आदिकालीन परिवेश, आदिकालीन परिवेश की प्रमुख विशेषताएँ
आदिकालीन परिवेश , आदिकालीन परिवेश की प्रमुख विशेषताएँ
प्रत्येक काल के परिवेश की अपनी पहचान होती है। समय परिवर्तन के साथ परिवेश में परिवर्तन होना स्वाभाविक है। आदिकालीन परिवेश की कुछ प्रमुख विशेषताएँ रेखांकन योग्य हैं
आदिकालीन ऐतिहासिक परिवेश
भारतीय इतिहास का यह युग राजनीतिक दष्टि से एवं ऐतिहासिक दृष्टि से गह कलह, पराजय एवं अव्यवस्था कार काल है। एक ओर तो इस युग का क्षितिज विदेशी आक्रमणों के भयावह मेघों में आच्छादित रहा और दूसरी ओर रजवाड़ों की पारस्परिक भीतरी कलह घुन की तरह इसे खोखला करती रही। हर्षवर्द्धन की मृत्यु के पश्चात् भारत की संगठित सत्ता चूर-चूर हो गई तथा भारत मे एक विशाल मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना हो गई। आठवीं शताब्दी से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी तक के भारतीय इतिहास की राजनीतिक परिस्थिति हिन्दू सत्ता के विकास की कहानी है।
ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में दिल्ली में तोमर, अजमेर में चौहान और कन्नौज मे गाहडवालों के शक्तिशाली राज्य थे। 1150 में अजमेर के बीसलदेव चौहान ने तोमरों से दिल्ली से हिमालय तक अपना प्रभुत्व कायम कर लिया। दूसरी तरफ यवन-शक्तियों के आक्रमण का प्रभाव मुख्यतः पश्चिम एवम् मध्यप्रदेश पर ही पड़ा था। इस क्षेत्र की जनता युद्धों तथ अधिकारियों के अत्याचारों से पीड़ित थी। इसी क्षेत्र में हिंदी भाषा का विकास हो रहा था। इस प्रकार इस काल का समस्त हिन्दी साहित्य आक्रमण तथा युद्ध के प्रभावों की मनः स्थिति का परिणाम रहा है।
आदिकालीन युग में चारों तरफ युद्धों का ही बोलबाला था इसलिए जीवन में कहीं भी सन्तुलन तथा शान्ति के दर्शन नहीं होते। इसी समय मोहम्मद गौरी ने भारत जीतने की लालसा से भारत पर अनेक आक्रमण किए। पथ्वीराज चौहान उस समय अजमेर का शक्तिशाली राजा था। परन्तु विदेशी आक्रमण के प्रति विशेष जागरूक नहीं था। परिणामस्वरूप कन्नौज के राजा जयचन्द के षड्यन्त्र में फँस कर पथ्वीराज चौहान मोहम्मद गौरी के हाथों पराजित हुआ और मारा गया। जयचन्द तथा परमदिदेव आदि शासकों की पास्परिक लड़ाइयाँ अन्तहीन कथाएँ बनती चली गई और अन्त में दोनों का पतन हुआ। दिल्ली में तुर्क सल्तनत की स्थापना हुई और धीरे-धीरे उसका विकास तथा विस्तार होता चला गया। अराजकता, गह कलह, विद्रोह, आक्रमण और युद्ध के वातावरण में यदि एक कवि आध्यात्मिक जीवन की बातें करता था, तो दूसरा मरते-मरते भी जीवन रस भोगना चाहता था और एक कवि ऐसा भी था जो तलवार के गीत गाकर गर्व से जीना चाहता था। यद्यपि इस युग में विरोध करने वाले भी सर्वत्र थे परन्तु फिर भी मुस्लिम ध्वज प्रायः समस्त उत्तरी भारत में फहराने लगा।
आदिकाल के इस युद्ध प्रभावित जीवन में कहीं भी सन्तुलन नहीं था। अराजकता, गह कलह, विद्रोह, आक्रमण और युद्ध के वातावरण में सर्वत्र मारकाट का तांडव फैल चुका था। इसी काल की विचित्र देन है, जिसके फलस्वरूप यदि एक ओर स्त्री- भोग, हठयोग से लेकर आध्यात्मिक पलायन और उपदेशों तक का साहित्य एक ओर लिखा गया, तो दूसरी ओर ईश्वर की लोक-कल्याणकारी सत्ता में विश्वास करने, लड़ते-लड़ते जीने और संसार को सरस बनाने की भावना भी साहित्य रचना के मूल में सन्निहित हुई।
आदिकालीन सामाजिक परिवेश
आदिकालीन राजनीतिक तथा धार्मिक परिस्थितियों का देश की सामाजिक परिस्थितियों पर भी बहुत गहरा प्रभाव पड़ रहा था। जाति-व्यवस्था गुण और कर्म के आधार पर न होकर वर्ण के आधार पर निरूपित की गयी। एक जाति अनेक उपजातियों में विभक्त हो गई। अल्बरूनी ने कहा है "उन्हें (हिन्दुओं को) इस बात की इच्छा नहीं होती कि जो वस्तु एक बार भ्रष्ट हो गयी है, उसे शुद्ध करके फिर ले लें। उस समय के रूढ़िग्रस्त धर्म के समान समाज भी रूढ़िग्रस्त हो चुका था। नारियाँ भी शौर्य-प्रदर्शन में पुरुषों से कम न थी। जौहर उनके आत्म-बलिदान और शौर्य का प्रतीक था। राजाओं का जीवन विलास भरा था। उनका अधिकांश समय उपपत्नियों के साथ रंग रंलियों में व्यतीत होता था। राजकुमारों को बचपन से ही राजनीति, तर्कशास्त्र, काव्यशास्त्र, नाटक, गणितशास्त्र एवं कामशास्त्र की शिक्षा दी जाती थी। नारियों के संबंध में तत्कालीन समाज की धारणा अच्छी नहीं थी। उसे केवल भोग और विलास की सामग्री मात्र समझा गया। हिंदी के कवियों को जनता की इस स्थिति के अनुसार काव्य-रचना की सामग्री जुटानी पड़ी।
जिस युग में धर्म और राजनीति की दुर्दशा हो उसमें उच्च सामाजिकता की आशा नहीं की जा सकती है। जनता शासन तथा धर्म दोनों ओर से निराश्रित होती जा रही थी। जनता भय तथा निरक्षरता के कारण ईश्वर की ओर दौड़ती थी, परन्तु सर्वत्र भ्रम और असहाय की ही स्थिति मिलती थी। जाँति-पाति के बन्धन मजबूत हो चले थे। एक जाति की अनेक उपजातियाँ होने लगी। छुआछूत के नियम भी सख्त हो गए थे। उच्च वर्ग के लोग भोग करने के लिए तथा निम्न वर्ग के लोग जैसे काम करने के लिए ही पैदा हुए थे। नारी तो केवल भोग की वस्तु मात्र रह गई थी। उसे खरीदा और बेचा भी जाने लगा था। सामान्यजन के लिए सुरक्षा व शिक्षा की कोई व्यवस्था ही नहीं थी। सती प्रथा भी उस समय के समाज का एक भयंकर अभिशाप थी। अनेक प्रकार के अन्धविश्वासों ने इस समाज को जकड़ लिया था। उस समय सर्वत्र वीरता और वंश- कुलीनता का बोलबाला था। वीरता और आत्मबलिदान राजपूत की विशेषता थी। स्वयंवर प्रथा उस युग की एक खास पहचान थी। राजपूत दढ़ - प्रतिज्ञे, स्वामिभक्त, ईमानदार तथा कूटनीतिज्ञ और दूरदर्शी थे, परन्तु उनमें भोग-विलास के प्रति भी खूब आसक्ति थी। राजाओं का जीवन भी विलासप्रिय था। नपति वर्ग का अधिकांश समय अन्तपुर में महिषियों, उपपत्तियों तथा रक्षिताओं के साथ रंग-रलियों मे बीतता था। राजा बहुपत्नी थे।
प्रसिद्ध धर्म शास्त्रीय ग्रंथ 'मिताक्षरा' से तत्कालीन पारिवारिक व्यवस्था का अच्छा परिचय प्राप्त होता है। परिवार सम्मिलित, पितसत्तात्मक और पितस्थानीय था और उसमें सदस्यों की संख्या पर्याप्त रहती थी। उनके धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक कर्त्तव्य निर्धारित कर दिये जाते थे। स्मत्तियों मे वर्णित ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, गान्धर्व, आसुर, पिशाच और राक्षक ये आठ प्रकार के विवाह सैद्धान्तिक दष्टि से मान्य थे। किन्तु व्यावहारिक दष्टि से ब्राह्म विवाह का ही अधिक प्रचार था। क्षत्रियों में राक्षक और गांधर्व विवाह अवश्य प्रचलित थे। निम्न वर्णों में आसुर विवाह की प्रथा थी। स्वयंवर की प्रथा राजपूतों तक ही सीमित रह गयी थी। मुसलमानी आक्रमणों के पश्चात् बाल-विवाह भी प्रचलित हो गया था । विलासिता की प्रवत्ति बढ़ने और यवन, शक, हूणादि के जिनमें स्त्री का बहुत ऊँचा स्थान नहीं था, सम्पर्क में आने के कारण बाल-विवाह की प्रथा को बल मिला। विधवा-विवाह करना निषेध ा था। समाज के विभिन्न वर्गों के विविध प्रकार के उत्सवों और वस्त्राभूषणों के प्रति प्रेम प्रचलित था। आखेट, मल्ल युद्ध, घुड़सवारी, धुत-क्रीड़ा, संगीत, नृत्य आदि मनोरंजन के साधन थे और कवियों का विशेष आदर था। क्षत्रियों में मंदिरा-पान, भाँग और अफीम खाने का प्रचलन था । इस काल का जीवन-क्रम उस समय की वस्तु और मूर्ति-कलाओं मे भली-भाँति प्रतिबिम्बित होता है। जैन मत के गिरिनार तथा आबू वैष्णव एवं शाक्तों के खजुराहों, भुवनेश्वर और पुरी के मन्दिरों की अद्भुत कला के माध्यम से तत्कालीन जीवन की विविधतापूर्वक प्रेरणा स्पष्ट हो जाती है।
आदिकालीन सांस्कृतिक परिवेश
हिंदी साहित्य में आदिकाल का आरम्भ उस समय हुआ जब भारतीय संस्कृति अपने चरमोत्कर्ष पर थी। आदिकाल हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों के परस्पर मिलन का काल है। हर्षवर्द्धन के समय हिन्दू संस्कृति प्रत्येक क्षेत्र मे उन्नति के शिखर पर थी। लोगों के आपसी भेद-भाव समाप्त हो गए थे तथा स्वाधीनता व देशभक्ति की भावना को प्रोत्साहन मिल रहा था। संगीत, चित्रमूर्ति एवं भवन-निर्माण इत्यादि कलाओं में ज्यादा रूचि दिखाई देने लगी थी, विशेष रूप से मन्दिरों व मस्जिदों का निर्माण धार्मिक सद्भावना का घोतक था। भुवनेश्वर, पुरी, खजुराहों, सोमनाथ, बेलोर काँची, तंजौर आदि स्थानों पर अनेक भव्य मन्दिरों का निर्माण आदिकाल के आरम्भ के समय ही बनाए गए थे। आबू का जैन मन्दिर ग्यारहवीं शताब्दी की महत्त्वपूर्ण देन है जो कि भारतीय स्थापत्य का बेमिसाल नमूना है। अरब इतिहासकार अलबरूनी तथा महमूद गजनवी इन मन्दिरों की भव्यता, विशालता तथा भारतीय कलाओं में धार्मिक भावनाओं की ऐसी व्यापक अभिव्यक्ति को देखकर चकित रह गए थे। किन्तु देश के भाग्य की विडम्बना यह रही है कि शताब्दियों से श्रेष्ठता की साधना में तल्लीन महमूद गजनवी जैसे आक्रान्ताओं की विषयाकांक्षा का यह कोपभाजन बन गया और शताब्दियों तक उस कोप से मुक्ति नहीं मिली।
अरब के देशों में आठवीं-नवीं शताब्दी में सूफी मत का उदय हो चुका था किन्तु आदिकाल के अन्त तक भी उसके उदार स्वरूप का प्रवेश तक न हो सका। क्योंकि भारत में जो आक्रान्ता आए, वे उदार भावनाओं के समर्थक नहीं थे। इसलिए इस्लाम संस्कृति का पोषक तत्त्व न बन सका। परिणामस्वरूप दो संस्कृतियाँ एक-दूसरे के सामने मानसिक तनाव की स्थिति में खड़ी एक-दूसरे को शंका की दृष्टि से देखती रहीं।
आदिकाल में भारतीय संस्कृति का जो स्वरूप मिलता है, वह परम्परागत गौरव से रहित तथा मुस्लिम संस्कृति के गहरे प्रभाव से निर्मित हैं। इस काल में हिन्दू-संस्कृति धीरे-धीरे मुस्लिम संस्कृति से प्रभावित होने लगी। भारत के उत्सव, मेलों, त्यौहारों, वेश-भूषा विवाह तथा मनोरंजन आदि पर मुस्लिम रंग मिलने लगा। यहाँ के गायन, वादन तथा नत्य पर मुस्लिम छाप स्पष्ट है। भारतीय संगीत में सांरगी, तबला तथा अलगोजा जैसे वाधों का समावेश इसका स्पष्ट प्रमाण है। चित्रकला के क्षेत्र में इस काल में जो थोड़ा-बहुत कार्य हुआ, उस पर भी मुस्लिम प्रभाव पाया जाता है। मूर्तिकला को छोड़कर अन्य भारतीय ललित कलाओं में मुस्लिम कला की कलम गहरे रूप में लगी।
आदिकालीन साहित्यिक परिवेश
यह युग पास्परिक कलह एवं बाह्य संघर्षो का युग था पर संस्कृत साहित्य की रचना अबाध होती रही और ज्योतिष, दर्शन एवं स्मति आदि विषयों पर टीकाएँ लिखी जाती रहीं। डा० रामगोपाल शर्मा ने लिखा है, कि इस काल में साहित्य-रचना की तीन धारायें बह रही थी। प्रथम संस्कृत साहित्य की थी, जो एक परम्परा के साथ विकसित होती जा रही थी। दूसरी धारा का साहित्य प्राकृत एवं अपभ्रंश में लिखा जा रहा था। तीसरी धारा हिन्दी भाषा में लिखे जाने वाले साहित्य की थी। आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त, कुन्तक, क्षेमेन्द्र, भोजदेव राजशेखर तथा जयदेव इसी युग की देन हैं। प्राकृत तथा अपभ्रंश के कवि धर्म-प्रचार में लगे हुए थे, साहित्य तत्त्व उनकी रचनाओं का सहायक अंग था। हिंदी इस काल की ऐसी भाषा थी जिसमें तत्कालीन परिस्थितियों की प्रतिक्रिया प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में मुखर हो रही थी।
ग्यारहवीं शती उत्तरार्द्ध साहित्य की दृष्टि से विकासशील था। कर्ण के दरबार में अपभ्रंश कवियों का सम्मान था। जैन- भण्डारों में सुरक्षित ग्रन्थों की भाषा परिनिष्ठित अपभ्रंश के निकट की है। उदाहरणार्थ, 'प्राकृत पैंगलम्' की कई कविताओं में कर्ण की प्रशंसा की गई है। ये कविताएं अपभ्रंश की हैं जो हिंदी के चारण कवियों की भाषा का पूर्णरूप है। इन कविताओं की भाषा सुथरी एवं साफ है। इस काल में दो श्रेणियों की रचनाएँ अपभ्रंश और देश्यामिश्रित रचनाएँ मिलती हैं। वे इस युग की सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक अवस्था के अनुरूप ही है।
इस काल में व्रजयानी और सहजयानी सिद्धों, नांथपंथी योगियों, जैनधर्म के अनुयायी संत एवं मुनियों की रचनाएँ धार्मिक उपदेशपूर्ण शैली में मिलती हैं। वीरता तथा श्रंगार का चित्रण करने वाले चारणों, भाटों आदि की रचनाएँ भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं।