हिंदी साहित्य और भक्ति आन्दोलन
भक्ति आन्दोलन
भक्ति भगवान के प्रति मानव की प्रेम भावना का प्रवाह है। इस भावना प्रवाह से वह तो आनन्द की अनुभूति करता ही है जबकि उससे दूसरे लोग भी आनन्द की अनुभूति प्राप्त करते हैं। भक्ति का मूल उद्गम हमें वेदों से ही दिखाई पड़ने लगता है। वह उनकी भक्ति भावना का ही प्रयास है। जिससे ऋषियों ने गहरी श्रद्धा और अनुरक्ति के द्वारा देवताओं पर ऋचाएँ लिखी हैं। विष्णु को भगवान रूप में प्रतिष्ठा मिल चुकी थी। गीता इसका प्रमाण है। इस कृति में ज्ञान, भक्ति और कर्म का श्रेष्ठ समन्वय भी हुआ है। पुराण साहित्य तो भक्ति की दृष्टि से विशेष महत्त्व रखते है। पुराण-काल में वैष्णव भक्ति का बड़ा ही चमत्कारी वर्णन मिलता है।
भक्ति आंदोलन के उदय का एक कारण मुसलमान आक्रान्ताओं को भी माना जाता है। इस सन्दर्भ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मत इस प्रकार है-
"देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिन्दू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उसके मंदिर गिराये जाते थे, देव मूर्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ न कर सकते थे। ऐसी स्थिति में अपनी वीरता के गीत न तो वे गा ही सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे। आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतन्त्र राज्य भी नहीं रह गये । इतने भारी राजनीतिक उलटफेर के नीचे हिन्दू जनता पर उदासी छाई रही। अपने पौरूष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करूणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?"
भक्ति आन्दोलन का विश्लेषण
भक्ति आन्दोलन के आचार्यों में
शंकराचार्य, रामानुज, निम्बार्क, रामानन्द, महवाचार्य, बल्लभाचार्य, चैतन्य महाप्रभु आदि रहे हैं। हिंदी का भक्ति आन्दोलन संवत् 1400 से 1700 तक का माना गया हैं। इसमें प्रमुख रचनाकार कबीरदास, रैदास, नानक, जायसी, सूरदास, मीरा, तुलसीदास, आदि दिग्गज कवियों ने भक्ति कालीन परिवेश को आन्दोलन के रूप में उद्घाटित किया है।
भक्ति के उत्थान का तृतीय काल 1375 ई० से माना जाता है। इस काल में हिंदी साहित्य भक्ति से ओत-प्रोत था । इसलिए हिंदी - साहित्य के इतिहास में यह काल भक्ति-काल' कहलाता है। मध्यकालीन भक्ति का विकास दो शाखाओं में हुआ - निर्गुण तथा सगुण । इनकी भी दो-दो शाखायें है। निर्गुण में ज्ञानाश्रयी तथा प्रेमाश्रयी शाखा एवं सगुण में कृष्ण तथा राम-शक्ति की शाखा । इस प्रकार भक्ति आन्दोलन का संक्षेप में विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता है भक्ति दो भागों में प्रवाहित होकर चली
(1) सगुण ( 2 ) निर्गुण
सगुण भक्ति आगे दो भागों में विभाजित हुई (1) रामभक्ति (2) कृष्ण भक्ति
निर्गुण भक्ति के भी भाग इस प्रकार है (1) संत मत (ज्ञानाश्रयी) (2) सूफी मत (प्रेमाश्रयी)
भक्ति आंदोलन के विषय में विभिन्न विद्वानों के मत इस प्रकार रहे हैं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भक्ति आन्दोलन को पराजित मनोवृत्ति का परिणाम तथा मुस्लिम राज्य की प्रतिष्ठा की प्रतिक्रिया माना है।
आचार्य शुक्ल ने लिखा है-
"अपने पौरूष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करूणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग की क्या था।"
डा० ताराचन्द आदि विद्वानों ने माना है कि
भारतीय भक्ति आन्दोलन मुस्लिम संस्कृति के सम्पर्क की देन है और शंकराचार्य, निम्बार्क, रामानुज, रामानन्द, वल्लभाचार्य, आलवार, संत तथा लिंगाचत आदि सम्प्रदायों की दार्शनिक मान्यताओं पर मुस्लिम प्रभाव है।
प्रायः अधिकांश विद्वानों का मत है कि भक्ति का बिखा ऐसा नहीं है जो विदेशों से लाया गया हो। न ही यह निराशा प्रवत्तिजन्य है और न ही किसी प्रतिक्रिया का फल वस्तुतः यह एक प्राचीन दर्शन-प्रवाह और प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा की एक अविच्छिन धारा हैं।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा है,
"नया साहित्य (भक्ति साहित्य) मनुष्य जीवन के एक निरचित लक्ष्य और आदर्श को लेकर चला । यह लक्ष्य हैं भगवद्भक्ति, आदर्श, शुद्ध सात्विक जीवन और साधन, भगवान के निर्मल चरित्र और सरस लीलाओं का गान इस साहित्य को प्रेरणा देने वाला तत्त्व भक्ति है। इसीलिए यह साहित्य अपने पूर्ववर्ती साहित्य से अति उत्तम है।
मध्यकालीन भक्ति साहित्य प्रायः पद्यमय है और वहाँ साहित्य काव्य का पर्याय है। इसीलिए काव्य रसिकों अथवा साहित्य- पारखियों का ध्यान अचानक ही उन मानदण्डों की ओर आकृष्ट हो जाता है जिन्हें उत्कृष्ट काव्य की कसौटी मान लिया जाता है और जो किसी न किसी काव्यशास्त्र परम्परा का अनुसरण करते हैं कबीर जायसी, सूर तथा तुलसी जैसे संवेदनशील इस काल में छाये रहे इस समय संस्कृत की टीकाओं, व्याख्याओं की सष्टि होती रही।
धार्मिक संघर्ष के इस युग में तत्कालीन बादशाहों तथा राजाओं के भक्ति कवियों ने प्रशस्ति, श्रंगार रीति नीति आदि से सम्बन्धित मुक्तक और प्रबन्ध दोनों प्रकार की रचनायें की। इस काल में वीर रस प्रधान काव्यों की रचना हुई तथा इसके साथ-साथ अन्य रसों की भी रचनाएँ लगातार आती रहीं। मुगल बादशाह शेरशाह सूरी और शहजादे तथा अनेक प्रादेशिक मुस्लिम शासकों के अतिरिक्त अनेक हिन्दू राजाओं ने हिंदी भाषा को प्रोत्साहन तो दिया परन्तु संस्कृत के समानान्तर हिंदी को वह सम्मान न मिल सका जो उसे मिलना चाहिए था। राजस्थानी ब्रजभाषा की रचनाएँ अधिकता में देखने को मिलती हैं और इसमें भक्ति भावना का प्रखर स्वर है। धर्म की व्याख्या करने वाले इन काव्यों में उच्च कोटि के काव्य के दर्शन होते हैं। उसकी आत्मा भक्ति है, इसका जीवन स्रोत रस है और उसका शरीर मानव है। इस युग का भक्ति साहित्य हृदय, मन और आत्मा को प्रभावित करता है। यह साहित्य लोक तथा परलोक दोनों की ही व्याख्या मार्मिकता के साथ प्रस्तुत करता है।
भक्तिकालीन साहित्यकारों द्वारा उठाये गये आन्दोलनकारी कदम
1. रूढ़ियों तथा आडम्बरों का विरोधः
प्रायः सभी संत कवियों ने रूढ़ियों, मिथ्या आडम्बरों तथा अन्धविश्वासों की कटु आलोचना की है। इसका कारण इन लोगों का सिद्धों तथा नाथ पन्धियों से प्रभावित होना है ये लोग तत्कालीन समाज में पाई जाने वाली इन कुप्रवृत्तियों का कड़ा विरोध कर चुके थे। इन कवियों ने मूर्तिपूजा, धर्म के नाम पर की जाने वाली हिंसा, व्रत, रोजा, नमाज, हज्ज इत्यादि विधि-विधानों का कड़ा विरोध किया है ।
"बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल।
जो जन बकरी खात है, तिनको कौन हवाल ।। "
"पत्थर पूजें हरि मिले तो मैं पूजूं पहार ।
ताते वह चक्की भली पीस खाय संसार ।। "
"कांकर पत्थर जोरि के, मस्जिद लई बनाय ।
ता चढि मुल्ला बांग दे, बहिरा हुआ खुदाय ।। "
2. आत्मसमर्पण की भावना
संत एवं भक्ति साहित्य में सभी इतिहासकारों की मान्यता रही है क्योंकि भक्ति के क्षेत्र में जब तक कोई व्यक्ति अपने अहं अथवा 'मैं' की भावना को मिटा नहीं देता, तब तक उसे किसी प्रकार की आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं हो सकती। तुलसी ने तो अपनी दास्य भक्ति में किसी प्रकार का अहं नहीं रखा।
3 भजन तथा नाम की महत्ता पर बल
संत कवियों ने ईश्वर-प्राप्ति के लिए भजन तथा नाम स्मरण को परमावश्यक माना है। इसीलिए उन्होंने कहा है कि
"सहजो सुमिरन कीजिए, हिरदै माहिं छिपाइ ।
होठ होठ यूँ न हिले, सके नहीं कोई पाइ।।
संत कवि ब्राह्म-विधानों से परिपूर्ण किसी भी साधना पद्धति में आस्था नहीं रखते। अपने आराध्य का, मन को एकाग्र कर स्मरण करना ही उनके लिए यहाँ अभिप्रेत रहा है।
4. उनके हृदय गुरु की महत्ता पर बलः
सभी संतों ने ब्रह्म - साधना के लिए सद्गुरू का पथ-प्रदर्शन अनिवार्य माना है। सद्गुरू ही उन्हें परम तत्त्व के रहस्य से परिचित करा, में उसके प्रति अनन्य प्रेम की भावना उत्पन्न करता है। नामदेव ने गुरू महिमा को व्यक्त करते हुए कहा है।
"सुफल जनम मोको गुरु कीना दुख बिसार सुख अंतरदीना ।
ज्ञान जान मोको गुरू दीना । राम नाम बिन जीवन हीना ।। "
5. नारी के प्रति दृष्टिकोण
संत कवियों ने सती एवं पतिव्रता नारियों की प्रशंसा की है। नारी के सत् पक्ष का निरूपण करते हुए कबीर ने लिखा है
"पतिव्रता मैली भली, काली कुचित कुरूप ।
पतिव्रता के रूप, वारौं कोटि सरूप।। "
उन्होंने नारी की कभी भी निन्दा नहीं की है केवल नारी के कामिनी रूप की निन्दा जरूर की है, उसे माया पथ भ्रष्ट करने वाली माना है।