ठ कवि चन्द दिल्ली के अन्तिम हिन्दू सम्राट, पथ्वीराज के राजसामन्त और राजकवि थे। उनके जन्म के विषय में कहा जाता है कि 'रासो' के आधार पर उनका जन्म संवत् 1205 ई० में हुआ था। इनके पिता का नाम बैण अथवा राववेणु था। चन्द षद्भाषाओं, व्याकरण, काव्य, साहित्य, छन्दशास्त्र, ज्योतिष, पुराण आदि अनेक विषयों के ज्ञाता थे। चन्द के पुत्रों में जल्हण सबसे योग्य था और इसी ने अधूरे रासो को चन्द की मृत्यु के पश्चात् पूरा किया था। ऐसी जनश्रुति प्रचलित है। 'रासो' में चन्द ने अपने आश्रयदाता और मित्र राजा पथ्वीराज का यशोगान किया है। 'रासो' चन्दवरदाई का अमर काव्य है।
2 अमीर खुसरो का जीवन परिचय और रचनाएँ
अमीर खुसरो भारतवर्ष के बहुत बड़े प्रतिष्ठित कवि रहे हैं। सौन्दर्य, संस्कृति, प्रकृति, हास्य-व्यंग्य आदि विषयों को अपनी अनुभूति के केन्द्र में रखकर उन्होंने भारतवर्ष को कालजयी और उजासमयी रचनाएँ प्रदान की हैं। अमीर खुसरो अनूठी प्रतिभा के अनूठे साहित्य-साधक थे। उनका जन्म 1250 ई० एटा (उत्तर प्रदेश) जिले के पटियाली नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम सैफुद्दीन महमूद था। बाल्यावस्था में ही अमीर खुसरो के पिता का किसी लड़ाई में निधन हो गया था। इसके पश्चात उन्हें अपने नाना के यहाँ आश्रय ग्रहण करना पड़ा। खुसरो के नाना का घर भारतीय सभ्यता और भारतीय संस्कृति का केन्द्र था। वहीं पर उन्होंने हिंदी के साथ, संस्कृत, फारसी, तुर्की, अरबी तथा अन्य प्रादेशिक भाषाओं में कुशलता दक्षता प्राप्त की। 18 वर्ष की कम आयु में ही खुसरो दिल्ली के साहित्यिक गलियारों में चर्चित हो गए।
अमीर खुसरो कई सुल्तानों के आश्रय में रहे। पहला आश्रय उन्हें मलिक छज्जू जो उनका भतीजा था, का मिला। इस आश्रय स्थल पर खुसरो दो वर्ष तक रहे। इसके बाद वे बादशाह बलबन के छोटे पुत्र बुगराखाँ के दरबार में तीन साल तक रहे। तत्पश्चात् खुसरो बलबन के बड़े लड़के सुल्तान हाकिम के दरबार मुलताना में लगभग पाँच वर्ष तक रहे। इसके अतिरिक्त खुसरो सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी, सुल्तान कुतुबुद्दीन, सुल्तान मलिक तुगलक, मुहम्मद तुगलक आदि के दरबार में रहे। दरबारों में रहकर उन्होंने अनेक प्रकार के जीवनानुभवों को प्राप्त किया।
प्रख्यात सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया अमीर खुसरो के गुरु थे। 1325 ई० में उनका निधन हो गया था। गुरू निधन से अमीर खुसरो पागल से हो जाते हैं और अपना सर्वस्व लुटाकर गुरू की समाधि- सेवा में लीन हो जाते हैं। हजरत निजामुद्दीन की मृत्यु के थोड़े समय पश्चात ही उनका भी निधन हो जाता है। अमीर खुसरो की समाधि हज़रत निज़ामुद्दीन के पैताने बनी हुई है, जो सभी जाति और सभी धर्म के लोगों के लिए पूजनीय है। अमीर खुसरो को अपनी मातभाषा पर गर्व था। उन्हें हिन्दुस्तानी होने का भी गर्व था। उन्होंने स्वीकार किया कि वे हिंदी को पानी के सहज प्रवाह के समान बोल सकते है- तुर्क- ए- हिन्दुस्तानयम मन हिन्दवी गोयम चू आब- उन्होंने हिन्दी को तुर्की और फारसी से भी श्रेष्ठ माना है। यथा
"इस्वात मुफ्त व हुज्जत कि राजेहू अस्त ।
बर पारसी व तुर्की अज़ अल्फाज़े खुशगवार ।।
अमीर खुसरो प्रतिभावान विद्वान थे उन्हें लोकशास्त्र ओर लोकसाहित्य का भी सम्यक ज्ञान था। इसीलिए वे अरबी, फारसी, तुर्की, हिंदी में पर्याप्त रचनाएँ रचने में समर्थ हो सके। विद्वानों ने अमीर खुसरो की रचनाओं की संख्या 199 बताई है, किन्तु प्राप्त रचनाओं की संख्या 28 के लगभग रही है। खुसरो की प्रसिद्ध फारसी रचनाओं का ब्योरा इस प्रकार है-वस्तुल हयात, गुर्रतुल कमाल, निहायतुल कमाल, वकीयः नकीयः, किरानुस्सादैन, ताजुल मुफ्तूह, नुह सिप्हर, खम्स-ए-खुसरो, खिजनामा, तारीख-ए-अलाई, तुगलकनामा आदि ।
अमीर खुसरो फारसी के सिद्ध कवि थे, लेकिन उन्होंने हिंदी में भी पर्याप्त रचनाए रची है। उनकी रचनाओं की संख्या निश्चित नहीं कही जा सकती है। उन्होंने हिंदी की वकालत करते हुए अपने ग्रंथ 'गुर्रतुलकमाल' की भूमिका में लिखा है-
"चूं मन तूती - ए - हिन्दम अर रासत पुर्सी
ज़मन हिन्दवी पुर्स ता नग्ज़ गोयम ।
अर्थात सही समझों तो मैं हिन्दुस्तान की तूती हूँ । यदि तुम मुझसे मीठी बातें करना चाहते हो तो हिन्दवी में बात करो। अमीर खुसरो की हिंदी में कोई प्रामाणिक रचना नहीं मिलती है। इसका अर्थ यह नहीं लगाया जा सकता कि उन्होंने हिंदी में रचनाएँ ही नहीं की है।
डा० भोलानाथ तिवारी ने खुसरो की प्राप्त हिन्दी कविताओं को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया है। (i) पहेलियाँ, (ii) मुकरियाँ, (iii) निस्बतें, (iv) दो सखुन, (क) हिंदी (ख) फारसी और हिंदी (v) ढकोसले, (vi) गीत, (vii) कव्वाली, (viii) फारसी - हिंदी मिश्रित छंद, (ix) सूफी दोहे, (x) गजल (xi) फुटकल छंद, (xii) खालिकबारी अमीर खुसरो की जनसामान्य में अतिशय प्रतिष्ठा का कारण उनकी पहेलियाँ, मुकरियाँ, निस्बतें दो सखुन आदि हैं। ये लोक जीवन से ही केवल सम्बद्ध नहीं है, वरन् लोकजिह्य पर भी विद्यमान हैं। पहेलियां बौद्धिक व्यायाम से सम्बद्ध होती हैं, मुकरियाँ, 'मुकरने के भाव से जुडी है और निस्बतें शब्दक्रीड़ा से युक्त हैं।
पहेली - (बूझ पहेली )
बीसो का सिर काट लिया।
न मारा न खून किया।
मुकरी-
सगरी रैन मोरे सँग जागा
भोर भयी तो बिछुड़न लागा।
बाके बिछुडे फाटत हिया ।
ऐ सखि साजन, न सखि दिया।
अमीर खुसरो प्रेम और सौन्दर्य के विशिष्ट रचनाकार हैं। उनकी प्रेम-चेतना और सौन्दर्य - भावना में भारत के अध्यात्म जगत को देखा जा सकता है। अमीर खुसरो की अध्यात्म चेतना लोक चेतना से भरपूर अभिषिक्त हैं इसमें प्रकृति का रहस्य का, जीवन का, समाज का सच्चा प्रतिरूप दष्टिगोचर होता है। अमीर खुसरो द्वारा रचित बाबुल का गीत उनकी सौंदर्य और राग की समग्र अनुभूति को उजागर करता है, यथा
काहे को बियाहे बिदेस सुन बाबुल मोरे।
हम तो बाबुल तोरे बाग की कोयलिया,
कुहकत घर-घर जाऊँ, सुन बाबुल मोरे ।
चुग्गा चुगत उड़ि जाऊँ, सुन बाबुल मोरे ।
हास्य और व्यंग्य भी अमीर खुसरो की कविता की अन्यतम प्रवत्ति है। दरबार ने उनकी इस प्रवृत्ति को पैदा किया और उसी ने इसको विकास और प्रकाश भी दिया। हास्य और व्यंग्य के माध्यम से खुसरो ने बन्धुत्व, सद्भाव, निरभिमानता, आशा, आहलाद, आनन्द, मैत्री आदि को सम्प्रेषित करने का प्रशंसनीय प्रयास किया हैं।
अमीर खुसरो का भाषा पर असाधारण अधिकार था। उन्होंने कविता को लोक से जोड़ने का प्रयास किया। उनकी भाषा हिन्दी या खड़ी बोली है जो उस समय दिल्ली के आसपास बोली जाती थी। इसके साथ ही, उनकी भाषा पर बोलियों का भी प्रभाव देखा जा सकता है। अमीर खुसरो ने अपनी रचनाओं में पद, दोहे गीत, गजल आदि काव्य रूपों का विधान किया है। उनके यहाँ अलंकार का अनायास व्यवहार भी देखा जा सकता है। खुसरो की अभिव्यक्ति - शक्ति उनकी संवेदना को और अधिक व्यापक तथा प्रभावशाली बनाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं।
अमीर खुसरो बड़े ही विनोदप्रिय और सहृदय व्यक्तित्व के स्वामी थे, सामान्य जन-जीवन में विश्वास रखते थे। जन-जीवन के साथ घुल-मिलकर रहना उनका स्वभाव बन चुका था। इसीलिए उनकी रचनायें भी महत्त्वपूर्ण स्थान अर्जित कर पायी।
अमीर खुसरो की रचनाएँ
अमीर खुसरो का हिंदी साहित्य के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है क्योंकि उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा भिन्न-भिन्न विषय प्रस्तुत कर मनोविनोद और मनोरंजन की सामग्री प्रस्तुत की। अपभ्रंश मिश्रित और डिंगल भाषा पर उन्होंने सर्वप्रथम खड़ी बोली और ब्रजभाषा का सफलतापूर्वक प्रयोग किया । उनकी रचनाओं में भारतीय और इस्लामी संस्कृतियों के समन्वय का पता चलता है। उनकी रचनाओं से लोक भावनाओं का परिचय प्राप्त हो जाता है। उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार थी खलिकबारी, पहेलियाँ, मुकरियाँ, दो सुखने, गजल, आदि। सवंत् 1381 ई० में इनकी मृत्यु हो गई थी ।
विद्यापति का जीवन परिचय और रचनाएँ
जन्म परिचयः
विद्यापति का जन्म 1360 ई० के आस-पास मिथिला प्रांत में बिसपी नामक ग्राम में हुआ। इनके पिता गणपति ठाकुर उच्च कोटि के विद्वान तथा राज्यमंत्री थे। इससे विद्यापति को प्राचीन साहित्य एवं भाषाओं के अध्ययन की पूर्ण सुविधा मिलती रही।
रचनाएँ:
विद्यापति की प्रमुख रचनाएँ भूपरिक्रमा, पुरूष परीक्षा लिखनावली, विभागसार, वर्षकृत्य, गंगावाक्यावली, कीर्तिलता, कीर्तिपताका आदि रही हैं।
यद्यपि विद्यापति ने अनेक ग्रंथ संस्कृत तथा अवहट्ट भाषा के लिखें, पर इनकी प्रसिद्धि विशेषता 'पदावली' के कारण ही हुई। पदावली' के कारण ही विद्यापति मैथिली कोकिल के नाम से प्रसिद्ध है। विद्यापति समय-समय पर जो पद मैथिली भाषा में गाते रहे, उन्हीं का संग्रह 'विद्यापति पदावली' के नाम से प्रसिद्ध है।
'विद्यापति की पदावली' का हिन्दी साहित्य में अपना पथक महत्त्व रहा है। इसमें ऐसे पद पाए जाते हैं जिनका आदर राजाओं के प्रासादों से लेकर झोंपड़ियों तक समान रूप से है।
विद्यापति के बारे में कहा जा सकता है कि वे श्रंगारी कवि थे। विद्यापति शैव थे। इसलिए उनकी शिवस्तुति और दुर्गास्तुति में भक्ति भावना की जो गहनता मिलती है राजा - कृष्ण विषयक कविता में नहीं मिलती। कहा जाता है कि विद्यापति के पदों को सुनकर महाप्रभु चैतन्य भक्ति के आवेश में लोट-पोट हो जाते थे।
विद्यापति का व्यक्तित्व विविधमुखी है। हिन्दी काव्यकारों में विद्यापति का स्थान बहुत ऊँचा माना जाता है। इनकी कविता इतनी लोकप्रिय हुई कि बंगाली, बिहारी और हिंदी प्रदेश के लोग इन्हें अपना-अपना कवि सिद्ध करने लगे। काल के हिसाब से विद्यापति की गणना आदिकाल के अन्तर्गत मानी जाती है। विद्यापति अनेक राजाओ के आश्रय में रहे। विद्यापति का सारा जीवन राजदरबारों में बीता। वे कीर्तिसिंह, देवसिंह, शिवसिंह, पदमसिंह, हरिसिंह आदि राजाओं के आश्रम में रहे। शिवसिंह ने मिथिला पर अनेक वर्षों तक राज किया। वास्तव में शिवसिंह का शासनकाल विद्यापति के जीवन का उत्कर्ष काल था। राजा शिवसिंह उनके आश्रयदाता ही नहीं, बाल सखा भी थे।
विद्यापति का व्यक्तित्व और कृत्तित्व अन्यतम है। इसीलिए कवि को सम्मान के रूप में अनेक उपधि याँ दी गई। उदाहरणार्थ- अभिनव जयदेव, कविरंजन, कवि शेखर राजपण्डित आदि। विद्यापति अनेक आयामी प्रतिभा के रचनाकार थे। संस्कृत, अवहट्ठ और मैथिली भाषा पर उनका विशेष अधिकार था। इसीलिए तीनों ही भाषाओं में उनकी रचनाएँ प्राप्त होती हैं। रचनाओं का विवरण इस प्रकार है
विद्यापति की संस्कृत रचनाएँ:
(i) पुरूष परीक्षा,
(ii) भूपरिक्रमा, गंगा वाक्यावली, विभासागर, दानवाक्यावली, दुर्गा
भक्तिरंगिणी, गयापत्तलक, वर्णकृत्य, मणिमंजरी।
अवहट्ठ भाषा में रचित पुस्तकें
कीर्तिलता, कीर्तिपताका ।
मैथिली की रचनाएँ:
इसमें विद्यापति कृत पद आते हैं। इन पदों की संख्या लगभग एक हजार है। विद्यापति ने इन पदों की रचना विविध भाव दशाओं में की है। ये गीत विद्यापति की अमरता को कायम रखे हुए हैं।
विद्यापति की कविताओं मे उनकी भक्ति भावना का सहज सम्प्रसार देखा जा सकता हैं राधा-कृष्ण, सीता-राम, शिव-शक्ति, गंगा, भैरवी गणेश आदि देवी-देवों से सम्बन्धित अनेक पद उन्होंने लिखे हैं। अनेक विद्वानों ने उन्हें भक्त स्वीकार किया है। उनको भक्त प्रमाणित करने वाली अनेक किंवदंतियाँ भी लोक में व्याप्त हैं। इन विविध आयामों के विकास और विस्तार को देखकर यह स्वीकार करने मे संकोच नहीं रह जाता है कि विद्यापति की कविता- विद्यापति के पद, भक्ति भावना की सहज प्रकृति से पुष्ट है।
विद्यापति की कविता का दूसरा आयाम श्रंगार और सौन्दर्य है। विद्यापति का दरबार में रहना, सौंदर्य का शरीरी - मांसल वर्णन करना, वयःसन्धि का निरूपण करना, जयदेव की परम्परा में आना विद्यापति को श्रंगारी कवि की परिधि में लाता है। उन्होंने हरिकथा के समान अनन्त सौंदर्यकथा की अपूर्ण अवतारणा की है। उसके मर्म को समझाते- बुझाते हुए उन्होंने लिखा है
सखि हे पुछसि अनुभव मोय ।
सेहो पिरीत अनुराग बखाइत।
तिले तिले नूतन होय ।
जनम अवधि हम रूप निहारल। नयन न तिरपित भेल ।।
विद्यापति सौंदर्य के सच्चे सर्जक, साधक और आराधक थे। सौंदर्य की सान्द्रता उनका शील और वही उनकी शक्ति थी। विद्यापति सौंदर्य में खूब रमे थे और सौंदर्य की सजलता ने उनके मन तथा प्राणों को सरसित कर रखा था। इसी कारण वे ऐसे सौंदर्य की सर्जना कर सकने में समर्थ हो सके है जो द्रष्टा को भावक, विस्मित, चकित करता है। विद्यापति के पद, चाहे वे श्रंगारमूलक हों यह भक्तिमूलक हों, सौंदर्यमूलक हो या सांस्कृतिमूलक, गीतात्मक है। हिंदी जगत् के विद्वानों ने उन्हें हिंदी गीतिकाव्य परम्परा का वास्तविक प्रवर्त्तक स्वीकार किया है। अपनी गीतिशैली की मधुरता, मदिरता तथा प्रभविष्णुता के लिए विद्यापति हिन्दी साहित्य में अनूठे- अनुपम हैं। वैयक्तिकता, रागात्मकता, काल्पनिकता, भाव एकता, संक्षिप्तता, शैलीगत सुकुमारता, संगीतात्मकता, लोकतत्त्व आदि विशेषताओं से विद्यापति के गीत आनन्दित आन्दोलित है। उनके गीतों में एक गीत अवलोकनीय है-
डम डम डम्फ दिमिक द्रिमि मादल, रूनु झुनु मंजीर बोल।
किंकिनि रनरनि बलआ कनकनि, निधु बने राम तुमुल उतरोल
बीन खाब मुरज स्वर मंडल, सा रि ग म प ध नि सा बहुविधभाव ।
घटिता घटिता धुनि मदंग गरजनि, चंचल स्वर मण्डल करू राव।।
स्रमभरे गलित लुलित कबरीजुत, मालति माल विथारल मोति ।
समय बसंत रास रस वर्णन, विद्यापति मति छोमित होति ।
भाषा और शिल्प की दष्टि से भी विद्यापति की प्रतिभा अनेकोन्मुखी है। संस्कृत, अवहट्ठ और मैथिली में उन्होंने रचनाएँ की हैं। उनके समस्त गीत, मैथिली भाषा में हैं, जो उनकी कीर्ति की ध्वजाएँ हैं। विद्यापति का देहावसानः विद्यापति की मृत्यु 1450 ई० में मानते हैं।