भक्ति आन्दोलन के आचार्य और उनकी भूमिका
भक्ति आन्दोलन का उदय
भक्ति आन्दोलन का उदय दक्षिण भारत को मानना या न मानना । विद्वानों में चर्चा का विषय रहा है। भक्ति आन्दोलन का उदय बेशक दक्षिण में न माना जाये, लेकिन यह स्वीकार करना पडेगा कि पाँचवी और छठी शताब्दियों में दक्षिण में जैनों और बौद्धों का पतन होता है और शैवों तथा वैष्णवों को अपने कार्य में विजय प्राप्त होती है। निसंदेह कहा जा सकता है कि, तत्कालीन आलवारों तथा नायनमारों का भक्ति आन्दोलन में विशेष महत्त्व रहा है। इसी महत्त्व को निरूपित करते हुए नन्द लाल सिन्हा ने कहा है-
"भारत की एकता तथा हिन्दुत्व का सुधार उपस्थित करने के लिए भक्ति आन्दोलन को प्रवृत्त करके दक्षिण के आलवार तथा नामनमार सतों ने हमें आभारी कर दिया।"
भक्ति आन्दोलन के इतिहास में आलवारों और नायनमारों का योगदान चिरस्मरणीय रहेगा। आलवारों को वैष्णव कहा गया है। इनकी संख्या 12 मानी गयी है। इनकी रचनाएँ दिव्य प्रबन्धम में संकलित हैं जिसका सम्पादन नाथमुनि ने नौवीं शती के अन्त में किया था। दिव्य प्रबन्धम्' में सकलित पदों की संख्या लगभग चार हजार है। नायनमार को शैव कहा जाता है। इनका भी उद्देश्य हिन्दू धर्म की रक्षा करना था । इन्होंने अपनी सारी- अर्चना शिव को ध्यान में रखकर की है। तिरुज्ञान सम्बन्धक, अप्पर, सुंदर मूर्ति नायनमारों में प्रधान है। भक्ति के प्रचार और विस्तार में इनका विशेष महत्त्व है। भक्ति आन्दोलन को तीव्र गति प्रदान करने में आचार्यों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है। इस आन्दोलन में जिन आचार्यों ने कार्य को गति दी, उनका उल्लेख इस प्रकार किया जा सकता है
भक्ति आन्दोलन के आचार्य और उनकी भूमिका
शंकराचार्य
शंकराचार्य का कार्यक्षेत्र सारा भारतवर्ष था। उन्होंने भक्ति का ही प्रचार नहीं किया, वरन् आने वाली पीढ़ी का मार्ग दर्शन भी किया। अद्वैत का प्रचार करना ही उनके जीवन का लक्ष्य था । अनैतिकता अन्धविश्वास तथा हिंसा से भक्ति को मुक्ति दिलाने का श्रेय शंकराचार्य को ही है।
रामानुज
के० एल० नीलकान्त शास्त्री ने लिखा है कि भक्ति आन्दोलन के संगठनात्मक तत्त्वों को बलशाली सिद्ध करने का सबसे बड़ा श्रेय आचार्य रामानुज को है। आचार्य की सबसे महत्त्वपूर्ण देन भक्ति जगत् में बुद्धि पक्ष तथा हृदय पक्ष दोनों का समन्वय करना था। रामानुज का दार्शनिक सिद्धान्त विशिष्टताद्वैतवाद है ।
निम्बार्क
निम्बार्क के दार्शनिक सिद्धान्त को द्वैताद्वैत कहते हैं। इनके दो ग्रन्थ बताये जाते हैं वेदान्त पारिजात सौरभ तथा दशश्लोभी। हिंदी को इस सम्प्रदाय की महत्त्वपूर्ण देते है। घनानंद इसी सम्प्रदाय के अन्तर्गत आते हैं।
रामानन्द
रामानंद के विषय में प्रचलित है कि
"भक्ती द्राविड़ ऊपजी लाये रामानन्द |
परगट किया कबीर ने सप्तदीप नवखंड । । "
इस सन्दर्भ में देवीशंकर अवस्थी ने कहा है कि उत्तर भारत में वैष्णव साधना का पहला केन्द्र काशी में श्री वैष्णवों का बना । दक्षिण में भक्ति रामानन्द के गुरू राघवानंद लाए थे । परंतु संभवतः दक्षिण की परिस्थितियों में पले-बढ़े राघवानंद उत्तर भारत की मनोवृत्ति के अनुकूल नहीं बन पाये थे, परंतु अपने विद्रोही शिष्य रामानंद को अलग सम्प्रदाय चलाने की आज्ञा देकर एक समुचित कार्य किया था । रामानन्द ने भक्ति के क्षेत्र में अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किये। उन्होंने भक्ति का द्वार सभी वर्गों और जातियों के लिए खोला, देवासन-पूजासन पर राम-सीता की प्रतिष्ठा की और लोक भाषाओं को मान प्रदान किया। उनकी दो रचनाएँ भी प्राप्त है। वैष्णव मताब्ज- भास्कर' तथा 'श्री रामार्चन पद्धति' ।
मध्वाचार्य
आचार्य मध्वाचार्य का जन्म 1197 में कर्नाटक में माना जाता है। इन्होंने द्वैतवादी मत का प्रवर्त्तन किया था। गीता भाष्य, विष्णुतत्त्व निर्णय, बाह्मसूत्र भाष्य, उपनिषद् भाष्य, सदाचार स्मति आदि उनके प्रध् ग्रन्थ हैं। मध्वाचार्य ने मायावाद का विरोध करते हुए उसका खण्डन किया था । चैतन्य सम्प्रदाय के प्रवर्त्तक चैतन्य महाप्रभु माध्व सम्प्रदाय के भक्त थे।
बल्लभाचार्य
बल्लभाचार्य शुद्धाद्वैतवाद (पुष्टिमार्ग) के प्रवर्तक थे। आचार्य बल्लभ मायावादियों तथा नास्तिकों के घोर विरोधी थे। बल्लभाचार्य की भक्ति पद्धति का नूतन रूप और उसमें कृष्ण के माधुर्य भाव की उपासना की स्वीकृति अपनी विशिष्ट देन है जो विष्णु स्वामी के युग में किसी भी रूप में प्रचलित नहीं थी। आचार्य बल्भ ने संवत् 1556 में श्री नाथ के मन्दिर का निर्माण करवाया था। हिंदी भक्ति साहित्य की समद्धि में इस मन्दिर का बड़ा महत्त्व रहा है। इस सन्दर्भ में देवीशंकर अवस्थी ने लिखा है कि "यह मंदिर आगे चलकर न केवल बल्लभ सम्प्रदाय का ही केन्द्र पीठ बना, बल्कि अष्टछाप के गायक कवियों की सजन - भूमि भी बनने का गौरव इसी ने प्राप्त किया। हिंदी के भक्ति साहित्य के निर्माण में इस मंदिर का स्थान अक्षुण्य रहेगा।"
चैतन्य महाप्रभु
चैतन्य महाप्रभु प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी थे। भक्तिमार्ग में दीक्षित हो जाने के बाद शास्त्रार्थ में उनकी रूचि समाप्त हो गई, उपदेशक बनने की उन्हें याद नहीं रही तथा जयदेव, विद्यापति आदि की कृतियों, ब्रह्मसंहिता तथा लीला शुक बिल्वमंगल के 'कृष्णों कर्णामत को छोड़कर अपने भावावेश में कुछ पढ़ने का कभी अवसर नहीं मिला। राधा कृष्ण की लीलाओं का स्मरण और भावन, कृष्ण-संकीर्तन एवं हरिबोल का निरन्तर उच्चारण बस यही उनके नैमित्तक कर्म, धर्म, प्रचार या शास्त्रार्थ थे । पर इनके पीछे संवेग की सान्द्रता, आत्मा की गहनता एवं गूढतम पुकार थी जिसने उन्हें इतना मोहक और प्रभावशाली बना दिया। इसके अतिरिक्त भक्ति आन्दोलन के अन्य आचार्यों में स्वामी हरिदास, गोस्वामी, हित हरिवंश आदि का भी नाम बड़े गौरव से लिया जाता है।
भक्ति आन्दोलन सामाजिक विषमता को मिटाकर सामाजिक समता का सन्देश देता है। वह जाति-पाँति, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब में किसी प्रकार का अन्तर नहीं मानता है। भक्ति आंदोलन वैयक्तिक और सामाजिक शुचिता पर भी बल देता है। चारित्रिक उन्नति का पक्ष लेता है। भक्ति आंदोलन धार्मिक उदारता पर टिका हुआ है। यह धार्मिक सद्भाव का पक्षधर है। ब्रह्मचारों बाह्याडम्बरों का तीव्र विरोध ा भक्ति—आंदोलन का मूल लक्ष्य रहा है। इसी लक्ष्य के कारण कबीर आदि संतों ने हिन्दू तथा मुसलमान किसी में कोई भेद नहीं माना है। वे दोनों धर्मावलम्बियों को समझाते हुए कहते हैं कि
"कह हिन्दू राम पियारा, तुरक कहै रहमाना ।
आपस में दोउ लरि लरि मुये, मरम न काहू जाना ।
हिंदी भाषा एवं साहित्य के लिए भक्ति आंदोलन एक वरदान था। इस आन्दोलन से सम्बद्ध कवियों ने लोक भाषा में काव्य की रचनाएँ की है। कबीर ने एकता स्थापना का बड़ा विनम्र और प्रसन्न प्रयास किया है लेकिन कबीर ने संस्कृत को अस्वीकार करते हुए उसे कूप जल माना है। यथा
"कबिरा संस्कीरत है कूप जल, भाषा बहता नीर । "
भक्तिकालीन साहित्य सच्चे अर्थों में संवेदनशील रहा है। साहित्यकारों का मानस स्वच्छ और उदार था। इसीलिए उनका साहित्य जन भावनाओं की सहज, प्रवत्तियों, परिस्थितियों, विकृतियों और विडम्बनाओं का एक विशाल शब्द-चित्त है। दूसरे शब्दों में उन्होंने तत्कालीन समाज का यथार्थ चित्र अंकित किया है। भक्तिकालीन आन्दोलित साहित्य, आशावाद और आस्था की भावना संस्थापित करने में सहायक साहित्य है। यह जीवन-शक्ति का अजस्र स्रोत है। इसमें युग-बोध और युग-चेतना का व्यापक रूप प्रतिफलित है। भक्तिकालीन साहित्य रचियताओं ने तत्कालीन समाज को दोषमुक्त कर परिष्कृत बनाने की चेष्टा की है।