श्री अरविन्द घोष का जीवन दर्शन
श्री अरविन्द घोष का जीवन दर्शन (Arvind Ghosh Ka Jeevan Darshan)
- कोई भी महापुरुष अपने जीवन का कालखण्ड जीता है, और अपने युग की समग्र चेतना को नये सिरे से व्यवस्थित और रूपान्तरित करता है। भगवान राम का कालखण्ड त्रेता है जहाँ धर्म के तीन पद शेष हैं, चौथा लुप्त है श्रीकृष्ण के कालखण्ड द्वापर में केवल दो पैर बचे हैं। इसलिए श्रीराम और श्रीकृष्ण का कार्यक्षेत्र भिन्न है, उनकी मान्यताएं और उनका कार्य भिन्न है। अतएव इन दोनों का तुलनात्मक अध्ययन अध्ययनकर्ता की मानसिक मूढ़ता का द्योतक है।
- इसी प्रकार 16वीं - 20वीं सदी का आधुनिक युग श्री अरविन्द का कार्यक्षेत्र है । वे पाश्चात्य और भारतीय दोनों संस्कृतियों के मर्मज्ञ थे। आपने देखा कि किस तरह इंग्लैण्ड उनके लिए उनका गोकुल था । वे वहीं पढ़े और बड़े हुए थे। भारत लौटने पर जिस तरह उन्हें निर्वाण और वासुदेव दर्शन की प्राप्ति हुई, उससे इस देश की पूरी की पूरी धरोहर ही उन्हें मिल गयी थी ।
- 16वीं सदी के पश्चिमी जगत में जिस गति से विज्ञान, टेक्नॉलजी, उद्योगों तथा कल-कारखानों का अभ्युदय हुआ, उसने उस सभ्यता की जड़े हिला कर रख दी। प्रमाण और साक्ष्यों पर आधारित वैज्ञानिक सोच ने पश्चिम की आस्था के संसार को ही हाशिए पर डाल दिया, क्योंकि आस्था के पास प्रमाण का सर्वथा अभाव है। प्रमाणिकता तो केवल पदार्थ, देह और उनमें निहित प्रक्रियाओं की है। 16वीं सदी के अन्त तक पश्चिमी जनमानस में श्रद्धा और विश्वास का ऐसा संकट व्याप्त हो चुका था कि लोगों का विश्वास ( faith) में ही विश्वास नहीं रहा। नयी विचारधारा ने एक के बाद उद्घोषणा की कि ईश्वर मर चुका है, लेखक मर चुका है, ट्रैजेडी- जो उनके साहित्य का मूल थी, वह मर चुकी है। यही प्रत्यक्ष भूमि श्री अरविन्द के कालखण्ड को विरासत में मिली । 16वीं सदी के भारतीय जनमानस में प्राणिक, मानसिक और बौद्धिक तमस अपनी पराकाष्ठा पर थी । थके हारे निराश मन में संघर्ष की शक्ति क्षीण हो चुकी थी । इसीलिए इस जनमानस को विवेकानन्द ने 'उत्तिष्ठत जाग्रत उठो और जागो का नारा दिया। श्री अरविन्द के जीवन दर्शन को समझने के लिए इस पृष्ठभूमि की समझ आवश्यक है। आधुनिक मानव सभ्यता के संकट की विवेचना करते हुए श्री अरविन्द कहते हैं कि एक तरफ भौतिकवादी दृष्टिकोण है जो आत्मा, ईश्वर और पारलौकिक सत्ता को पूरी तरह से अस्वीकार करता है, और दूसरी तरफ भारत में बुद्ध और शंकराचार्य द्वारा पोषित संन्यासी का दृष्टिकोण है जो इस भौतिक जगत की सत्ता को माया, मिथ्या, प्रपंच और लीला बता कर पूर्णरूपेण अस्वीकार कर देता । श्री अरविन्द के अनुसार यह दोनों ही मत एकांगी हैं, और भारत के प्राचीन मूल चिन्तन से सर्वथा भिन्न ।
- गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि सृष्टि के प्रारम्भ में उन्होंने विवस्वान (सूर्य) को शाश्वत योग की शिक्षा दी थीय वही ज्ञान, जो कालान्तर में लुप्तप्राय हो चुका था, वे एक बार पुनः अर्जुन को देते हैं। इसी प्रकार श्री अरविन्द ने देखा कि भारतीय चिन्तन की शाश्वत परम्परा के एक पुरातन पक्ष को बुद्ध और शंकर के शून्यवाद - मायावाद का आंशिक ग्रहण लग चुका है। बुद्ध और शंकर से सहस्राब्दियों पूर्व भारतीय ऋषियों ने जिस सत्य का साक्षात्कार किया था वह था, "सर्व खलविदं ब्रह्म" या गीता के शब्दों मे "वासुदेवः सर्वमिति" यह संसार, यह सृष्टि, यह जीवन जो हम अन्दर-बाहर जीते हैं, यह सब अपने वास्तविक स्वरूप में ब्रह्म है, भगवान वासुदेव के अनन्त रूप हैं। रज्जु में सर्प का भ्रम हो, तो वहाँ तत्त्वदोष नहीं, दृष्टिदोष है.
- श्री अरविन्द का मार्ग सांसारिक जीवन की अस्वीकृति इससे पलायन या संन्यास का मार्ग नहीं है। वे इस जीवन के रूपान्तरण की बात करते हैंय दृष्टिदोष से मुक्ति का मार्ग खोजने की प्रेरणा देते हैं। एक अन्य इकाई में आपने देखा कि किस तरह धृतराष्ट्र इस दृष्टिदोष की पराकाष्ठा वे तो पूरे के पूरे दृष्टिहीन हो चुके हैं। दृष्टि पर अज्ञान का आवरण है, इसलिए दृष्टिदोष है। अज्ञान हटते ही कण कण में आत्मा और भगवान वासुदेव के दर्शन होने लगते हैं, और तब केवल हमारा अन्दर बाहर की जीवन ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि ही अपनी दिव्यता के स्वरूप को प्राप्त होती है। रूपान्तरण का यह सिद्धान्त पढ़ने में बहुत आसान जान पड़ता है, मगर व्यवहार में इस पथ पर एक कदम बढ़ाने में ही पसीना छूटने लगता है। विवेकानन्द के प्रिय मन्त्र की अगली पंक्ति कहती है कि यह मार्ग तलवार की धार पर चलने जैसा है - "क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत् कवयो वदन्ति । श्री अरविन्द कहते हैं कि पहला कदम आरोह ( Ascent) का हैय ऊपर उठ कर आत्मा की भूमि में स्थिति प्राप्त करने का है। अगला कदम अवतरण (Descent) का हैय जो प्राप्ति है, सिद्धि है, उसे मन, प्राण और शरीर की भूमि में स्थापित करना पड़ता है, तभी रूपान्तरण घटित होता है। सत्य केवल देखने, समझने और जानने की चीज नहीं है- उसे जीना पड़ता । यही गाँधी, विवेकानन्द और श्री अरविन्द के जीवन की सीख है ।
- श्री अरविन्द के चिन्तन की एक और महत्वपूर्ण दृष्टि है, इस सृष्टि की सार्थकता। इस सम्पूर्ण सृष्टि तथा हमारे जीवन के हर पल में जो घटित होता है, उसका एक प्रयोजन है, एक उद्देश्य है । सृष्टि की गति में एक विकास की धारा या इवोल्युशन परिलक्षित है। विष्णु भगवान के अवतारों में यही क्रमिक विकास दिखता है मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह । चौरासी लाख योनियों की अवधारणा में भी यही बात दिखती है। क्रमिक विकास की यह अवधारणा डार्विन के सिद्धान्त से सर्वथा भिन्न है . श्री अरविन्द कहते हैं कि विकास आत्मा और परम तत्त्व का उत्तरोत्तर प्राकट्य है । महापुरुषों और सामान्यजन में भेद इसी प्राकट्य के परिमाण का है । इस प्रकार श्री अरविन्द का जीवन दर्शन हमें अज्ञान के बेड़ियों से मुक्ति तथा महापुरुषों की श्रेणी की ओर एक और कदम बढ़ाने के लिए प्रेरित करता है ।